देश के पूर्व अटॉर्नी जनरल अशोक देसाई की 90वीं जयंती पर मुंबई में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने नंगेली की उस कहानी का जिक्र किया है, जिसके अनुसार एक दलित की महिला ने ‘स्तन कर’ (Breast Tax) का विरोध करने के लिए अपने स्तनों को काट दिया था।
जस्टिस चंद्रचूड़ की ही तरह बहुत सारे लोगों ने भी यह कहानी सुनी और फिर सुनाई होगी। हालाँकि, क्या आप जानते हैं इसका सच क्या है? सच जानने से पहले आइए जानते हैं पूरी कहानी क्या है।
दरअसल, इस कहानी में दावा किया जाता है कि केरल में उच्च जाति के नायर और नंबुथिरी ब्राह्मणों ने निचली जातियों की महिलाओं को अपने स्तन ढँकने की अनुमति नहीं दी और फिर उन पर ‘स्तन कर’ लगाया। कहानी में बताया जाता है कि ऐसे शोषक समाज में, गुलाब नंगेली नामक महिला ने अपने स्तन काटकर इसका विरोध किया था। साथ ही, उसने अपने स्तनों को टैक्स कलेक्टर के सामने बतौर कर यानी टैक्स पेश किया था। स्तन काटने के कारण उसका खून बहुत अधिक बह गया था, जिससे उसकी मौत हो गई थी। इसके बाद, उसका पति भी दुःखी होकर उसकी चिता में ही कूदकर जान दे देता है।
इस कहानी सच्चाई जानने के लिए हमने केरल के 19वीं सदी के इतिहास को खंगाला। हमें पता चला कि उमस भरे मौसम के कारण वहाँ के लोग सिर्फ कमर के नीचे ही कपड़े पहनते थे। यह सब, बिना किसी जाति, लिंग, धर्म के भेद के चलता आ रहा था।
17वीं, शताब्दी में भारत आए एक डच यात्री विलियम वैन निउहोफ ने त्रावणकोर की तत्कालीन रानी अश्वती थिरुनल उमयम्मा की पोशाक के बारे में बात करते हुए लिखा है, “मुझे महारानी के सामने पेश किया गया था। उनके पास 700 से अधिक नायर सैनिकों का पहरा था, जो मालाबार शैली के कपड़े पहने हुए थे। रानी की पोशाक उसके बीच में लिपटे कॉलिको के एक टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं है। उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा नग्न दिखाई देता है।”
त्रावणकोर की रानी से हुई मुलाकात को लेकर विलियम वैन ने एक चित्र भी बनाया था। इस चित्र में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि रानी और उनके साथ मौजूद लोगों ने अपने सीने को या तो कपड़े से नहीं ढँका है या फिर काफी छोटा कपड़ा डाला हुआ है।
इसके अलावा, 17वीं और 18वीं शताब्दी के यात्री पिएत्रो डेला वैले और जॉन हैरी ग्रोस के अनुसार, केरल में पुरुष और महिला दोनों ही ऊपरी कपड़े नहीं पहनते थे। एक अन्य यात्री अब्बे डुबोइस ने 1815 में लिखे अपने मैनुअल “हिंदू शिष्टाचार, सीमा शुल्क और समारोह” (Hindu Manners, Customs and Ceremonies) में लिखा है कि सभी महिलाओं में से, वेश्याएँ ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अपनी छाती को ढँकती हैं। वहाँ, स्तन ढँकना एक मोहक कार्य माना जाता था।
इसके अलावा, मानवविज्ञानी फ्रेड फावसेट ने उल्लेख किया है कि मालाबार में रहने वाला कोई भी स्थानीय निवासी ब्लाउज पहनने या अपने स्तनों को ढँकने का शौक नहीं रखता। शुरुआत में जब अंग्रेज नर्सों ने स्थानीय तिय्या महिलाओं को अपने स्तन ढकने के लिए कहा तब उन महिलाओं द्वारा उन्हें जमकर फटकार लगाई गई थी। इसका कारण यह था कि वह वेश्याएँ नहीं थीं। इससे भी पुष्टि होती है कि मालाबार में सिर्फ वेश्याएँ ही स्तन ढकती थीं।
