राजस्थान में उदयपुर (Udaypur, Rajasthan) के पास स्थित नागदा (Nagda) में एक बेहद प्राचीन मंदिर है, जिसे सास-बहू का मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। कहा जाता है कि इस्लामिक आक्रांता शम्सुद्दीन इल्तुत्मिश (Shamsuddin Iltutmish) ने नागदा शहर को बर्बाद कर इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। इस मंदिर को उसने चूना और बालू भरवा कर एक टीले में तब्दील करवा दिया था। उसने मंदिर और उसके आसपास के इलाकों में पूजा-पाठ पर पूरी तरह रोक भी लगा दी थी।
सास-बहू मंदिर का असली नाम सहस्रबाहु मंदिर है, जो भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक राजा कार्तवीर्य अर्जुन उर्फ सहस्त्रबाहु को समर्पित है। यह मंदिर 1100 साल से अधिक पुराना है, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर सहस्त्रबाहु की जगह सास-बहू का मंदिर कहलाने लगा। इस मंदिर में भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश की छवियाँ हैं। वहीं दूसरी तरफ भगवान राम, लक्ष्मण और परशुराम की कलाकृतियाँ हैं। इसकी दीवारों पर रामायण का सचित्र वर्णन किया गया है।
सास-बहू मंदिर का इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार, गहलोत या गुहिलोत वंश से संबंधित मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने मंदिर भगवान विष्णु के अवतार सहस्त्रबाहु को और बहू ने शिव को समर्पित किया था। राजमाता भगवान सहस्त्रबाहु की अनन्य भक्त थीं। जब उनकी बहू आईं तो शिव की परम भक्त थीं। इसलिए इसी परिसर में मुख्य मंदिर के बगल में एक शिव मंदिर बनवा दिया। इस तरह यह मंदिर सहस्त्रबाहु से कालांतर में अपभ्रंश होकर सास-बहू का मंदिर बन गया।
कुछ इतिहाकारों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण कच्छावा राजवंश के राजा महिपाल और राजा रत्नपाल ने करवाया था। इसको लेकर विद्वानों का कहना है कि राजा महिपाल ने ग्वालियर में सहस्त्रबाहु मंदिर बनवाया है। बता दें कि नागदा के अलावा, ग्वालियर में भगवान विष्णु के अवतार सहस्त्रबाहु को समर्पित एक प्रसिद्ध एवं प्राचीन मंदिर है।
नागदा स्थित मंदिर में भगवान सहस्त्रबाहु की 32 मीटर ऊँची और 22 मीटर चौड़ी प्रतिमा थी। आज यह मंदिर खंडहर बन चुका है। हालाँकि, मंदिर की दीवारें और इन पर बनीं कलाकृतियाँ इसकी भव्यता को आज भी प्रदर्शित करती हैं। मंदिर ऊँचे जगत पर बना हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए पूर्व में मकरतोरण द्वार है। मंदिर आकर्षक पंचायतन वास्तु शैली में बनाया गया है।
यह मंदिर मेवाड़ राजवंश के कुलदेवता एकलिंगजी (भगवान शिव) मंदिर के रास्ते में स्थित है। सास-बहू मंदिर पाँच छोटे-छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है। इसके तीन दरवाजे तीन दिशाओं में हैं, जबकि चौथा दरवाजा एक ऐसे कमरे में स्थित है, जहाँ लोग नहीं जा सकते। मंदिर के प्रवेश द्वार पर देवी सरस्वती, भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु की मूर्तियाँ स्थित हैं।
