अंग्रेजों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए ये नैरेटिव बना दिया था कि ये एक मामूली सा सिपाही विद्रोह था, लेकिन वीर सावकर जैसे अध्येता ने इस नैरेटिव को विफल करते हुए दुनिया को बताया कि ये हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। यहाँ हम जिस क्रांति की बात करने जा रहे हैं, वो इससे भी 51 साल पहले की है, जुलाई 1806 की। उस समय तमिलनाडु के वेल्लोर में सिपाहियों ने ऐसा विद्रोह किया, ऐसी क्रांति की, कि भारत में पाँव जमा रहे अंग्रेजों की हालत खराब हो गई थी।
वेल्लोर का ऐतिहासिक किला और उस प्रेसीडेंसी की स्थिति
ये भारत में सिपाहियों द्वारा ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह था। क्रांतिकारियों ने न सिर्फ 200 अंग्रेजों को मार गिराया, बल्कि वेल्लोर के ऐतिहासिक किले को भी नियंत्रण में ले लिया। 16वीं शताब्दी के इस किले को विजयनगर साम्राज्य द्वारा बनवाया गया था और विजयनगर के अंतिम अराविदु राजवंश ने इसे अपना मुख्यालय भी बनाया। इस किले का ऐतिहासिक महत्व इसी बात से समझिए कि बीजापुर के सुल्तान, कर्नाटक के सुल्तानों और मराठों ने भी इसे अपने-अपने समय में अपने नियंत्रण में रखा।
मद्रास के 125 किलोमीटर पश्चिम में स्थित ये किला उस शहर में बनाया गया था, जो कभी टोन्डाईमंडलम का हिस्सा हुआ करता था। ये दक्षिण भारत की सैन्य आर्किटेक्चर का उम्दा उदाहरण है। इसकी दीवारें ग्रेनाइट के पत्थरों से बनी हुई हैं। इसके उत्तरी हिस्से में एक मंदिर भी बनाया गया था। उत्तर-पश्चिम में उस समय एक हिन्दू गाँव हुआ करता था। सन् 1864 में बाद में यहाँ चर्च भी बना दिया गया। वेल्लोर में जब विद्रोह हुआ, उससे पहले दक्षिण भारत की स्थिति अच्छी नहीं थी।
वहाँ लोगों को भारी सूखे का सामना करना पड़ा था, जिससे अंग्रेजों के राजस्व में भी कमी आ गई थी। बंगाल आर्मी के अधिकारियों को ज्यादा पैसे मिलने के कारण खुद दक्षिण भारत के ब्रिटिश अधिकारी असंतुष्ट थे। 19 जून 1804 को मदुरै के कलक्टर पर हमला हो चुका था। करीब 1000 की भीड़ ने उसे घेरा था। लक्ष्मण नाइगु इस विद्रोह के नायक थे। पुत्तूर नुटुम में विद्रोहियों में से कइयों को अंग्रेजों ने मार डाला। जुलाई में लक्ष्मण भी पकड़ लिए गए।
अंग्रेजों को इस सिपाही विद्रोह को कुचलने के लिए तमिलनाडु के रानीपेट स्थित आर्कोट से हथियारों और तोपों से लैस फ़ौज बुलानी पड़ी थी। अंग्रेजों ने हमारे लगभग 350 क्रांतिकारी सिपाहियों को बेरहमी से मार डाला। असल में नवंबर 1805 में सिपाहियों के ड्रेस कोड को बदलने जाने के बाद इस विद्रोह की सुगबुगाहट शुरू हुई थी। हिन्दुओं को किसी भी प्रकार के धार्मिक चिह्न रखने से प्रतिबंधित कर दिया गया था। वो न तो तिलक लगा सकते थे, न धोती पहन सकते थे।
साथ ही मुस्लिम सिपाहियों से भी कह दिया गया था कि वो अपनी दाढ़ी हटा दें, इससे वो भी आक्रोशित थे। टीपू सुल्तान की हार के बाद उसके परिवार को भी उसी किले में रखा गया था, जिसे इस विद्रोह के बाद कलकत्ता में शिफ्ट कर दिया गया। बताया जाता है कि टीपू सुल्तान के 12 बेटे और 8 बेटियाँ थीं। आर्कोट से आए कर्नल गिलेस्पी ने इस विद्रोह को कुचला था। उस समय जॉर्ज बार्लो को ब्रिटिश इंडिया का गवर्नर जनरल बना कर भेजा गया था। जॉन क्रेडॉक उस समय मद्रास उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी का कमांडर-इन-चीफ था।
10 जुलाई, 1806: तमिलनाडु के वेल्लोर में क्या हुआ था?
