Sunday, November 17, 2024
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मेवाड़ का मैराथन: स्पार्टा के योद्धाओं वाली वीरता, महाराणा का शौर्य और युद्ध कुशलता… 36000 मुगल सैनिकों का आत्मसमर्पण, वो इतिहास जो छिपा लिया गया

महाराणा प्रताप सिंह के पूर्वज बप्पा रावल ने मोहम्मद बिन क़ासिम को ईरान तक दौड़ा-दौड़ा कर मारा था। महाराणा हमीर सिंह ने मोहम्मद बिन तुगलक को 6 महीने कैद में रखा था, महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को महीनों बंदी बनाकर रखा। महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को खटोली के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया था।

यह नीति वाक्य वीरत्व के गुण को उजागर करते हुऐ भारत के गौरवशाली इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित उन अनगिनत शूरवीरों की याद दिलाता है, जिन्होंने जीवनपर्यंत इस वाक्य में वर्णित श्रेष्ठ गुणों को धारण किया। वास्तव में शौर्य क्या है? अपने लिए लड़ना? अपने अधिकारों के लिए लड़ना? नहीं। अपने लिए तो हर कोई लड़ सकता है परन्तु अपनी मातृभूमि के लिए लड़ना ही शौर्य है। जब व्यक्ति स्व से ऊपर उठकर अपनी मिट्टी के लिए मर-मिटे, उसे ही वीरता कहते हैं। भारतवर्ष का इतिहास ऐसे असंख्य वीर-वीरांगनाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने आजीवन कष्ट झेले, मृत्यु का आलिंगन कर लिया परन्तु आक्रांताओं के समक्ष कभी घुटने नहीं टेके। इस राष्ट्र के इतिहास में राजस्थान का इतिहास अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। उसमें भी मेवाड़ का इतिहास सबसे भारी है।

महाराणा उदय सिंह और महारानी जयवंता बाई के ज्येष्ठ पुत्र वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप सिंह का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। हिन्दू पञ्चांग के अनुसार, प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को प्रताप जयंती मनाई जाती है। वे सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे और उनके कुल को मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के वंशज कहलाने का गौरव प्राप्त है। महाराणा प्रताप सिंह का नाम सुनते ही धमनियों में शौर्य और पराक्रम का रक्त प्रवाहित होने लगता है, मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता है। यह बात उस कालखण्ड की है, जब भारतवर्ष पर मलेच्छ वंशियों का निरंतर आक्रमण हो रहा था और वे अपना राज्य विस्तार करने में सफल भी हो रहे थे। आबू, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, मालवा आदि शक्तिशाली राजे-रजवाड़े अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर चुके थे। ऐसे में, एकमात्र महाराणा प्रताप सिंह ही थे, जो अपने शौर्य पर अटल थे। उनके नाम मात्र से ही विधर्मी अकबर और उसकी सेना थर्रा उठती थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ तथाकथित दरबारी इतिहासकारों ने बड़े ही प्रायोजित ढंग से हमारे भीतर हीन भावना पैदा करने की घृणित चेष्टा की। हमारे मन-मस्तिष्क में यह भर दिया गया कि भारत का इतिहास तो पराजय का इतिहास है। हद तो तब गई जब मलेच्छों के सिरमौर अकबर को इन तथाकथित इतिहासकारों ने ‘द ग्रेट’ का स्थायी विशेषण जोड़कर माँ भारती के अमर सपूत महाराणा प्रताप सहित समूचे भारतवर्ष को भी अपमानित कर दिया। उनके विराट व्यक्तित्व को संकुचित और धूमिल करने हेतु हल्दीघाटी युद्ध में उनको पराजित घोषित कर अध्याय ही समाप्त कर दिया। सत्य तो यह है कि मुगल न तो महाराणा प्रताप को कभी पकड़कर बंदी ही बना सके और न ही मेवाड़ पर पूर्ण आधिपत्य जमा सके। हल्दीघाटी का भयावह युद्ध अकबर के गुरूर और प्रताप सिंह के स्वाभिमान की पहली लड़ाई मात्र थी। तत्पश्चात् अगले 10 वर्षों में मेवाड़ में महाराणा ने कैसे स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी, इसकी जानकारी इतिहास के पुस्तकों से नदारद ही रही। यदि अकबर वास्तव में विजयी हो गया था तब कालांतर में भी युद्ध क्यों हुए?

