भारत की आज़ादी के समय कई ऐसी रियासतें, या यूँ कह लें, रजवाड़े थे, जो केवल अपना फायदा देख रहे थे। इसमें से अधिकतर ऐसे थे, जो वास्तव में अपने राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे लेकिन खानदानी राजपाट होने के कारण जनभावनाओं को ताक पर रखते हुए राज करना चाहते थे। ऐसे ही राज्यों में से एक था हैदराबाद। हैदराबाद सल्तनत की स्थापना औरंगजेब के जनरल ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान फ़िरोज़ जोग के बेटे मीर क़मरुद्दीन द्वारा की गई थी। पहला ख़लीफ़ा अबू बकर इसका पूर्वज था।
स्वतंत्रता से पहले: हैदराबाद सल्तनत का इतिहास
हैदराबाद सल्तनत ने सन 1799 में टीपू सुल्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई में ईस्ट इंडिया कम्पनी की मदद की थी। इसके बदले में अंग्रेजों ने निज़ाम को टीपू के राज्य का एक टुकड़ा दिया। टीपू सुल्तान की अंग्रेजों के हाथों हार हुई और वह मारा गया। मराठों के ख़िलाफ़ युद्ध में भी हैदराबाद के निज़ाम ने अंग्रेजों का साथ दिया और बदले में सिंधिया के राज्य सहित कई मराठा जिले उसे इनाम के रूप में मिले। मेरे अली उस्मान ख़ान बहादुर हैदराबाद का अंतिम निज़ाम था।
अंग्रेजों की तरफ से उसे सबसे वफादार साथी होने का तमगा दिया गया था। 1.6 करोड़ की आबादी वाले हैदराबाद का वार्षिक राजस्व 26 करोड़ रुपए था और इसीलिए वह भारत के सबसे अमीर राज्यों में से एक था। हैदराबाद की जनसंख्या में 85% हिन्दू थे लेकिन प्रशासन से लेकर पुलिस और सेना तक- हर जगह मजहब विशेष के लोग ही काबिज थे। यहाँ तक कि बाद में निज़ाम द्वारा जो विधायिका गठित हुई, उसमें भी मजहब विशेष प्रभुत्व था। इस अन्याय से हिन्दू जनता में गुस्सा था।
On this day, in 1948, the Indian Army entered Hyderabad commencing the ‘Operation Polo.’
— G Kishan Reddy (@kishanreddybjp) September 13, 2019
This laid foundation to the end of Razakars’ atrocities, Nizam’s fascist rule and brought Hyderabad state into the Indian union.
PC- Andhra Patrika (Tel), Indian Express. pic.twitter.com/kc4YCRTyaF
जब 3 जून 1947 को ‘गवर्नमेंट प्लान’ आया, तब निज़ाम की बाछें खिल उठी। उसने भारत और पाकिस्तान, दोनों के ही संविधान सभा में अपना प्रतिनिधि भेजने से इनकार कर दिया। निज़ाम ने घोषणा करते हुए कहा कि आज़ादी के बाद वह ब्रिटिश कॉमनवैल्थ का सदस्य बन कर एक अलग राज्य की सम्प्रभुता को क़ायम रखना चाहता है। निज़ाम ने लार्ड माउंटबेटन के पास अपने प्रतिनधि भेजे लेकिन उन्होंने साफ-साफ़ शब्दों में कह दिया कि हैदराबाद को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक का हिस्सा बनना ही होगा।
निज़ाम की चालाकियाँ और भारत की आज़ादी