इस विद्रोह का असर ऐसा हुआ था कि ब्रिटिश सरकार को अपने आदेश वापस लेने पड़े थे और मद्रास के गवर्नर विलियम बेंटिंक को वापस बुला लिया गया था। आइए, अब बात करते हैं वेल्लोर विद्रोह के पूरे घटनाक्रम की। सन् 1799 में अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टण के युद्ध में मैसूर के शासक और इस्लामी कट्टरपंथी टीपू सुल्तान को मार गिराया। उसके बेटे-बेटी और परिवार को वेल्लोर के किले में रखा गया। यही कारण है कि विद्रोह के बाद टीपू सुल्तान की दूसरी संतान फ़तेह हैदर को राजा घोषित कर वेल्लोर के किले पर मैसूर का झंडा लगा दिया गया था।
वेल्लोर का विद्रोह सिर्फ एक दिन ही चल पाया था, लेकिन इतिहास में इसे एक महत्वपूर्ण स्थान मिलता है। वेल्लोर में कुल 1500 भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश आर्मी के रूप में तैनात किया गया था। वहाँ से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर आर्कोट में रॉबर्ट गिलेस्पी की बटालियन तैनात थी। मद्रास का कमांडर-इन-चीफ जॉन क्रेडॉक के आदेश के बाद से ही भारतीय सिपाहियों में असंतोष की भावना पनपने लगी थी। उसने चमड़े से बनी पगड़ी को पहनना भी सिपाहियों के लिए अनिवार्य कर दिया था।
साथ ही उन्हें उन्हें भारतीय पगड़ी पहनने से भी वंचित कर दिया गया था और बदलने में हैट पहनने को कहा गया था। उसमें कॉकेड लगा होता था, जिसे उस समय इसे मजहब की निशाने समझा जाता था और सिपाहियों को लगा कि उनका धर्मांतरण कराया जा रहा है। जिन सिपाहियों ने विद्रोह किया था, उन्हें सामान्यतः किले के बाहर तैनात कर के रखा जाता था और वो झोपड़ियों में रहते थे। विरोध करने वालों पर अत्याचार किया जाने लगा। मई 1806 में इन फैसलों के विरोध करने वाले 2 सैनिकों को चेन्नई स्थित सेंट जॉर्ज किले में लाया गया।
वहाँ उन्हें 90 बार कोड़े से पीटे जाने का आदेश दिया गया। उन्हें उनकी नौकरी से भी निकाल दिया गया। 19 ऐसे सिपाही थे, जिन पर सार्वजनिक रूप से 50-50 कोड़े बरसाए गए। साथ ही उन्हें माफ़ी माँगने को भी कहा गया। इस विद्रोह में 69th कमांड के 115 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया गया था। किले के ऊपर से यूनियन जैक को निकाल बाहर किया गया था। जिस ब्रिटिश अधिकारी ने आर्कोट तक खबर पहुँचाई, वो मेजर कूप्स था।
📍Vellore Mutiny
— Ministry of Information and Broadcasting (@MIB_India) July 10, 2023
(10th July, 1806)
🔹Remembering this historic day in the fight for Indian Independence.
