Tuesday, December 3, 2024
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जघन्य अपराध, कचरे का डब्बा और एक दुर्घटना… ‘लार्जर दैन लाइफ’ के दौर में ताज़ा हवा का झोंका है Maharaja: रीमेकजीवी बॉलीवुड क्यों नहीं बुन पाता ऐसा थ्रिलर?

'महाराजा' फिल्म में देश की पुलिस व्यवस्था पर कटाक्ष भी है, ये भी दर्शाया गया है कि बड़ा से बड़ा जघन्य अपराधी भी समाज में एक सामान्य नागरिक के रूप में हमारे बीच रह रहा हो सकता है और हमें इसकी भनक तक न हो।

भारत में थ्रिलर फ़िल्में बहुत कम बनती हैं, अगर बनती हैं तो फिर उनका क्लाइमैक्स गड़बड़ हो जाता है। हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं। थ्रिलर में अलग-अलग जॉनर हैं, जैसे एक्शन से लेकर सस्पेंस तक। हालाँकि, जहाँ थ्रिल है वहाँ सस्पेंस होगा ही। सस्पेंस के बिना थ्रिल नहीं हो सकता। एक तमिल फिल्म आई है, ‘महाराजा’, जिसमें विजय सेतुपति और अनुराग कश्यप मुख्य किरदारों में हैं। फिल्म थ्रिल, सस्पेंस और एक्शन का एक अच्छा मिश्रण तैयार करती है, वो भी पारिवारिक पृष्ठभूमि के इर्दगिर्द।

फिल्म में पारिवारिक संवेदनाएँ भी हैं, बलात्कार जैसे अपराध की जघन्यता भी है, दक्षिण भारत की अधिकतर फिल्मों की तरह वास्तविक न लगने वाले एक्शन का अत्यधिक डोज भी नहीं है, अच्छा अभिनय भी है, जबरन ठूँसे जाने वाले रोमांटिक गाने और रोमांस के दृश्य भी नहीं हैं। जब ये सब कुछ होता है तो एक भारतीय फिल्म बहुत अच्छी बन पड़ती है। हॉलीवुड में हमने दर्जनों निर्देशकों को सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों को क्लाइमैक्स के साथ बेहतरीन तरीके से सँभालते हुए देखा है, भारतीय फिल्मों में ये दुर्लभ है।

मलयालम फिल्मों में ज़रूर काफी एक्सपेरिमेंट्स होते रहे हैं, हाल में आई ममूटी की फिल्म ‘ब्रह्मयुगम’ इसका उदाहरण है। हटके फिल्मों की बात करें तो हमारे दिमाग में 2018 में रिलीज हुई ‘तुम्बाड़’ का नाम आता है, इसके बाद लोककथाओं पर आधारित कई फ़िल्में सामने आईं जिनमें कन्नड़ फिल्म ‘कांतारा’ का उदाहरण दिया जा सकता है। ‘कल्कि’ भी महाभारत को तकनीक पर चलने वाले भविष्य के युग से जोड़ने का प्रयास किया गया है। लेकिन, इन सबके बीच थ्रिलर जॉनर खासकर बॉलीवुड के लिए आज भी पहेली बना हुआ है।

सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों की बात करें तो मलयालम व हिंदी में हमारे पास ‘दृश्यम’ सीरीज है, हिंदी में ‘अंधाधुन’ है, मलयालम में ‘मुंबई पुलिस’ जैसी फिल्म है, कन्नड़ में ‘लुसिया’ जैसी फिल्म है, तमिल में ‘ध्रुवंगल पाठिनारु’ जैसी फिल्म है। तेलुगु फिल्मों के हाथ इस मामले में ख़ासे तंग हैं। वहाँ की लार्जर दैन लाइफ फिल्मों ने ही पूरे भारत में राज किया है – ‘बाहुबली’ हो या ‘पुष्पा’। ऐसे में ‘महाराजा’ भारतीय फिल्मों के लिए एक तेज़ हवा का झोंका है।

‘महाराजा’ में विजय सेतुपति और अनुराग कश्यप के बाद तीसरा सबसे महत्वपूर्ण किरदार है निर्देशक। फिल्म को जिस तरीके से पेश किया गया है, वो प्रशंसा के लायक है। निर्देशक नीतिलन स्वामीनाथन सिर्फ 1 फिल्म पुराने हैं, ऐसे में उन्होंने इस फिल्म को दर्शकों के समक्ष पेश करने का जो तरीका आजमाया है उसके बाद आगे भी उनकी फिल्मों पर नज़र रहेगी। भूतकाल और वर्तमान के दृश्यों का इससे बेहतर समुच्चय पेश किए जाने का उदाहरण कम से कम भारतीय फिल्मों में तो नहीं मिलता। इसमें निर्देशन के अलावा एडिटिंग का भी बड़ा रोल है।