कुछ तथाकथित विद्वान महाराणा प्रताप और अकबर को एक ही तराजू में तौलते हुए यह घोषणा करते हैं कि दोनों ही समान रूप से वीर थे, परन्तु मैं ऐसा कदापि नहीं मानती। दूसरे के घर पर अकारण आक्रमण करने वाला, लूटपाट मचाने वाला भला वीर कैसे हो सकता है? स्वयं योद्धा की तरह सामने से कभी कोई युद्ध ना लड़कर, राजपूताने (वर्तमान में राजस्थान) की मुठ्ठी भर क्षत्रिय सेना से अपने लाखों सैनिकों को लड़वाने वाला वीर कत्तई नहीं हो सकता। वीर तो वो थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु राजपाट, सुख, वैभव का एक क्षण में त्याग कर दिया, जंगलों-बीहड़ों के खाक छाने। जिनके पूरे परिवार ने दर्दनाक कष्ट उठाए, परन्तु किसी भी मूल्य पर अपनी पगड़ी नहीं उतारी। भारत माँ के उस वीर सपूत का दृढ़ संकल्प था, “कटे शीश पड़े, पर ये पाग नहीं, पराधीन कदे ना होवण दूँ।” उनके इसी आत्मबल का परिणाम था कि विधर्मी अकबर समस्त भारतवर्ष का सम्राट बनने के केवल स्वप्न ही देखता रह गया।

तथाकथित महान अकबर लंबे समय तक मोइनुद्दीन चिश्ती का मुरीद रहा, जो हिन्दू धर्म-समाज पर इस्लामी हमले का बड़ा प्रतीक था। सन् 1568 में चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा जमाने के बाद अकबर ने चिश्ती अड्डे से ही ‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ जारी किया था, जिसके हर वाक्य से जिहादी जुनून टपकता है। उस युद्ध में 8 हजार वीरांगना क्षत्राणियों ने जौहर कर अपनी अस्मिता की रक्षा की थी। अकबर ने राजपूत सैनिकों के अलावा 30 हजार सामान्य नागरिकों का भी कत्ल किया था। मारे गए सभी पुरुषों के जनेऊ जमा कर तौला गया, जो साढ़े चौहत्तर मन था। यह केवल एक स्थान पर, एक बार में! इस भयावह नरसंहार के विवरण में अकबर लिखवाता है, “हम अपना क़ीमती वक्त, अपनी सलाहियत के मुताबिक़ जंग और जिहाद में गुजारते हैं। शैतान काफिरों के खिलाफ़ टोली बनाकर हमला हुआ और उस जगह कब्ज़ा हो गया, जहाँ क़िला खुलता है। हम अपनी ख़ून की प्यासी तलवारों से एक के बाद एक कत्ल करते गए और कत्ल हुए लोगों का अंबार हो गया। बाकी बचे हुए लोगों का पीछा हुआ, जैसे वो डरे हुए गधे हों, शेर से भागते हुए।”

समाज की स्त्रियों पर कुदृष्टि डालने वाला, अनगिनत निर्दोष, निहत्थे लोगों की हत्या करवाकर स्वयं को श्रेष्ठ समझने वाला वीर तो क्या साधारण मनुष्य कहलाने का भी अधिकारी हो सकता है भला?

