भारत में पूरी नौवीं शताब्दी अगर किसी के नाम रही तो वो थे सम्राट मिहिर भोज। उन्होंने न सिर्फ अरब के मुस्लिम आक्रांताओं को रोका, बल्कि भारत को फिर से एक करने में बड़ी भूमिका निभाई। उनकी जयंती के अवसर पर 22 सितंबर, 2021 को दादरी में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनकी प्रतिमा का अनावरण किया। इसके बाद से ही ये बहस चालू हो गई है कि मिहिर भोज गुर्जर सम्राट थे या राजपूत सम्राट?
इस मामले में राजपूत संगठन खासे सक्रिय हैं और उन्होंने सीधा आरोप लगाया है कि उनकी विरासत से छेड़छाड़ की जा रही है। भाजपा के प्रति उनमें से कई आक्रोशित भी हैं। मिहिर भोज के प्रतिमा के अनावरण से पहले पोस्टरों पर उन्हें ‘गुर्जर सम्राट’ बताए जाने पर ये आक्रोश सड़कों पर खुल कर सामने आया। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, ऐसे में ये मुद्दा और भी संवेदनशील हो गया है।
इस लेख में हम बात करेंगे कि ‘आदिवराह’ के नाम से सिंहासन को सुशोभित करने वाले मिहिर भोज को राजपूत बताए जाने के पीछे ऐतिहासिक तथ्य क्या कहते हैं। समकालीन इतिहास में इसके बारे में कुछ है या नहीं। शिवभक्त मिहिर भोज, जिन्हें अरब के यात्री ‘भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन’ बताते थे, उनके क्षत्रिय होने के कौन से प्रमाण मौजूद हैं और किन आधार पर राजपूत संगठन आक्रोश जता रहे हैं, हम इस पर बात करेंगे।
क्षत्रिय इतिहास गौरव से भरा रहा है और राजस्थान की तरफ से भारत में दाखिल होने की कोशिश करने वाले इस्लामी आक्रांताओं को उन्होंने बार-बार धूल चटाई है। दिल्ली से कुछ ही दूरी पर स्थित मेवाड़ साम्राज्य ने मुगलों की नाक में जितना दम किया, वो कबीले तारीफ़ है। चित्तौड़ में हुए कई जौहर क्षत्रिय समाज के देश के लिए दिए गए असंख्य बलिदानों में से एक हैं। महाराणा प्रताप पूरे हिन्दू समाज के लिए पूज्य हैं। हल्दीघाटी की मिट्टी हमारे लिए पवित्र है।
‘गुर्जर’ और ‘गुज्जर’ के बीच का अंतर: क्षेत्र या जाति?
अब आते हैं सम्राट मिहिर भोज और ‘राजपूत इतिहास’ पर। मिहिर भोज को ‘गुर्जर सम्राट’ बताए जाने के विरोध में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि ‘गुर्जर’ शब्द की व्याख्या करने पर हमें पता चलता है कि ये शब्द एक खास क्षेत्र के लिए प्रयोग में लाया जाता था और उस क्षेत्र के निवासियों के लिए, तभी सुथार, जैन और ब्राह्मण जैसे समुदायों में भी लोगों को गुर्जर कहा गया। बड़ौदा के जो गायकवाड़ थे, उन्हें मराठा होने के बावजूद ‘गुर्जर नरेश’ कहा गया।
TOI के एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार संजीव सिंह ने ‘गुर्जर’ और ‘गुज्जर’ के बीच का अंतर भी समझाया है। उनके अनुसार, ‘गुर्जर’ शब्द का पहले पहले ‘हर्षचरित्र’ में वर्णन मिलता है, जिसे सम्राट हर्षवर्धन के राजकवि बाण ने रचा था। ये 640 ईश्वी के करीब की बात है। इसमें राजा प्रभाकरवर्धन का सिंधु, मालवा, गांधार और गुर्जर प्रदेशों में विजय अभियान का जिक्र है। कर्नाटक के ऐहोले में पुलकेशी II के समय का एक शिलालेख भी मिलता है।