यदि आपको लगता है कि वामपंथियों द्वारा रची गई इस कहानी को काल्पनिक कहने के लिए 17वीं और 18 वीं शताब्दी का समय कुछ ज्यादा ही पुराना समय हो गया है तो 19वीं और 20वीं शताब्दी के उदाहरणों को भी बतौर सबूत देख सकते हैं।
ऐसे कई फोटोज और सबूत उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह सब सिर्फ एक कहानी है। नीचे फोटोज में दिखाया गया है कि नंबूथिरी परिवारों और समृद्ध नायर परिवारों की महिलाओं ने खुद स्तन नहीं ढका हुआ है। वास्तव में, इन महिलाओं को स्तन ढकने की आवश्यकता ही नहीं थी। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं तब स्तन ढकने की ‘परंपरा’ ही नहीं थी।
ऊपर की तस्वीरें उस समय की उच्च जाति की महिलाओं की तस्वीरें हैं। वहीं, नीचे की तस्वीरें मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा की पेंटिंग हैं। इन पेंटिंग्स में भी इस झूठी कहानी की पोल खुलती नजर आएगी।
इन पेंटिंग्स को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि महिलाओं में अपने सीने पर एक बिना सिला हुआ कपड़ा डाल रखा है। यह तब है जबकि महिलाओं ने तमाम तरह के गहने पहने हुए हैं। हालाँकि, बाद में 20वीं सदी में अंग्रेजों के हस्तक्षेप और प्रभाव के बाद लोगों ने एक सिला हुआ ऊपरी वस्त्र पहनना शुरू कर दिया। यह पहनावा सीने के चारों ओर सिला हुआ रहता था।
फोटोज को देखने से समझ आता है कि इसका उद्देश्य सिर्फ स्तन को ढँकना नहीं था। बल्कि, अंग्रेजी सभ्यता और फैशन के प्रभाव के चलते सामने के पूरे हिस्से को ढँका जाने लगा था।
नंगेली कौन थी
नंगेली की कहानी की पुष्टि करने के कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। विकिपीडिया में लिखे गए लेखों के स्त्रोत और संदर्भों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ये सभी बीते दशक के हैं। साथ ही, इसमें अधिकांश बीते कुछ वर्ष पुराने हैं। यानी कि नंगेली की ‘झूठी कहानी’ को सही साबित करने के लिए कोई भी पुख्ता सबूत नहीं है।
कहानी का जन्म
इस कहानी की शुरुआत पत्रकार सी. राधाकृष्णन ने की। इस कहानी में उन्होंने नंगेली और कडप्पन नामक किरदारों को गढ़ते हुए बेहतरीन कहानी लिखी। इसमें मसाला डालने के लिए उन्होंने नंगेली के पति की आत्महत्या की कहानी को भी जोड़ दिया। यह कहानी पहली बार 8 मार्च, 2007 को ‘पायनियर’ में प्रकाशित हुई थी। इसका मलयालम अनुवाद उसी दिन ‘मातृभूमि’ और ‘मनोरमा’ में भी प्रकाशित हुआ था।
हालाँकि, बाद में साल 2012 में, इसे एसबीडी कवियूर बुलेटिन और फिर मुरली टी के कैनवास में भी जगह मिल गई थी। इसके बाद, इसे वागाबॉन्ड, बीबीसी और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समेत कई अन्य मीडिया संस्थानों ने इस कहानी को सच मानते हुए ‘फैलाने’ की कोशिश की।
शब्दों का फेर, अर्थ का अनर्थ और प्रोपेगैंडा…
दरअसल, मलयालम में कर या टैक्स को थल्लाकरम कहा जाता है। थल्लाकरम शब्द का उपयोग वोटिंग टैक्स जैसे टैक्सों के लिए उपयोग किया जाता था। त्रावणकोर में भी मतदान के लिए टैक्स लगाया जाता था। हालाँकि, इसमें महिलाओं से अपेक्षाकृत कम टैक्स वसूला जाता था। चूँकि, मलयालम में मूला को स्तन कहा जाता है। इसलिए, प्रोपेगैंडा फैलाने से रची गई कहानी में, थल्लाकरम को मुल्लाकरम (महिला कर) और फिर स्तन कर के रूप में चित्रित किया गया है।