मुख्य मंदिर के चारों तरफ देवताओं के कुल (परिवार) को बेहद उत्कृष्ट ढंग से उत्कीर्ण किया गया है। हर मंदिर में पंचरथ गर्भगृह और खूबसूरत रंगमंडप बने हैं। मंदिर के प्रमुख देवता हजार हाथों वाले सहस्रबाहु हैं। वहीं, मंदिर परिसर में दूसरा प्रमुख मंदिर भगवान शिव का है। मंदिर की दीवारों पर खजुराहो की तर्ज पर असंख्य मूर्तियाँ बनी हैं। यह राजस्थान के अत्यंत प्राचीन मंदिरों में से एक है।
ओमेंद्र रत्नू द्वारा लिखित ‘महाराणा: सहस्त्र वर्षों के इतिहास’ के अनुसार, नागदा और उसके आसपास के इलाकों में 999 शैव, वैष्णव और जैन मंदिर थे। इन मंदिरों को क्रूर इस्लामी आक्रांता इल्तुत्मिश ने नष्ट कर, इनकी मूर्तियों को खंडित करने के बाद पूरे शहर को जला दिया था।
इस्लामी आक्रांता इल्तुत्मिश ने मंदिर में भरवा दिया रेत
साल 1226 में मेवाड़ पर आक्रमण के दौरान इल्तुत्मिश ने न सिर्फ इन मंदिरों और उनमें स्थापित मूर्तियों को तोड़ा, बल्कि उसने सहस्त्रबाहु मंदिर को बालू और चूना से भरवा दिया। इसके बाद यह टीला का रूप ले लिया।
जब अंग्रेजों ने इलाके पर कब्जा किया और नागदा में बिखरी कलाकृतियों को देखा तो उसने इस टीले की खुदाई करवाई। इस खुदाई में हिंदुओं का 1000 साल पुराना इतिहास निकलकर सामने आया। इसके बाद हिंदुओं ने सैकड़ों वर्षों बाद इस मंदिर में पूजा शुरू की।
इस तरह प्राचीन नागदा शहर बप्पा रावल के काल में एक भव्य शहर हुआ करता था। इतिहासकार डॉ. राजशेखर व्यास के अनुसार, इस कस्बे में सहस्रबाहु मंदिर, महाराणा खुमाण रावल देवल तथा परकोटे के अवशेष मेवाड़ के तेरह सौ साल के गौरवमयी इतिहास के गवाह हैं।
यहाँ सहस्त्रबाहु मंदिर के अलावा, शिव मंदिर, आदिबुद्ध मंदिर जिसे अद्भुतजी कहते हैं, स्थित है। इसके परिसर में कई मूल्यवान मूर्तियाँ आज भी बेतरतीब ढंग से बिखरी पड़ी हुई हैं। यह क्षेत्र बौद्ध, जैन और सनातन संस्कृतियों को लेकर विश्वविख्यात रहा है।
नागदा और मेवाड़ वंश का इतिहास
जिस नागदा में यह सहस्त्रबाहु मंदिर स्थित है, वहीं 8वीं शताब्दी में गहलोत वंश के संस्थापक बप्पा रावल (Bappa Rawal) ने मेवाड़ वंश की स्थापना की थी, जिसमें आगे चलकर महाराणा खुमाण, महाराणा हम्मीर, महाराणा सांगा, महाराणा लाखा, महाराणा प्रताप सिंह आदि जैसे शूरवीर पैदा हुए। उदयपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर नागदा मेवाड़ राजवंश की पहली राजधानी थी। बाद में यह वैकल्पिक राजधानी बनी और चितौड़गढ़ के अलावा यहाँ से भी शासन का काम देखा जाता था।
बप्पा रावल का बचपन का नाम कालभोज (Kaalbhoj) था। इन्होंने सिंध के ब्राह्मण राजा दाहिर सेन की मुहम्मद बिन कासिम से हार का बदला अरब के खलीफा से लिया था। दाहिर सेन के पुत्र को शरण देते हुए बप्पा रावल ने मंडोवर के युद्ध में अरब सैनिकों को हराते हुए जुन्नैद का वध कर दिया था। यही नहीं, अफगानिस्तान के गजनी में मोहम्मद बिन कासिम द्वारा तैनात जागीरदार को हराकर गजनी को मुक्त कराया। गजनी और कोह-ए-दामाँ में अपना दुर्ग स्थापित किया और ईरान तक पहुँचकर अरब आक्रांताओं को खदेड़ा।