634 ईश्वी के इस शिलालेख में लिखा है कि गुर्जर प्रदेश में राजा ने विजय अभियान चलाया था। ह्वेन सांग नाम का यात्री जब भारत आया था, तो उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि छठी-सातवीं शताब्दी में गुर्जर नाम के एक इलाके में चावड़ा वंश के राजपूतों का राज है। बड़ौदा के मराठा शासकों को ‘गुर्जर नरेश’ इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि पहले उनकी भूमि वही हुआ करती थी। जैन मुनि उद्योतना सूरी ने भी ‘गुर्जर’ शब्द का जिक्र किया है।
उन्होंने ‘कुवलयमाला’ में उन्होंने गुर्जर, सिंध और मालवा के रहने वाले लोगों के लिए उनके क्षेत्र के नाम से ही विशेषण का प्रयोग किया है। साथ ही समुदायों में उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय व भील इत्यादि के साथ-साथ ‘गुज्जर’ शब्द का प्रयोग किया है। 1172 ईश्वी के एक शिलालेख में ‘गुर्जर ब्राह्मण’ सतानंद का जिक्र है, जो कृष्णात्रेय गोत्र के थे। ये शिलालेख यादव राजा कृष्णा के समय का है। संजीव कुमार इन आधार पर बताते हैं कि ‘गुर्जर’ एक क्षेत्र था, जाति नहीं।
12वीं शताब्दी में चालुक्य राजा कुमारपाल सोलंकी के समय की पुस्तक ‘कुमारपालप्रबंध’ में क्षत्रिय समाज के के 36 समूहों का जिक्र किया है, जिसमें ‘गुज्जर’ नहीं हैं। गुजरात में ‘गुर्जरधरित्री’ और ‘गुर्जरत्रिकदेशे’ नाम के जगहों का जिक्र जरूर मिलता है। कश्मीर के इतिहास की सबसे बड़ी पुस्तक राजतरंगिणी में भी ‘गुर्जर’ का जिक्र नहीं है, जबकि वहाँ अभी इनकी जनसंख्या 10 लाख है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों व जैनों में भी गुर्जरों का जिक्र है, लेकिन कहीं भी वो गुर्जर समुदाय के नहीं थे और न ही गोजीरी भाषा बोलते थे।
इसी तरह ये तर्क भी दिया जा सकता है कि 20वीं शताब्दी के कई बड़ी हस्तियाँ ‘गुर्जर सभा’ का हिस्सा थीं। केएम मुंशी एक गुर्जर ब्राह्मण थे, जिन्होंने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। ‘गुर्जर सभा’ का गठन गुजराती भाषा और गुर्जर क्षेत्र की पहचान को आगे बढ़ाने के लिए बनी थी, जिसका हिस्सा महात्मा गाँधी और मोहम्मद अली जिन्ना तक थे। जिन्ना ने कहा भी था कि धरती पर हर एक गुर्जर गाँधी पर गर्व करता है।
प्रतिहार राजपूत: आज भी मौजूद हैं इनके वंशज
आज भी ‘प्रतिहार’ वंश का क्षत्रिय समाज मौजूद है। भीनमाल, उज्जैन और कन्नौज पर इन्हीं के पूर्वजों ने शासन किया था – ऐसा माना जाता है। ये भी कहा जा रहा है कि राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों को ही ‘गुर्जरदेश’ कहा जाता था, पूरे भारत को नहीं। ‘गुर्जर’ का अर्थ ‘गुजराती’ या ‘गुर्जरदेश में निवास करने वाले’ के रूप में भी किया जाता रहा है। गल्लका के शिलालेख में लिखा है कि नागभट्ट ने गुर्जरों को हराया था, जो अब तक अजेय थे।
