Sunday, December 22, 2024
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5 सुल्तानों को परास्त किया, नदी में कूद भागी थी इस्लामी फ़ौज: सुबह घंटों व्यायाम करते थे सम्राट कृष्णदेवराय, बनवाए एक से बढ़ कर एक मंदिर

रुक्मिणी और पांडुरंगा की जहाँ पूजा होती है, उस विट्ठल मंदिर को हिन्दू धर्म और कला के क्षेत्र में सम्राट कृष्णदेवराय का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है। संत व्यासराज की प्रेरणा से उन्होंने इसका निर्माण करवाया

बात उस समय की है, जब जहाँ दिल्ली पर मुगलिया सल्तनत की नींव रखी जा रही थी और दक्षिण में भी कई इस्लामी साम्राज्य मजबूत हो रहे थे। इसी दौरान विजयनगर के रूप में एक ऐसा साम्राज्य फल-फूल रहा था, जिसने दक्षिण भारत में इस्लामी आक्रांताओं को धूल चटाते हुए उनके प्रसार को रोक दिया। विजयनगर साम्राज्य के सबसे बड़े नायक हुए कृष्णदेवराय, जो एक विद्वान कवि होने के साथ-साथ एक कुशल सैन्य रणनीतिकार भी थे।

उन्होंने खुद कई युद्धों में अपनी सेना का नेतृत्व किया और उन्हें जीत दिलाई। आगे बढ़ने से पहले आपको विजयनगर साम्राज्य और कृष्णदेवराय का परिचय दे देते हैं। वीर नरसिंह ने सन् 1505 में तुलुव वंश की स्थापना की थी। उन्होंने सालुव वंश की समाप्ति कर के सत्ता प्राप्त की थी। ये ऐसा काल था जब बहमनी वंश अपना प्रभाव बढ़ाता ही चला जा रहा था। बहमनी, गोलकुंडा और बीजापुर – ये तीन बड़े मुस्लिम राज्य विजयनगर को देखना भी नहीं चाहते थे। इनके अलावा अहमदनगर और बीदर के मुस्लिम सुल्तानों को भी उन्होंने हराया।

सम्राट कृष्णदेव राय उनके छोटे भाई थे। बड़े भाई की मृत्यु के बाद उन्होंने शासन सँभाला और विजयनगर का स्वर्ण युग भी यही रहा। उस समय विजयनगर में सामंतों ने विद्रोह कर रखा था और वो स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार कर रहे थे। ओडिशा में गजपति का शासन था। पुर्तगालियों ने समुद्री व्यापार पर कब्ज़ा जमा रखा था। कृष्णदेवराय ने राजनीति, कूटनीति और युद्धनीति – तीनों का प्रयोग करते हुए उन्होंने सारी समस्याओं का समाधान किया।

जिस साल उन्होंने सत्ता सँभाली, उसी साल बहमनी के सुल्तान महमूदशाह ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। डोनी नामक स्थान पर हुए इस युद्ध में उसे बुरी हार मिली। कोविलकोण्डा तक भागती हुई बहमनी सेना का पीछा किया गया। खुद घायल सुल्तान युद्ध से भाग खड़ा हुआ। इसके बाद हुए युद्ध में बीजापुर का सुल्तान युसूफ आदिल शाह मारा गया। उस समय विजयनगर के आसपास के इस्लामी साम्राज्यों में एकता नहीं थी और अधिकतर आपस में लड़ते रहते थे।

बीजापुर साम्राज्य की स्थापना भी बहमनी से स्वतंत्र होकर की गई थी। ग़ुरबर्गा क्षेत्र पर युसूफ आदिल शाह का शासन था, जिसने बहमनी के सुल्तान महमूद शाह को बंदी बना कर रखा हुआ था। कृष्णदेवराय ने बीजापुर पर आक्रमण कर के बहमनी के सुल्तान को मुक्त कर के उसे फिर से गद्दी पर बिठाया, जिस कारण उन्हें ‘यवन राज्य प्रतिष्ठापनाचार्य’ भी कहा गया। उम्मतूर के विद्रोही सामंत गंगराजा को भी उन्होंने सबक सिखाया। वो भागते हुए मारा गया।

तत्पश्चात उन्होंने ओडिशा का रुख किया। वहाँ 5 वर्षों (1513-18) तक युद्ध चला, जो ओडिशा नरेश की क्षमा -याचना के साथ खत्म हुआ। उन्होंने अपनी बेटी की शादी सम्राट कृष्णदेवराय से कर दी। ओडिशा के युद्ध के बीच ही गोलकुंडा के सुल्तान ने सम्राट को व्यस्त जान कर आक्रमण कर डाला। हालाँकि, सम्राट कृष्णदेवराय ने अपनी सेना भेज कर उसे पराजित किया और उसके द्वारा जीते हुए क्षेत्रों को पुनः जीता। ऐसा ही दुस्साहस बीजापुर के सुल्तान ने किया।

इसके बाद कृष्णदेवराय ने बीजापुर को सबक सिखाने की ठानी। जब युद्ध हुआ तो राजधानी तक तक सम्राट कृष्णदेवराय का कब्ज़ा हो गया। उन्होंने वहाँ बंदी शहजादों को मुक्त कराया। इस तरह तीनों मुस्लिम राज्यों को जीत कर उन्होंने विजयनगर की प्रभुता को स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने गुलबर्गा के किले को भी ध्वस्त कर दिया। कृष्णदेवराय एक महान कवि भी थे, जिन्होंने तेलुगु में ‘आमुक्त माल्यद’ नामक पुस्तक की रचना की।