इतिहास से लेकर आज तक यह कहा जाता रहा है कि यदि किसी भी कहानी को बार-बार और जोर देकर कहा जाए तो उसमें सच्चाई झलकने लगती है। दुर्भाग्य से इस कहानी के साथ भी यही हुआ। कहानी समाज में फैलाई गई और फिर इसे जातिगत भेदभाव के भीषणतम रूप में प्रदर्शित करने की कोशिश की गई।
नंगेली की कहानी को हाल ही में टी मुरली नामक एक मलयाली चित्रकार ने अपने कैनवास पर उकेरा था। इसके बाद से यह काल्पनिक कहानी एक बार फिर लोगों की जुबान में चढ़ गई थी। दिलचस्प बात यह है कि टी मुरली का ब्लॉग हिंदू देवी-देवताओं और संस्कृति के प्रति उनकी अत्यंत कटु और घृणित मानसिकता से भरा पड़ा है। उदाहरण के लिए, इस ब्लॉगपोस्ट में वह देवी सरस्वती के बारे में उसने बेहद भद्दी बात कही है। उसका यह ब्लॉग किसी बौद्धिक प्रामाणिकता के बजाय हिंदुओं के प्रति उसकी अंधी नफरत की बानगी प्रदर्शित करती है।
वह कहता है:
“, സമൂഹത്തിലെഭക്തിഭ്രാന്ത്കൂടിവരുന്നസാഹചര്യത്തില്സരസ്വതിയുടെമുലകളുടെമുഴുപ്പ്, സരസ്വതിഉപയോഗിക്കുന്നസാരി, ബ്രായുടെബ്രാന്ഡ്തനെയിം, തുടങ്ങിയവസ്തുതകളെക്കുറിച്ച്ചിന്തിക്കുന്നത്പ്രസക്തമാണെന്ന്ബോധോദയമുണ്ടായിരിക്കുന്നു, തുടങ്ങിയവസ്തുതകളെക്കുറിച്ച്ചിന്തിക്കുന്നത്പ്രസക്തമാണെന്ന്ബോധോദയമുണ്ടായിരിക്കുന്നു।”
अनुवाद: “चूँकि समाज में देवताओं के प्रति भक्ति (वह इसे ‘पागलपन’ कहता है) लोकप्रिय हो रही है। इसलिए, मुझे लगता है कि सरस्वती के स्तन के आकार के बारे में साथ ही वह किस ब्रांड के ब्रा और पैंटी का उपयोग करती है, यह सोचना प्रासंगिक है।”
ब्लॉग से एक और बयान:
“ബ്രാഹ്മണന്റെമഹാവിഷ്ണുഎന്നകുണ്ടന്ദൈവത്തിന് (മോഹിനിയാട്ടക്കാരി/രന്) എത്രയോനിയുണ്ടെന്നുംചിത്രകാരന്സന്ദേഹിച്ചുകൊണ്ടിരിക്കുന്നസത്യംകൂടിവെളിപ്പെടുത്തട്ടെ, എത്രയോനിയുണ്ടെന്നുംചിത്രകാരന്സന്ദേഹിച്ചുകൊണ്ടിരിക്കുന്നസത്യംകൂടിവെളിപ്പെടുത്തട്ടെ,”
अनुवाद: “मैं यह भी बता दूँ कि मैं ब्राह्मणों के समलैंगिक भगवान विष्णु के कितने लिंग और योनि के बारे में सोच रहा हूँ।”
अपने ब्लॉग में उसने खुद इस बात को स्वीकारा है कि भक्ति लोकप्रिय हो रही है, इसलिए इसे बदनाम करने के लिए उसने ये सब बातें सोचीं और लिखीं हैं। वास्तव में, सनातन संस्कृति से घृणा ही स्तन कर जैसी कोरी कल्पनाओं को जन्म देती है। फिर, इस कहानी को आगे बढ़ाते हुए जातिवादी चश्मे से देखते है प्रोपेगैंडा तैयार किया जाता है।
प्रोपेगैंडाजीवियों ने इस कहानी को आगे बढ़ाते हुए इस्लामिक आक्रांता टीपू सुल्तान को महान बताते हुए यह हिस्सा भी जोड़ा था कि टीपू ने निचली जातियों के साथ हो रहे अत्याचार को देखते हुए त्रावणकोर के उस राजा पर हमला किया था जो ‘स्तन कर’ वसूला करता था। वास्तव में, यह भी एक झूठी कहानी में गढ़ा गया एक झूठा किस्सा है।
सच्चाई यह है कि टीपू सुल्तान का उद्देश्य त्रावणकोर के हिंदू साम्राज्य पर हमला कर उस पर कब्जा करना था। इसके अलावा, पद्मनाभ मंदिर की विशाल संपत्ति अन्य राज्यों की आँखों में ईर्ष्या का विषय तो थी ही। इसके अलावा, हिंदुओं में जातिगत भेदभाव की स्थिति को दिखाने से धर्मांतरण को भी बल मिलता। इसलिए ही टीपू की निगाह त्रावणकोर पर टिकी हुई थी।