इन तर्कों के आधार पर सवाल पूछा जा सकता है कि जब बागभट्ट ‘गुर्जर’ थे तो उन्होंने ‘गुर्जरों’ को कैसे हरा दिया? नागभट्ट के वंश में ही मिहिर भोज का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि ‘गुर्जरदेश’ पर विजय पाने के पश्चात ही नागभट्ट को ‘गुर्जरेश्वर’ कहा गया। मिहिर भोज के सेनापति कनलपल के बारे में भी तथ्य दिया जा सकता है कि वो ‘गुर्जर’ नहीं थे, क्योंकि आज भी गढ़वाल में परमार राजपूत रहते हैं, जो इसी समाज के हैं।
हालाँकि, ‘गुर्जर बनाम राजपूत’ की लड़ाई नहीं होनी चाहिए और इसका कोई तुक नहीं है, लेकिन अगर किसी समुदाय से उसकी पहचान या उसके पूर्वजों की पहचान छीनी जाती है तो उनका आक्रोशित होना स्वाभाविक है। यही राजपूत संगठनों का कहना है। उनका कहना है कि ‘गुर्जर सम्राट’ की जगह मिहिर भोज को ‘हिन्दू सम्राट’ भी कहा जाता तो कोई दिक्कत नहीं थी। अब देखना है कि ये विवाद कहाँ जाता है।
कौन थे सम्राट मिहिर भोज?
836 ईस्वी से 885 ईस्वी तक शासन करने वाले मिहिर भोज का शासनकाल 49 वर्षों का था। इन 5 दशकों में भारतीय उप-महाद्वीप का एक बड़ा हिस्सा उनके मार्गदर्शन में काफी फला-फूला। उनका साम्राज्य मुल्तान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक और कश्मीर से कर्नाटक तक फैला हुआ था। ये वो समय था, जब अरब के इस्लामी कट्टरपंथियों ने साम्राज्य विस्तार शुरू कर दिया था और उनकी नजर सिंधु के पार भारतवर्ष पर थी।
कन्नौज को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया था और वहीं से शासन चलाया करते थे। कृषि और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियाँ लाने वाले मिहिर भोज के राज में प्रजा खुशहाल थी। कन्नौज तो इतना समृद्ध शहर था कि वहाँ 7 किलों के अलावा 10 हजार की संख्या में मंदिर थे। धन-वैभव से सम्पन्न उनके राज्य में सोने-चाँदी के सिक्कों से व्यापार होता था। अपराधियों को उचित दंड दिया जाता था।
यहाँ तक कि उस दौर के अरब यात्री सुलेमान ने भी अपनी पुस्तक में उनका जिक्र किया है और तारीफ की है। सुलेमान ने लिखा है कि किस तरह सम्राट मिहिर भोज की सेना में बड़ी संख्या में ऊँट, हाथी और घोड़े शामिल थे। उसने ‘सिलसिला-उत-तारिका’ में लिखा है कि मिहिर भोज के राज में चोर-डाकुओं का भी नहीं रहता था। उनकी सीमाएँ दक्षिण में राष्ट्रकूट और बंगाल में पालवंश के अलावा मुल्तान में इस्लामी शासकों से सटी हुई थीं।
915 ईस्वी में भारत भ्रमण पर आये बगदाद के इतिहासकार अल मसूदी ने भी ‘मिराजुल-जहाब’ नामक पुस्तक में लिखा है कि मिहिर भोज की सेनाएँ काफी शक्तिशाली व पराक्रमी है। उसने लिखा है कि लाखों की संख्या में ये सेना चारों दिशाओं में फैली हुई है। 873 ईस्वी में जन्मे मिहिर भोज की गाथा स्कंद पुराण के ‘प्रभास खंड’ में भी वर्णित है। कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने भी अपनी पुस्तक ‘राज तरंगिणी’ में उनकी वीरता का जिक्र किया है।