कौन हैं सहस्त्रबाहु
शास्त्रों के अनुसार, सहस्त्रबाहु भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक हैं। इन्हीं सहस्त्रबाहु के वध का जिक्र परशुराम द्वारा करने वर्णन शास्त्रों में मिलता है। हालाँकि, भगवान के एक अवतार द्वारा अपने दी दूसरे अवतार का वध करना कुछ विद्वानों द्वारा स्वीकृति योग्य नहीं लगता है। शास्त्रों के अनुसार, सहस्त्रबाहु भगवान परशुराम के मौसा थे। परशुराम की माँ और सहस्त्रबाहु की पत्नी सगी बहनें थीं।
कहा जाता है कि जब दमदग्नि ऋषि ने अपनी पत्नी रेणुका का सिर काटने के लिए अपने पुत्रों को कहा तो पुत्रों ने मना कर दिया। उस समय तक परशुराम वहाँ नहीं थे। यह बात जब रेणुका की बहन यानी सहस्त्रबाहु की पत्नी तो पता लगी तो वह विचलित हो गईं। उन्होंने सहस्त्रबाहु से कहा कि राजा होने के कारण ऐसा अन्याय नहीं होने देना चाहिए। इस पर सहस्त्रबाहु ने जमदग्नि को ऋषि बातकर उन्हें दंड नहीं देने की बात कही। लेकिन पत्नी की जिद पर वह ऋषि के आश्रम को उजाड़कर दंड दिया। यही से शत्रुता बढ़ी, जो सर्वविदित है।
भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक भगवान सहस्त्रबाहु प्राचीन महिष्मती नगर, जिसे आज महेश्वर कहते हैं, के राजा थे और हैहय कुल के क्षत्रिय शासक थे। उनके पिता का नाम राजा कार्तवीर्य और माता का नाम रानी कौशिक था। उनका का वास्तविक नाम अर्जुन था। भगवान दत्तात्रेय और फिर शिव के नीलंकठ रूप को प्रसन्न करके उन्होंने एक हजार हाथ होने का वर माँगा था। इसके बाद से उनका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ गया।
शास्त्रों के अनुसार, एक बार रावण ने सहस्त्रबाहु को युद्ध के लिए ललकारा, जिसमें उन्होंने रावण को बंदी बना लिया। बाद में रावण के दादा पुलस्त्य मुनि के आग्रह पर उन्होंने रावण को मुक्त दिया और दोनों मित्र बन बन गए। तीनों लोकों और सप्त द्वीपों को जीतने के कारण सहस्त्रबाहु को ‘राजराजेश्वर’ भी कहा जाता है।
हरिवंश पुराण के अध्याय 33 में वैशम्पायन जी द्वारा महाराज जन्मेजय को बताया गया कि कार्तवीर्य के समान कोई बलशाली नहीं हुआ। वैशम्पायन कहते हैं, “सहस्त्रबाहु को दत्तात्रेय ने वरदान दिए, जिसमें पहला हजार भुजा, दूसरा सज्जनों को अधर्म से निवारण करना, तीसरा पृथ्वी जीतकर राजधर्म से प्रजा को प्रसन्न रखना था।”
सहस्त्रबाहु को लेकर नारद जी कहते हैं, “जो यज्ञ, दान, तप, पराक्रम तथा ज्ञान कार्तवीर्य अर्जुन ने किया, वैसा कोई दूसरा राजा नहीं कर सकता। धर्म से प्रजा की रक्षा करने वाले इस राजा के धर्म के प्रभाव से कभी द्रव्य (संपत्ति) नष्ट नहीं होता था। वह पचासी हजार वर्ष तक सब रत्नों से युक्त होकर चक्रवर्ती सम्राट थे। योग के बल से वह स्वयं यज्ञपाल एवं क्षेत्रपाल थे। वह स्वयं मेघ बनकर प्रजा की रक्षा करते थे।”
भागवत पुराण में भगवान विष्णु व लक्ष्मी द्वारा भगवान सहस्त्रबाहु की उत्पत्ति की कथा वर्णन किया गया है। सहस्त्रबाहु ने विष्णु भगवान की 10 हजार वर्ष तक कठोर तपस्या करके 10 वरदान प्राप्त किए और चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि धारण की।