‘महाराजा’ के बारे में कोई Spoiler न देते हुए मैं सिर्फ इतना बताना चाहूँगा कि ये 2 पिताओं की कहानी है, जिनकी बेटियाँ हैं। ये उन 2 पिताओं की कहानी है, जो अपने परिवार को खुश देखना चाहते हैं। ये उन 2 पिताओं की कहानी है जिसमें एक ने संघर्ष का रास्ता चुना और एक ने अपराध का। ये उन 2 पिताओं की कहानी है, जो अपनी बेटियों के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं। ये उन 2 पिताओं की कहानी है, जिनकी राहें एक जगह टकरा जाती हैं और पूरी फिल्म की कहानी बनती है।

‘महाराजा’ फिल्म में देश की पुलिस व्यवस्था पर कटाक्ष भी है, ये भी दर्शाया गया है कि बड़ा से बड़ा जघन्य अपराधी भी समाज में एक सामान्य नागरिक के रूप में हमारे बीच रह रहा हो सकता है और हमें इसकी भनक तक न हो। ‘महाराजा’ मानवता की भी कहानी है, ये राक्षसी प्रवृत्ति की भी कहानी है। एक सैलून का नाई और उसका एक ग्राहक, दोनों मिलते हैं। फिर एक दुर्घटना घटित होती है। फिल्म की कहानी की जड़ यही है, आगे आप खुद देख सकते हैं।

दक्षिण भारतीय फिल्मों का पार्श्व संगीत हमेशा से ज़ोरदार रहा है, खासकर तमिल फिल्मों का। थलापति विजय की हाल ही में आई Leo को उसके बैकग्राउंड म्यूजिक ने बचाया था। ‘महाराजा’ में B अजनीश लोकनाथ का संगीत है, जो अनुभवी संगीतकार है। खासकर अनुराग कश्यप की एंट्री वाले दृश्य में और विजय सेतुपति के एक्शन वाले दृश्य में आपको बैकग्राउंड संगीत फिल्म के साथ आपको बाँधने में आपकी मदद करेगा। निर्देशक ने फालतू की चीजें दिखाने में समय व्यर्थ नहीं किया है, वो कहानी पर ही टिका रहा है।

एक सामाजिक समस्या को कमर्शियल तत्वों के साथ मिला कर पेश करना आसान नहीं है, इस चक्कर में कई फिल्मों की भद पिटी है। बलात्कारी को हीरो पुल से लटका देता है, कहीं कोर्ट में भाषण देता है, तो कहीं पीड़िता के साथ दुर्व्यवहार होता है – ऐसे दृश्य हमने कई बार देखे हैं। हाँ, फिल्म का हर दृश्य कुछ न कुछ कहता है, इसीलिए आप अगर कुछ भी स्किप करते हैं तो आगे कहानी समझने में दिक्कत आ सकती है। फिल्म में कुछ कमियाँ हो सकती हैं, लेकिन फिर भी 2 घंटे 20 मिनट आपको भारी नहीं लगेंगे।

न तो बलात्कार की समस्या को पहली बार उठाया गया है, न पिता-पुत्री के रिश्ते को पहली बार उकेरा गया है, न ही पुलिस के कामकाज के तरीके पर ये पहला कटाक्ष है, न ही नायक और खलनायक की लड़ाई नई बात है, न ही किसी गुंडे का पीछा कर के हीरो द्वारा उसे पीटने का दृश्य नया है और न ही भूत और वर्तमान को मिक्स कर के दिखाना नया है। फिर भी ‘महाराजा’ एक नया कॉन्सेप्ट है। फिर भी ‘महाराजा’ कमाल करती है, खासकर अंतिम एक घंटे में जो खुलासे होते हैं और ट्विस्ट्स आते हैं, ये देखने लायक है।

समस्या ये है कि भारत में ऐसी फ़िल्में क्यों नहीं बनतीं ज़्यादा? एक तो यहाँ के निर्माता-निर्देशक विदेशी फिल्मों की नक़ल में लग कर सेक्स परोसने लग जाते हैं, गालियाँ ठूँस देते हैं और डार्क जॉनर के नाम पर खून-खराबा दिखाते हैं। ये थ्रिलर नहीं होता। थ्रिलर में कहानी को अभिनय और क्लाइमैक्स का साथ मिलना चाहिए। ये एक ऐसा जॉनर है जो कम बजट में भी फिल्म बनवा सकता है, बशर्ते कहानी मजबूत हो, अभिनेता-अभिनेत्रियों का उसे अच्छा साथ मिले और क्लाइमैक्स को निर्देशक सही तरीके से हैंडल कर ले।

और हाँ, ‘महाराजा’ में कचरे का डब्बा भी एक किरदार है। क्षमा कीजिए, कचरे का डब्बा नहीं, ‘लक्ष्मी’। फिल्म में जब सजीव वस्तुओं के अलावा निर्जीव भी किरदार हो जाते हैं, तो उसमें जान आ जाती है। आजकल लोकप्रिय हो रही ‘गुल्लक’ वेब सीरीज को ही देख लीजिए। ‘महाराजा’ के निर्देशक को पता है कि किस दृश्य में क्या छिपाना है और कब क्या खुलासा करते हुए दिखाना है। यही फिल्म की खूबसूरती है जो साधारण कहानी को भी असाधारण बना देती है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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