हैदराबाद के निज़ाम ने एक प्रतिनिधिमंडल के माध्यम से लॉर्ड माउंटबेटन को कहलवाया कि अगर उस पर ज्यादा दबाव डाला गया तो वह पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएगा। माउंटबेटन मानते थे कि वैधानिक रूप से तो निज़ाम को इसका हक़ था लेकिन उन्होंने भौगोलिक स्थितियों के हिसाब से इसे लगभग असंभव करार दिया। माउंटबेटन जानते थे कि मात्र 15% जनसंख्या होने के बावजूद हैदराबाद में लगभग सभी प्रशासनिक पदों पर समुदाय विशेष वाले ही काबिज थे और निज़ाम इस प्रभुत्व को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उस समय उनके सलाहकार रहे वीपी मेनन ने अपनी पुस्तक में माउंटबेटन की सोच साझा की।
बस यहीं पर सीन में सरदार पटेल की एंट्री होती है। लॉर्ड माउंटबेटन के पास सरदार का एक पत्र पहुँचा, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि हैदराबाद के पास भारत में विलय के अलावा कोई और चारा है ही नहीं। सरदार चाहते थे कि सभी चीजें जैसी तय हुई हैं वैसी ही हों। सरदार का मानना था कि हैदराबाद के शर्तों पर विलय का अर्थ होगा उन राज्यों के साथ अन्याय, जो पहले ही भारत में विलय के लिए तैयार हो चुके हैं। इसके बाद निज़ाम के पैंतरों को भाँपते हुए सरदार ने ऐसी चाल चली कि इस खेल के बाकी सारे खिलाड़ी चित हो गए।
सरदार वल्लवभाई पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि फ़ैसला जनभावना के अनुरूप हो। जनभावना की पुष्टि के लिए उन्होंने जनमत संग्रह कराने की बात कही। जो राज्य की जनता चाहेगी, वही होगा। सरदार का दाँव काम कर गया। लार्ड माउंटबेटन ने निज़ाम को पत्र लिख कर ब्रिटिश अधिकारियों के निरीक्षण में जनमत संग्रह कराने की बात कही। 85% हिन्दुओं का हक़ मार कर बैठे निज़ाम को ये प्रस्ताव न रास आना था और न आया। उसने हैदराबाद की ‘संवैधानिक स्थिति और समस्याओं’ का हवाला देते हुए कहा कि जनमत संग्रह का सवाल ही नहीं उठता।
इसके बाद निज़ाम ने सांप्रदायिक तनाव और उससे उपजने वाली संभावित हिंसा से होने वाले रक्तपात का रोना रोया। उसने अपने प्रतिनिधिमंडल के माध्यम से कहलवाया कि हैदराबाद के अधिकतर हिन्दू निज़ाम के प्रति वफादार हैं। उसकी तरफ से नवाब अली जंग ने धमकी दी कि हैदराबाद महानगर में अधिकतर जनसंख्या समुदाय विशेष की है और वे भारत में विलय कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे। उसने कहा कि इससे ऐसा तनाव उपजेगा जो सभी जिलों में फैलेगा और यह नियंत्रण से बाहर हो जाएगा।
पाकिस्तान का नाम लेकर ब्लैकमेलिंग
निज़ाम अब पाकिस्तान की तरफ देखने लगा था। वह चाहता था कि अनिश्चितता बनी रहे और बातचीत का कोई निष्कर्ष न निकले। उसके व्यवहार में भी बदलाव आ गया था, जिससे विलय हेतु बातचीत करने वाले लोग भी परेशान थे। निज़ाम चाहता था कि विलय के बावजूद हैदराबाद को विदेश नीति में पूरी छूट मिले और वह जिस विदेशी राज्य से चाहे, सम्बन्ध बना सके। वीपी मेनन सरदार पटेल के पास पहुँचे और उन्हें बताया कि हैदराबाद की कुछ शर्तों को मानते हुए विलय कर लेना चाहिए लेकिन सरदार ने कहा कि वह अपनी राय रखने से पहले पहले डाक्यूमेंट्स देखना चाहेंगे।
