Monday, November 18, 2024
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वो जाट राजा जिन्होंने अफगानिस्तान में बनाई भारत की पहली सरकार: नेहरू ने दी उपेक्षा, मोदी सरकार में सम्मान

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली प्रथम भारतीय सरकार ने उनके अनुभव व योग्यता का फायदा नहीं उठाया और उन्हें कोई पद भी नहीं दिया। जर्मनी और जापान के करीबी रहे महेंद्र प्रताप जानते थे कि नेहरू की विदेश नीति में ये दोनों देश भारत के मित्र नहीं हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में मंगलवार (14 सितंबर, 2021) को राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर विश्वविद्यालय का शिलान्यास की तारीख़ चुनी। एक जाट राजा और स्वतंत्रता सेनानी को सही सम्मान देने का कार्य मोदी सरकार ने किया है। कोल तहसील में 92.27 एकड़ की भूमि में इस विश्वविद्यालय का निर्माण होगा। अब तक अलीगढ़ सिर्फ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के लिए ही जाना जाता था।

राजा महेंद्र प्रताप सिंह का पहले संक्षिप्त परिचय दे देते हैं। उनका जन्म 1 दिसंबर, 1886 में हाथरस के एक जाट राजपरिवार में हुआ था। वो एक समाज सुधारक रहे, स्वतंत्रता सेनानी थे और साथ में क्रांतिकारी भी। उन्होंने पहले मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेजिएट स्कूल और फिर AMU से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की। युवावस्था में ही वो राजनीति में सक्रिय हो गए थे। हालाँकि, उन्होंने AMU से अपना स्नातक पूरा नहीं किया था।

लेकिन, 1997 में जब AMU अपना शताब्दी समारोह मना रहा था, तब उन्हें मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपने कॉलेज के साथियों के साथ 1911 के बाल्कन युद्ध में भी हिस्सा लिया था। मुरसान रियासत के राजपरिवार से ताल्लुक रखने वाले राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने दिसंबर 1914 में भारत छोड़ दिया और जर्मनी में शरणार्थी के रूप में रहने लगे। ऐसा इसीलिए, क्योंकि वो अंग्रेजों की वॉन्टेड सूची में थे।

1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब वो यहाँ लौटे। 1957 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने मथुरा से चुनाव लड़ा और वो सांसद चुने गए। इसी चुनाव में भारतीय जनसंघ (BJS) से अटल बिहारी वाजपेयी भी हिस्सा ले रहे थे, लेकिन वो चौथे स्थान पर रहे थे। लेकिन, वो बलरामपुर से भी चुनाव लड़ रहे थे और वहाँ से जीत कर लोकसभा पहुँचे। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने निर्दलीय लड़ते हुए कॉन्ग्रेस के चौधरी दिगंबर सिंह को मात दी थी। उन्हें 95,202 वोट प्राप्त हुए थे। दादाभाई नैरोजी और बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित महेंद्र ‘स्वदेशी आंदोलन’ का भी हिस्सा थे।

उन्होंने 1915 में अफगानिस्तान में भारत की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, जिसके वो राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ ‘जिहाद’ की भी घोषणा की थी, जिसके बाद ब्रिटिश ने उनके सिर पर इनाम भी रखा था। बाद में वो जापान चले गए। वहाँ 1940 में उन्होंने ‘एग्जीक्यूटिव बोर्ड ऑफ इंडिया’ का गठन किया। महात्मा गाँधी की अहिंसा में विश्वास रखने वाले महेंद्र प्रताप ने वृन्दावन में अपने महल को ‘प्रेम महाविद्यालय’ नामक पॉलिटेक्निक कॉलेज में तब्दील कर दिया।

वो ‘पंचायती राज’ में विश्वास रखते थे क्योंकि उनका मानना था कि इससे न सिर्फ भ्रष्टाचार घटेगा, बल्कि आम आदमी के हाथों में ज़्यादा से ज़्यादा शक्तियाँ व अधिकार आएँगे। वो खुद को हमेशा ‘कमजोर व दुर्बलों का सेवक’ कहते थे। उन्हें 1932 में नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। 29 अप्रैल, 1979 को 92 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया था। उन्होंने 1929 में AMU को एक प्लॉट भी लीज पर दिया था।

भाजपा व RSS नेता कई वर्षों से माँग कर रहे थे कि अलीगढ़ में उनके नाम पर युनिवर्सिटी की स्थापना की जाए। 2019 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनके नाम पर अलीगढ़ में राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा की थी। 1 दिसंबर, 1915 को काबुल में भारत की पहली निर्वासित सरकार के वो राष्ट्रपति थे। ये भी जानकारी दे दें कि 1977 में एएमयू के कुलपति प्रोफेसर एएम ख़ुसरो ने यूनिवर्सिटी के शताब्दी समारोह में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को मुख्य अतिथि बनाया था।