हालाँकि, उन्होंने पुतर्गालियों के साथ कूटनीति से काम लिया और उनसे युद्ध करने से वो बचते रहे। इसका कारण ये था कि पुर्तगाली, अरबों के दुश्मन थे। पुर्तगालियों ने उन्नत नस्ल के घोड़े विजयनगर को दिए थे, जिनसे युद्ध में उनका पलड़ा इस्लामी साम्राज्यों के ऊपर भारी हो जाता था। सम्राट कृष्णदेवराय ने कई बड़े मंदिरों का निर्माण कराया। उनके दरबार में कई कवि और विद्वान थे। उन्होंने कला को संरक्षण दिया। देश-विदेश से नाटककार वहाँ आते थे।

सम्राट कृष्णदेवराय ने मदुरै में स्थित सुन्दरेश्वरी और मीनाक्षी मंदिर को बड़ा दान दिया। उन्होंने ‘जाम्बवती कल्याणम’ नामक पुस्तक भी लिखी है। उन्होंने दो दशक तक विजयनगर पर शासन किया। उस दौरान पुर्तगाली घोड़ा व्यापारी डोमिंगो पीज उन्हीं के राज्य में रहता था। उसने उनके बारे में कई बातें लिखी हैं, जिससे सम्राट कृष्णदेवराय के मजबूत व्यक्तित्व और प्रभाव का पता चलता है। उनके बारे में पुर्तगाली व्यापारी ने लिखा है कि वो शारीरिक रूप से एकदम फिट थे।

वो तड़के सुबह उठ जाते थे और कई घंटों तक व्यायाम करते थे। घुड़सवारी करते थे और तलवारबाजी का भी कड़ा अभ्यास करते थे। उनके व्यवहार ऐसा होता था कि जो उनसे मिलने आता, वो उनसे प्रेरणा पाता था और प्रभावित हो जाता था। उन्होंने हम्पी में विरुपाक्ष मंदिर बनवाया। उन्होंने पूर्व में अपने अभियान की सफलता के बाद कृष्णास्वामी मंदिर का निर्माण करवाया। हज़ारा रामास्वामी मंदिर के निर्माण का श्रेय भी उन्हें ही जाता है।

रुक्मिणी और पांडुरंगा की जहाँ पूजा होती है, उस विट्ठल मंदिर को हिन्दू धर्म और कला के क्षेत्र में सम्राट कृष्णदेवराय का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है। संत व्यासराज की प्रेरणा से उन्होंने इसका निर्माण करवाया। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में उन्होंने गोपुरम का निर्माण करवाया। आज भले ही हम्पी वीरान पड़ा हो और इस्लामी अत्याचार का सबूत देता हो, लेकिन ये स्थल सम्राट कृष्णदेवराय के समय इतना विकसित हो गया था कि विदेशी यात्रियों ने इसकी तुलना रोम से की।

उन्होंने ग्रेनाइट से भगवान नरसिंह की एक विशाल मूर्ति का निर्माण भी करवाया। कृष्णभट्ट द्वारा बनवाई गई ये मूर्ति 6.7 मीटर की है। हालाँकि, सन्न 1565 के तालकोटा युद्ध में इस मूर्ति को बड़ा नुकसान पहुँचाया गया था। तिरुपति मंदिर में राजा कृष्णदेवराय की गहरी आस्था थी। उन्होंने वहाँ के मंदिरों को बड़ा दान भी दिया। उन्होंने न सिर्फ मंदिर, बल्कि कई उद्यान, तालाब और बाँध भी बनवाए। किसानों की सहायता के लिए कई विकास कार्य किए।

सम्राट कृष्णदेवराय बड़े दयालु भी थे और अपने घायल सैनिकों की देखभाल की व्यवस्था भी करते थे। साहसी इतने कि उदयगिरि किले के युद्ध में जब पहली पंक्ति टूट गई तो दूसरी पंक्ति का नेतृत्व कर रहे राय ने सैनिकों का मनोभल ऐसा बढ़ाया कि वो दुश्मन पर टूट पड़े और युद्ध में विजय मिली। रायचूर नामक समृद्ध स्थान को लेकर बीजापुर से हुए युद्ध में उनकी रणनीतियाँ तारीफ़ का काबिल रही हैं। रायचूर के युद्ध में उन्होंने लड़ाई के समय ऐसा बाजा बजवाया था कि पुर्तगालियों ने लिखा है कि आसमान जमीन पर गिर पड़े।

रायचूर के किले पर कब्ज़ा करने आई बीजापुर की फ़ौज को उन्होंने ऐसा खदेड़ा कि इस्लामी फौजियों को कृष्णा नदी में कूदना पड़ा। विजयनगर की सेना ने उनका पीछा किया और उनके बीच अपने प्रति भयंकर डर बिठा दिया। पुर्तगालियों ने लिखा है कि वो युद्ध में जीत के बाद तबाही मचाने में विश्वास नहीं रखते थे, इसीलिए भाग रहे सैनिकों की हत्या करने से उन्होंने अपनी सेना को रोक दिया था। कवियों को भी वो काफी दान दिया करते थे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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