सरदार पटेल निज़ाम की पैंतरेबाजियों ने तंग आ चुके थे। उन्होंने कहा कि हैदराबाद के द्वारा ड्राफ्ट किए गए अग्रीमेंट को मानने से बेहतर है कि अब निज़ाम के साथ सारी बीतचीत रोक दी जाए। इसके बाद माउंटबेटन ने एक अलग से ड्राफ्ट एग्रीमेंट तैयार करवाया, जो भारत सरकार को मंजूर था। इसे स्वीकृति के लिए निज़ाम के पास भेजा गया। निज़ाम की एग्जीक्यूटिव कॉउन्सिल ने बहुमत से निज़ाम को एग्रीमेंट स्वीकार करने को कहा। लेकिन निज़ाम इसके बाद भी एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने में आनाकानी करता रहा।
#OnThisDay in the year 1948, under direct intervention from then Deputy Prime Minister of India Sardar Vallabhbhai Patel, #OperationPolo commenced to integrate the state of Hyderabad into the Indian Union.#HistoryWithAIR pic.twitter.com/JitvmceT21
— ALL INDIA RADIO (@AkashvaniAIR) September 13, 2019
इसके बाद पिक्चर में इत्तिहाद-ए-मुस्लिमीन की एंट्री होती है, जिसने हैदराबाद में नई नौटंकी शुरू कर दी। ये वही संगठन है, जो आज एआईएमआईएम के नाम से जाना जाता है और असदुद्दीन ओवैसी इसके मुखिया हैं। जब निज़ाम के पास पहुँचा प्रतिनिधिमंडल दिल्ली के लिए निकलने वाला था, तभी ईएएम के 30,000 लोगों ने अंग्रेज अधिकारी सर वॉटर मॉन्कटॉन सहित अन्य प्रमुख लोगों के घर को घेर लिया। खैर, निज़ाम ने भारत सरकार को कहलवाया कि एग्रीमेंट टूटने की स्थिति में वह पाकिस्तान के साथ मिल जाएगा।
निज़ाम ने अपने लोगों को कराची भेजा था। उसकी पाकिस्तान से जो बातचीत चल रही थी, अब वह उसकी धमकी भी देने लगा था। कश्मीर में भी समस्याएँ चालू हो गई थी और ईएएम के अध्यक्ष कासिम रज़वी को लगता था कि समस्याओं से घिरी भारत सरकार को वह हैदराबाद की शर्तों पर एग्रीमेंट स्वीकार करने के लिए मजबूर कर देगा। अचानक से निज़ाम ने बातचीत के प्रतिनिधिमंडल को बदल दिया, जिससे माउंटबेटन गुस्सा हो गए। सरदार का तो कहना था कि जिस फ्लाइट से निज़ाम का प्रतिनिधिमंडल दिल्ली आए, उसी फ्लाइट से उन्हें वापस भेज देना चाहिए।
स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट और शांति की आशा
खैर, भारत सरकार और हैदराबाद के बीच एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट हुआ, जिससे नेहरू को लगता था कि 1 साल के लिए शांति रहेगी लेकिन निज़ाम की डिमांड्स बढ़ती जा रही थी। उसने भारतीय करेंसी को हैदराबाद में प्रतिबंधित कर दिया। साथ ही उसने हैदराबाद से शेष भारत में होने वाली क़ीमती धातुओं की सप्लाई भी रोक दी। विदेशी संबंधों का हवाला देकर निज़ाम ने पाकिस्तान में एक अधिकारी को तैनात किया। साथ ही उसने पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए का क़र्ज़ भी दिया। हैदराबाद कश्मीर बनने चल निकला था और इसका शिल्पकार था ओवैसी की वर्तमान पार्टी का पुराना स्वरूप और उसका संस्थापक।
क़ासिम रज़वी ने हैदराबाद और उसके बाहर भड़काऊ बयानबाजी चालू कर दी, लोगों को उकसाने के लिए सांप्रदायिक बयान देने लगा। उसने आरोप लगाया कि भारत सरकार हैदराबाद के हिन्दुओं को हथियार सप्लाई कर रही है। उसने ख़ुद के संगठन को भारत भर के समुदाय विशेष का रहनुमा घोषित कर दिया। उसका आतंक इतना बढ़ गया कि पड़ोसी राज्य मद्रास को भी दिक्कत होने लगी। लेकिन, उसका एक बयान ऐसा था जो सरदार के कानों तक पहुँचा और वह एक्शन लेने के मूड में आ गए। क़ासिम ने कहा था कि अगर भारत सरकार हैदराबाद में दखल देती है तो उसे 1.5 करोड़ हिन्दुओं की हड्डियाँ और राख मिलेगी।