इस तरह मोदी सरकार उन लोगों को सम्मान देने का कार्य कर रही है, जिन्हें पिछली सरकारों द्वारा अब तक भुलाया जाता रहा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाना-पहचाना नाम रहे राजा महेंद्र प्रताप सिंह एक लेखक व पत्रकार भी थे। जब उन्होंने भारत की निर्वासित सरकार का गठन किया था, तब दुनिया प्रथम विश्व युद्ध से जूझ रही थी। बाद में सुभाष चंद्र बोस ने भी यही कार्य किया था। महात्मा गाँधी से उनके संपर्क ज़रूर थे, लेकिन वो कॉन्ग्रेस के नेता नहीं थे।

महात्मा गाँधी खुद कहते थे कि वो 1915 से ही राजा महेंद्र प्रताप सिंह के प्रशंसक हो गए थे। बकौल मोहनदास करमचंद गाँधी, जब वो दक्षिण अफ्रीका में थे तभी राजा की ख्याति उनके पास पहुँच गई थी। उन्होंने राजा के त्याग व बलिदान की प्रशंसा करते हुए बताया था कि उनके साथ उनका पत्र-व्यवहार होता रहा है, जिससे उन्हें महेंद्र प्रताप को अच्छे से जानने का मौका मिला। 1946 में भारत लौटे महेंद्र प्रताप वर्धा में गाँधी से मिलने भी गए थे।

हालाँकि, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली प्रथम भारतीय सरकार ने उनके अनुभव व योग्यता का फायदा नहीं उठाया और उन्हें कोई पद भी नहीं दिया। जर्मनी और जापान के करीबी रहे महेंद्र प्रताप जानते थे कि नेहरू की विदेश नीति में ये दोनों देश भारत के मित्र नहीं हैं। जिन चौधरी दिगंबर सिंह को 1957 में राजा साहब ने हराया था, उन्होंने उन्हें 1962 में मात से बदला भी ले लिया। दिगंबर भी उस जमाने के बड़े जाट नेता थे।

लेकिन, दोनों के सम्बन्ध काफी मधुर थे और राजा महेंद्र प्रताप सिंह पर ‘अभिनंदन ग्रन्थ’ का प्रकाशन कार्य चौधरी दिगंबर सिंह ने अपने हाथों में ले रखा था। वो चुनाव प्रचार के दौरान एक बार दिगंबर सिंह की जीप भी ले गए थे। शैक्षिक संस्थानों के लिए उन्होंने अपनी संपत्ति में से खूब दान दिया। उनके पिता की सर सैयद अहमद खान से दोस्ती थी, तभी उन्होंने AMU को अपनी 3.8 एकड़ जमीन लीज पर दी थी।

आज भी AMU की सेंट्रल लाइब्रेरी, मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में राजा महेंद्र प्रताप सिंह की एक बड़ी तस्वीर लगी हुई है। उनकी कई पुस्तकें वहाँ सँजो कर रखी गई है और उन पर सेमिनार व गोष्ठियों का आयोजन होता रहता है। रूसी क्रांति से प्रभावित रहे महेंद्र प्रताप ने अपनी सरकार में मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली को प्रधानमंत्री बनाया था। 1925 में उन्होंने तिब्बत जाकर दलाई लामा से भी मुलाकात की थी।

हालाँकि, 1962 की हार के बाद राजा महेंद्र प्रताप सिंह राजनीतिक व सार्वजनिक जीवन में कम ही सक्रिय रहे। नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित करते समय उन्हें दुनिया में अफगानिस्तान का अघोषित राजदूत बताया गया था। उन्होंने जर्मन विमान से रूस जाकर लेनिन से भी मुलाकात की थी। उन्होंने कई देशों का दौरा कर के अफगानिस्तान के लिए वित्त जुटाया था और भारत में अंग्रेजों की क्रूरता व अत्याचार से दुनिया को वाकिफ कराया।

याद हो कि पिछले साल लीज समाप्त होने के बाद जाट राजा के वंशजों ने माँग की थी कि AMU विश्वविद्यालय के आगरा स्थित स्कूल का नाम बदल कर उनके नाम पर रखा जाए और साथ ही महेंद्र प्रताप सिंह द्वारा एएमयू को दी गई बाकी जमीन उन्हें वापस कर दी जाए। लीज 90 वर्षों के लिए था। सिंह के प्रपौत्र चरत प्रताप सिंह के अनुसार, उन्होंने 2018 में लीज की समाप्ति के बारे में विश्वविद्यालय को कानूनी नोटिस दिया था।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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