भगवान सहस्त्रबाहु के विषय में शास्त्रों और पुराणों में अनेकानेक कथाएँ हैं। राजा सहस्त्रबाहु ने एक बार संकल्प लेकर शिव तपस्या प्रारंभ की एवं इस घोर तप के समय वे प्रति दिन अपनी एक भुजा काटकर भगवान शिव को अर्पित करते थे। इस तपस्या से खुश होकर भगवान नीलकंठ रूप में प्रकट होकर सहस्त्रबाहु को अनेकों दिव्य, चमत्कारिक और शक्तिशाली वरदान दिए।
पौराणिक ग्रंथों एवं पुराणों के अनुसार, कार्तवीर्य अर्जुन के व्याधिपति, सहस्रार्जुन, दषग्रीविजयी, सुदर्शन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि, कृतवीर्यनंदन, राजराजेश्वर आदि कई नाम हैं। पुराणों के अनुसार, प्रतिवर्ष सहस्त्रबाहु जयंती कार्तिक शुक्ल सप्तमी को दीपावली के ठीक बाद मनाई जाती है। देश भर में इनके कई मंदिर हैं और उन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ पूजा जाता है।
कौन था इस्लामिक आक्रांता इल्तुत्मिश
लगातार हार का मुँह देखने के बाद सन 1192 में तराईन की द्वितीय युद्ध में मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद घोरी (Muhammad Ghouri) क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज चौहान को हराने में सफल रहा। इसके बाद उसने अपने गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक को भारत का जागीरदार नियुक्त कर वापस लौट गया। इसकी वजह ये थी कि मुहम्मद घोरी का कोई पुत्र नहीं था। उसकी एकमात्र संतान लड़की थी। इसलिए उसने अपने सबसे विश्वसनीय व्यक्ति और दास को जागीरदार बनाया।
घोड़े से गिरकर साल 1210 में ऐबक की मौत होने के बाद शम्सुद्दीन इल्तुत्मिश को उसके राज्य का भार मिला। इल्तुत्मिश बेहद कट्टर और धर्मांध प्रवृति का था। उसने सुल्तान बनते ही सबसे पहले सेना तैयार की और राजस्थान के रणथंभौर और मंडोर के शासकों पर आक्रमण शुरू कर दिया। इस दौरान हारने वाले राजा की वह हत्या कर देता था और नगरों को लूटकर जला देता था।
इसके साथ ही वह उन नगरों में स्थित मंदिरों को ध्वस्त करना नहीं भूलता था। वह मंदिरों को तोड़ने के साथ-साथ मूर्तियों को पूरी तरह खंडित कर देता था, ताकि हिंदू उनकी दोबारा पूजा ना कर सकें। इसके साथ वह प्राचीन शिलालेखों को भी नष्ट कर देता था, ताकि हिंदू अपने इतिहास को कभी जान न पाएँ। अति सुंदर और प्राचीन नगर नागदा को भी उसने इसी तरह बर्बाद किया था।
मेवाड़ के महाराणा जैत्र सिंह के नेतृत्व में हिंदू राजाओं ने एकजुट होकर इल्तुत्मिश 1234 ईस्वी में ललकारा तुमुल के युद्ध में इल्तुत्मिश को बुरी तरह परास्त किया। आठ महीने तक चले इस युद्ध में पराजय से इल्तुत्मिश इतना सदमा लगा कि 1236 ईस्वी में उसकी मौत हो गई। ओमेंद्र रत्नू की किताब के अनुसार, इस युद्ध को लेकर ‘चीड़वा के आलेख’ में लिखा है, “राजा जैत्र सिंह ने पृथ्वी को बचा लिया और ऋषि अगस्त्य (जिन्होंने समुद्र पी लिया था) की भाँति तुर्कों के प्राण पी लिए।”