सरदार ने कहा कि अगर ऐसी बात है तो यह निज़ाम और उसके पूरे खानदान की जड़ों को नष्ट कर देगा। सरदार ने कहा कि हैदराबाद का विलय उसी प्रकार से होगा, जिस तरह से अन्य राज्यों का हुआ है। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता सेनानियों के ख़ून-पसीने से बने भारत को एक धब्बे की वजह से बर्बाद नहीं होने दिया जाएगा। निज़ाम के अंतर्गत कार्यरत हैदराबाद के प्रधानमंत्री मीर लाइक अली सरदार के रुख से सन्न रह गया और तुरंत भाग हैदराबाद निज़ाम के पास पहुँचा। सरदार ने साफ़ कह दिया था कि कोई और विकल्प नहीं है।
ऑपरेशन पोलो: लॉर्ड माउंटबेटन के इस्तीफे के बाद
जून 21, 1948 को लार्ड माउंटबेटन ने गवर्नर जनरल पद से इस्तीफा दे दिया और इसके साथ ही हैदराबाद सल्तनत के पिट्ठुओं ने हिन्दुओं पर आतंक बरपाना शुरू कर दिया। पुलिस के साथ मिल कर समुदाय विशेष, रज़ाकारों ने हिन्दुओं को लूटा। हिन्दू हैदराबाद राज्य की सीमा से बाहर भगाने लगे। इसमें वामपंथियों ने भी उनका साथ दिया। कॉन्ग्रेस के 10,000 कार्यकर्ताओं को जेल में ठूँस दिया गया। यहाँ तक कि इस अन्याय का विरोध करने वाले समुदाय विशेष तक को नहीं छोड़ा गया। राज्य से गुजरने वाली ट्रेनों पर आक्रमण किए गए।
Qasim Rizvi a lawyer from Osmanabad, founder of the dreaded Razakars. One of the most fanatic Muslim leaders. pic.twitter.com/VouQwe9vdR
— Lone Wolf Ratnakar (@GabbarSanghi) September 13, 2019
हैदराबाद ने संयुक्त राष्ट्र तक मामला ले जाने की तैयारी कर ली थी। भारत ने साफ़ किया कि यह उसका घरेलू मामला है। हैदराबाद के पीएम ने अमेरिकी राष्ट्रपति को भी पत्र लिखा। इसके बाद मेजर जनरल जेएन चौधरी के नेतृत्व और लेफ्टिनेंट जनरल महाराज श्री राजेन्द्रसिंहजी के मार्गदर्शन में भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन पोलो’ प्रारम्भ किया। सितम्बर 17, 1948 को हैदराबाद की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। भारतीय सेना की राह में आने वाले 800 रज़ाकार मारे गए। हालाँकि, यह संख्या उससे काफ़ी कम है, जितने हिन्दुओं को उन्होंने मार डाला था।
108 घंटे तक चले इस ऑपरेशन के दौरान 18 सितम्बर को भारतीय सेना हैदराबाद में घुसी। हैदराबाद की सरकार ने 17 सितम्बर को ही इस्तीफा दे दिया था। हाउस अरेस्ट में किए जाने का बाद निज़ाम अब ये कह कर भुलावा दे रहा था कि वह नई सरकार का गठन करेगा। पूरे ऑपरेशन के दौरान कहीं भी भारत में कोई सांप्रदायिक हिंसा नहीं हुई। निज़ाम ने विदेशी ताक़तों को लिखा लेकिन भारत के प्रयासों के बाद किसी ने भी दखल नहीं दिया।
(इस लेख को मुख्यतः भारत के बँटवारे और रियासतों के विलय के दौरान अहम किरदार अदा करने वाले अधिकारी वीपी मेनन की पुस्तक ‘THE STORY OF THE INTEGRATION OF THE INDIAN STATES‘ सहित अन्य Sources के आधार पर तैयार किया गया है।)