🔹The Vellore Revolution was the first instance and violent uprising by Indian sepoys against the East India Company.#AmritMahotsav pic.twitter.com/qIFZaDYBwY
9 जुलाई, 1806 को टीपू सुल्तान की 5वीं बेटी की शादी थी, उसी किले में। शादी के दौरान अतिथियों की वेशभूषा में भी कई विद्रोही अंदर घुसे थे। 10 जुलाई, 1806 को सिपाहियों ने किले को चारों तरफ से घेर लिया और गोलीबारी करने लगे। लेकिन, इस दौरान एक ब्रिटिश अधिकारी किसी तरह वहाँ से आर्कोट पहुँचने में कामयाब रहा और उसने इस विद्रोह की सूचना दी। 9 घंटों बाद ‘ब्रिटिश 19th लाइट ड्रैगून्स’ बटालियन वहाँ आ धमकी। किले के जिन दरवाजों पर विद्रोहियों ने पहरा नहीं बिठाया था, वहीं से अंग्रेजों की फ़ौज भीतर घुसी।
तड़के सुबह 3 बजे के करीब ही विद्रोह शुरू हो गया था, जब 500 के करीब हथियारबंद भारतीय सिपाहियों ने कई बंदूकों और 2 तोपों के साथ उधर का रुख किया जिधर यूरोपियन फ़ौज थी। सबसे पहले उनके बैरक के दरवाजों को उड़ाया गया। कई ब्रिटिश सैनिक उस समय सो ही रहे थे। भारतीय विद्रोही सैनिकों ने बैरक के भीतर घुस कर गोलीबारी शुरू कर दी। ब्रिटिश सैनिकों में हाहाकार मच गया। न उनके पास संख्याबल था, न हथियार ज्यादा थे। भागने के अलावा उन्हें कोई विकल्प नहीं सूझा।
भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेजों की घोर क्रूरता
इस गोलीबारी में किले का कमांडर कर्नल फैनकोर्ट भी मारा गया। कुल 15 बड़े ब्रिटिश अधिकारी मार गिराए गए थे। कई यूरोपियनों के घरों को भी लूट लिया गया। इस दौरान विद्रोह में शामिल मुस्लिम सिपाहियों के नेता शेख कासिम ने टीपू सुल्तान के बेटे को राजा बनने के लिए मनाया, लेकिन परिवार डर के मारे तैयार नहीं था। जो सैनिक इस विद्रोह में शामिल नहीं थे, उन्हें खरी-खोटी सुनाई गई। इसी कन्फ्यूजन का फायदा उठा कर किले से एक अंग्रेज भागा और उसने आर्कोट में खबर कर दी।
इसके बाद वहाँ से आई हथियारबंद बटालियन ने भारतीय सिपाहियों को बंदूक में लगे चाकू घोंप-घोंप कर मारना शुरू कर दिया। बताया जाता है कि 100 ऐसे भारतीय सिपाही थे जिन्हें दीवार के सामने खड़ा करा कर उन्हें गोली मार दी गई। अंग्रेज किसी तरह से क्रूरतम बदला लेना चाहते थे। इसके बाद आनन-फानन में कोर्ट मार्शल कर के 6 भारतीय सैनिकों को खुलेआम गोली मार देने की सज़ा सुनाई गई, 5 को फायरिंग स्क्वाड ने मार डाला, 8 को फाँसी पर लटका दिया गया और 5 को जीवन भर के लिए कहीं दूर भेज दिया गया।
लेखक जे विल्सन का मानना है कि 1700 में से 879 भारतीय सिपाहियों की हत्या कर दी गई थी। ये इस पूरे विद्रोह में हुई भारतीय सैनिकों की मौतों का आँकड़ा है। इस विद्रोह के सज़ाओं भय के कारण ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में दक्षिण भारत में वैसी क्रांति देखने को नहीं मिली। अपने 200 सैनिकों को खोने के बाद अंग्रेजों ने कई फैसलों को वापस ले लिया और भारतीय सिपाहियों पर कोड़े बरसाए जाने की सज़ा को खत्म कर दिया। अगले साल मिंटो भारत का गवर्नर बना कर भेजा गया।
आखिर अंग्रेजों को भारतीय सिपाहियों की ज़रूरत ही क्यों पड़ी थी? एक ये सवाल आपके मन में ज़रूर उठता होगा। इसका उत्तर ये है कि दक्षिण भारत में कई यूरोपियन ताकतें सक्रिय हो गई थीं और सन् 1746-48 में ब्रिटिश को फ्रेंच से कई लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी थीं, इसीलिए उन्होंने स्थानीय भारतीय सैनिकों की भर्ती का निर्णय लिया। चार्ल्स कार्नवलिस जब भारत का गवर्नर जनरल था, उस समय दक्षिण भारत में 70,000 ब्रिटिश सैनिकों में मात्र 13,500 ही यूरोपियन थे।