बनारस के बारे में जब भी बात होती है तो शुरुआत इस सारभूत उक्ति से होती है कि यह बना हुआ रस है। एक ऐसा रस जिसके रसास्वादन के लिए काशी के उन तमाम रहस्यों और परम्पराओं से गुजरना होगा जो अपने आप में अनूठी होने के साथ ही सैकड़ों, हजारों से लेकर युगों का इतिहास अपने आँचल में समेटे हुई है। काशी की महाशिवरात्रि, रंगभरी एकादशी, चिता भस्म की होली के बारे में आपने अब तक ठीक-ठाक सुन रखा है। अब एक और बात, एक और ऐसी परंपरा जो अपने आप में अनूठी है वह है मणिकर्णिका घाट महाश्मशान में बाबा मसाननाथ के दर पर नगरवधुओं का नृत्य।
अपने इस जीवन के नारकीय दंश से जन्मों-जन्मों की मुक्ति स्वरुप मोक्ष की कामना लिए देश भर से हर वर्ष चैत्र नवरात्रि की सप्तमी के दिन यहाँ नगरवधुएँ चारो-तरफ धधकती चिताओं के बीच बाबा मसान नाथ के दरबार में नृत्य और संगीत की सुर-लहरियाँ बहाती हैं। जिससे तरंगित हो उठती हैं स्वयं शिव प्रिया माँ गंगा। काशी में महादेव शिव बाबा मसाननाथ के रूप में भी विराजमान हैं, जिन्हें महाश्मशान का देवता कहा जाता है।
प्राचीन काल में कब यह परंपरा शुरू हुई? कैसे महादेव से मोक्ष की कामना के साथ इसे जोड़ा गया उस पर बहुत कम ही पढ़ने-जानने को मिला है? मैं जब तक बनारस में था तो कई बार इस आयोजन में गया लेकिन तब इस पर और जानने का भाव नहीं था पर अब खुद पिछले दो सालों से सोच रहा हूँ कि बनारस जाकर इस आयोजन में शामिल होऊं, शायद वहाँ इत्तेफाकन कोई मिल जाए जो इस आयोजन के पीछे की रहस्य कथा के बारे में विस्तार से बताए लेकिन कोरोना की वजह से इस वर्ष भी अयोजन सांकेतिक होने पर टालना पड़ा।
फिलहाल, जो एक कथा ऐतिहासिक रूप से इस आयोजन से जुड़ती है वह है राजा मानसिंह की, वही अकबर के समकालीन 16वीं शताब्दी में आमेर के राजा मानसिंह, जिन्होंने अपनी बहन जोधा बाई का विवाह अकबर के साथ करके स्वयं उनकी दासता स्वीकार कर दरबारी बन गए थे।
ऐतिहासिक रूप से कहा जाता है 16वीं सदी में, जब काशी प्रवास के दौरान राजा मानसिंह ने बाबा मसाननाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तो वहाँ की परंपरा के अनुसार पूर्णाहुति के रूप में उनकी इच्छा भजन-कीर्तन, नृत्य-संगीत के कार्यक्रम रखने की हुई। एक तो महाश्मशान और दूसरा मानसिंह के साथ यह अपयश भी जुड़ा था कि उन्होंने मुगलों से डरकर अपनी बहन जोधा बाई को एक यवन अकबर को सौंप दिया था। काशी वासियों के साथ ही उस समय का जो भी कुलीन वर्ग था वह इसे उचित नहीं मानता था।
फिर वही हुआ जब कोई नामचीन कलाकार महाश्मशान मणिकर्णिका पर स्वर लहरियाँ बिखेरने को तैयार न हुआ तो यह जिम्मेदारी संभाली काशी की गणिकाओं ने, वही नगरवधुएँ; यह सब सभ्य नाम है जो आम प्रचलित नाम है वह है ‘वेश्या’- देह, नृत्य और संगीत को आधार बनाकर अपनी आजीविका चलाने वालीं। जब उन्होंने वहाँ आने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया तब कहीं जाकर राजा मानसिंह के बचे-खुचे मान सम्मान की लाज बच पाई थी।
कहते हैं कि तय समय पर राजा मानसिंह के आमंत्रण पर तब नगर बधुएँ नाव से बैठकर गंगा की गोद में अठखेलियाँ करते हुए श्मशान घाट पहुँची थी और पहली बार महिलाओं ने मसाननाथ मंदिर में स्वरांजलि के साथ अपनी मुक्ति के लिए पूजा-अर्चना की थी।