इतिहास साक्षी है कि भारत के वीरों की तलवारें कभी म्यानों में सोई ही नहीं। इस पावन धरा पर निरंतर संघर्ष चलता रहा और हम सदा विजयश्री का वरण करते आए। अकबर तो क्या! किसी भी मुग़ल की हुक़ूमत कभी भी समूचे भारतवर्ष पर रही ही नहीं। वे अलग-अलग राजाओं के साथ मिलकर इस देश पर शासन करते रहे। इनके लिए साम्राज्य या सल्तनत शब्द प्रयुक्त करना किसी उपहास से कम नहीं। वास्तव में तो मगध, चोला, चेरा, पांड्यान आदि साम्राज्य हुआ करते थे। महरौली से यमुना तक शासन करने वाले चंद लुटेरों को हमने आवश्यकता से अधिक सम्मान दे दिया और अपने शूरवीर पूर्वजों को बिसराकर इन अपराधियों को नायक बना दिया। क्या यह सत्य नहीं कि जिन-जिन देशों पर विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं ने आक्रमण किया, वहाँ की संस्कृति समूल नष्ट हो गई? जैसे पर्शिया गुलाम हुआ तो ईरान हो गया, मेसोपोटामिया इराक़ हो गया, इजिप्ट की हालत तो हमारे सामने है ही। परन्तु भारत अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा है। अब इस तथ्य को कौन उजागर करेगा कि हमारा इतिहास पराजय का नहीं अपितु संघर्ष, साहस, शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान का इतिहास रहा है?

यह इस देश की विडंबना ही तो है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों पश्चात भी हमसे हमारे गौरवशाली इतिहास को छुपाया जाता है। वहीं दूसरी ओर, विदेशी आक्रांताओं की पीढ़ी को रटवाकर मस्तिष्क को कलुषित करने का प्रयास होता है। महाराणा प्रताप सिंह जिस महान कुल के उजियाले थे, उसमें अनेक वीर पैदा हुए, जिन्होंने अपने अदम्य साहस का न सिर्फ परिचय दिया अपितु विदेशी आक्रांताओं से सदैव इस पावन धरा की रक्षा भी की। हमारी पीढ़ियों को आखिर कब बतलाया जाएगा कि सातवीं सदी में बप्पा रावल ने मोहम्मद बिन क़ासिम को ईरान तक दौड़ा-दौड़ा कर मारा था। महाराणा हमीर सिंह ने मोहम्मद बिन तुगलक को 6 महीने कैद में रखा था, महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को महीनों बंदी बनाकर रखा। महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को खटोली के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया था, यह सब अध्याय इतिहास पुस्तकों में कब सम्मिलित होंगे? यह कब पढ़ाया जाएगा कि जब हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप ने मानसिंह के हाथी पर चढ़ाई कर दी, तब अकबर की शाही फ़ौज भयातुर हो 5-6 कोस दूर भाग गई थी और अकबर के रणभूमि में स्वयं आने की झूठी अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई।

दिवेर का निर्णायक महासंग्राम

इतिहास साक्षी है कि सन् 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा को बंदी बनाने और उनकी हत्या करने के लिए सन् 1577 से 1582 के बीच लगभग एक लाख सैन्यबल भेजे। अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने ‘बैटल ऑफ दिवेर’ कहा है, मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहाँ हल्दीघाटी को ‘थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़’ की संज्ञा दी, वहीं दिवेर के युद्ध को ‘मेवाड़ का मैराथन’ बताया है (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान के मिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ, जिसमें यूनान की विजय हुई थी, इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी), कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे।

हल्दीघाटी के पश्चात् अक्तूबर 1582 में दिवेर का निर्णायक युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना की अगुवाई करने वाला अकबर का चाचा सुल्तान खां था। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूँक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथों में थी, तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। अपने पिता की तरह ही कुँवर सा भी बड़े पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने मुगल सेनापति पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धँसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया। इसी भीषण युद्ध में महाराणा ने बहलोल खान के सिर पर इतना तीव्र प्रहार किया कि वह घोड़े समेत दो टुकड़ों में कट गया। प्रताप का ऐसा रौद्र रूप देख मुग़ल सेना में हाहाकार मच गया। वीर राजपूती सैनिकों ने शत्रु की सेना को अजमेर तक खदेड़ा। बचे-खुचे 36,000 भयभीत मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। इस युद्ध के पश्चात् प्रताप ने गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों को अपने अधीन कर लिया। केवल चितौड़गढ़ को छोड़ अन्य सभी दुर्गों पर पुनः केसरिया ध्वज फहरने लगा। यह भी वर्णित है कि इसके पश्चात भयातुर अकबर ने आगरा छोड़कर लाहौर को अपनी राजधानी बना ली थी।