कालांतर में यह परंपरा बन गई जो अब लगभग 400 साल से भी अधिक पुरानी है। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी नगरवधुएँ आज भी निभाती आ रही हैं। कहा जाता है, देश भर में जिस भी गणिका ने खुद को इस दलदल में झोंक दिया है वह साल भर इंतजार करती है इस कामना के साथ की बाबा दरबार में नृत्यांजलि अर्पित कर वह इस जीवन में जो भी विकार, संस्कार या नारकीय भोग लिखा था वह उसे या किसी अन्य स्त्री को कभी दोबारा न भोगना पड़े।
कहा जाता है तभी से मणिकर्णिका पर नगरवधुओं के नृत्य की परम्परा शुरू हुई। शिव को समर्पित गणिकाओं की यह भाव पूर्ण नृत्यांजली मोक्ष की कामना से युक्त होती है। जहाँ उन्हें यह एहसास होता है कि देह से परे भी उनका कोई अस्तित्व है जो बेहद भावपूर्ण है। जहाँ न कोई ग्राहक होगा न खरीदार, बस चारो तरफ चिताओं से उठती प्रचंड अग्नि होगी और देह मुक्त हुई वह राख जो जीवन की नश्वरता का पाठ पढ़ा रहा होगा। पहली बार काया से परे उनके अपने अस्तित्व से उनका साक्षात्कार करा रहा होगा।
इस वर्ष चैत्र सप्तमी को कल हुए आयोजन की बात करें तो वह कोरोना की वजह से पिछले साल की तरह प्रतीकात्मक ही था। कार्यक्रम के बारे में मसाननाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने ऑपइंडिया को बताया कि चैत्र नवरात्र के सप्तमी तिथि को बाबा के वार्षिक शृंगार समारोह की आखरी निशा होती है। इस दिन बाबा को तांत्रिक रूप में सजाया जाता है और इसी दिन सैंकड़ों वर्षों की परम्परा का निर्वहन करने नगर वधुएँ बाबा मसाननाथ के दरबार में स्वरांजलि लगाने पहुँचती हैं।
सोमवार को भी नगर वधुएँ यहाँ हाज़री लगाने आईं पर इस वर्ष यह आयोजन कोविड गाइडलाइंस के अनुरूप सांकेतिक रूप से ही संपन्न हुआ। नगर वधुओं ने मंदिर में ही नृत्यांजलि पेश की जिसमें किसी बाहरी व्यक्ति को प्रवेश नहीं दिया गया। बहुत ही सीमित संख्या में मंदिर व्यवस्था से जुड़े और आस-पास के लोग ही वहाँ मौजूद रहे।
आपको बता दें कि यहाँ आने वाली कोई भी नगर वधु कभी पैसा नहीं लेती बल्कि स्वयं अपनी मन्नत का चढ़ावा अर्पित करके जाती है। कलकत्ता, बिहार, मऊ, दिल्ली, मुंबई समेत भारत के कई स्थानों से मुक्ति की आकांक्षी, किसी दैवीय प्रेरणा से आभूत होकर वह बरबस यहाँ खींची चली आती हैं।
यह सब लिख देना जितना आसान है, उसे वहाँ जाकर आप अनुभूत करेंगे तो पढ़ पाएँगे उन बेबस सुनी आँखों में घुंघरूओं का वह शोर भी जिसे वह बाबा को अर्पित कर सदा के लिए इस देह दंश से मुक्त हो जाना चाहती हैं। उनसे बातें कर आप देह से ऊपर उठकर उस शाश्वत अस्तित्व से मुलाकात कर पाएँगे जो इस नश्वर शरीर से परे है।
फिलहाल, इस वर्ष तो बीत गया बस यह तिथि याद रहे चैत्र नवरात्र की सप्तमी, इस दिन चुपचाप पहुँच जाइए बनारस के महाश्मशान मणिकर्णिका जहाँ महादेव की कृपा से आपको देहबोध से मुक्ति का एहसास होगा। इससे परे जो है, जो दिन भर कहता है मेरा यह, मेरा वह, पर कभी खुद के बारे में बात नहीं करता, शायद उससे भी आपकी मुलाकात हो जाए!