वीर बलिदानी चेतक

जिस प्रकार प्रभु श्रीराम की कथा हनुमान जी महाराज के बिना अधूरी है, ठीक उसी प्रकार वीरों के सिरमौर महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा भी उनके घोड़े चेतक के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। चेतक भले ही पशु योनी में जन्मा एक अश्व मात्र था परन्तु उसकी बुद्धिमता और स्वामीभक्ति का कोई सानी नहीं। एक ओर जहाँ मनुष्य योनी में जन्म पाकर भी राजपूती कुल कलंक मान सिंह केवल अपनी झूठी शान में मश्गूल होकर विधर्मी शत्रुओं की सेना का प्रतिनिधित्व कर रहा था वहीं दूसरी ओर रणभूमि में पूज्य चेतक महाराणा के साथ कदम से कदम मिलाकर अपनी मातृभूमि का ऋण चुका रहा था। महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय अपनी कृति ‘हल्दीघाटी’में लिखते हैं:

वीर चेतक अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए विशालकाय हाथी पर चढ़ बैठा जिस पर गद्दार मान सिंह सवार था। यह घटना विश्व के इतिहास में अत्यंत अनूठी, अकल्पनीय और अद्भुत घटना है। इस युद्ध में चेतक अपने राणा को सकुशल सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर स्वयं सदा के लिए सो गया। प्रताप अपने परम मित्र, भाई समान घोड़े को हृदय से लगाकर दहाड़ मारकर रोने लगे। इस दारुण दृश्य को देखकर शक्ति सिंह (महाराणा के छोटे भाई जो मुग़लों से जा मिले थे) का हृदय परिवर्तन हो गया और वे अपने भ्राता के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे।

महाराणा की जयंती के अवसर पर हमें इस बात का मूल्यांकन करने की महती आवश्यकता है कि वर्तमान पीढ़ी को कौन सा इतिहास पढ़ाया जाए? वह कायरतापूर्ण इतिहास जिसमें साम्राज्य-विस्तार की लपलपाती-अंधी लिप्सा थी, अनैतिकता और अधर्म की दुर्गंध थी अथवा अपने पूर्वजों का वह गौरवशाली ओजपूर्ण इतिहास जिसमें संघर्ष, स्वाभिमान, साहस, त्याग, बलिदान और नैतिकता की पुण्यसलिला भावधारा समाहित है। आज यह विचार आवश्यक है कि क्या हमें गुलामी की उन ग्रंथियों को ही पोसने-सींचने-फैलाने का कार्य निर्बाध रूप से करते रहना है, अथवा उस शाश्वत सत्य को पुनः प्रतिष्ठित कर राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा करनी है। आज जब नवभारत अंगड़ाई ले रहा है तब क्या हमारा यह परम कर्त्तव्य नहीं बनता कि हम भावी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित मानबिन्दुओं और जीवन-मूल्यों की रक्षा हेतु तैयार करें? जिस क्षण हमें इन प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हो जाएँगे, उसी क्षण महाराणा प्रताप व अन्य पूर्वजों तक हमारी सच्ची श्रद्धांजलि पहुँचेगी।

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Shubhangi Upadhyay
Shubhangi Upadhyay
Shubhangi Upadhyay is a Research Scholar in Hindi Literature, Department of Hindi, University of Calcutta. She obtained Graduation in Hindi (Hons) from Vidyasagar College for Women, University of Calcutta. She persuaded Masters in Hindi & M.Phil in Hindi from Department of Hindi, University of Calcutta. She holds a degree in French Language from School of Languages & Computer Education, Ramakrishna Mission Swami Vivekananda's Ancestral House & Cultural Centre. She had also obtained Post Graduation Diploma in Translation from IGNOU, Regional Centre, Bhubaneswar. She is associated with Vivekananda Kendra Kanyakumari & other nationalist organisations. She has been writing in several national dailies, anchored and conducted many Youth Oriented Leadership Development programs. She had delivered lectures at Kendriya Vidyalaya Sangathan, Ramakrishna Mission, Swacch Bharat Radio, Navi Mumbai, The Heritage Group of Instituitions and several colleges of University of Calcutta.

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