6 दिसंबर 1992 की सुबह भी अयोध्या में सब कुछ सामान्य ही था। किसी ने नहीं सोचा था कि कुछ घंटों में ही राम जन्मभूमि पर खड़े ढाँचे का मलबा भी नहीं बचेगा। उस दिन जो कुछ हुआ वह चमत्कार था…
यह कहना है संत ब्रजमोहन दास का। वे राम-लखन-विश्वामित्र विश्राम आश्रम के महंत हैं। यह आश्रम बिहार के मधुबनी जिले के बिशौल गाँव में स्थित है। 2001 से इस आश्रम के महंत की जिम्मेदारी का निवर्हन कर रहे संत ब्रजमोहन दास मूल रूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से संबंध रखते हैं। महंत ब्रजमोहन दास कहते हैं, “अब मेरी आयु 55-56 के करीब है। 1992 में मैं युवा साधु था। कुछ समय पहले ही दीक्षा लेकर गृहस्थाश्रम का त्याग किया था। नवंबर में ही अयोध्या जी पहुँच गया था। हनुमानगढ़ी में रहता था।”
ऑपइंडिया को उन्होंने बताया, “अयोध्या में कारसेवा का ऐलान विश्व हिंदू परिषद (VHP) की ओर से हो चुका था। हमलोगों को लगता था कि प्रतीकात्मक कार्यक्रम होगा। 6 दिसंबर को तय जगह पर पूजा-अर्चना होगी।” उनके अनुसार 6 दिसंबर के करीब 15 दिन पहले से ही अयोध्या में कारसेवकों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था। पूरे अयोध्या में जिधर देखिए लोग ही नजर आ रहे थे और हर बीतते दिन के साथ संख्या बढ़ती जा रही थी। ऐसा नहीं था कि बाहर से आने वाले सारे लोग कारसेवक ही थे। चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी भी थे। 6 दिसंबर से एक सप्ताह पहले ही अयोध्या जी ऐसी लग रही थी, जैसे कोई छावनी हो। पुलिस की बात छोड़िए कितने केंद्रीय बल अयोध्या में मौजूद थे उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सादी वर्दी में भी सुरक्षाकर्मी थे। इसी तरह उस समय अयोध्या में मौजूद कारसेवकों की संख्या का भी अनुमान लगाना कठिन है।
लगता था कोई बचकर नहीं जा पाएगा
महंत ब्रजमोहन दास बताते हैं कि 1990 में जब कारसेवकों पर फायरिंग हुई थी मैं अयोध्या में नहीं था। लेकिन लोग चर्चा कर रहे थे कि उस समय से कहीं ज्यादा सुरक्षाकर्मी और व्यवस्था कड़ी थी। हमें समझ नहीं आ रहा था कि एक तरफ इतने लोग आ रहे हैं, दूसरी तरफ इतने सुरक्षाकर्मियों को भर दिया है तो क्या होगा। इतने सुरक्षाकर्मी थे कि यदि 90 जैसी कोई बात उस समय हुई होती तो शायद ही कोई अयोध्या से जीवित निकल पाता। हम जैसे युवा साधु कभी-कभी सुरक्षाकर्मियों से पूछ भी लेते थे- मान लीजिए पब्लिक आती है, जन्मभूमि पर जाना चाहती है और वहाँ कुछ करना चाहती है तो आदेश मिलने पर आप गोली चला देंगे? ज्यादातर वे जवाब नहीं देते। पर कभी-कभी कोई सुरक्षाकर्मी कहता था- हम कोई गैर थोड़े हैं। अब उस वक्त देखेंगे क्या आदेश मिलता है। फिलहाल हमलोगों को यहाँ भेज दिया गया है। लेकिन कोई आदेश नहीं है कि क्या करना है। महंत बताते हैं कि ऐसा लगता था कि जिस तरह अयोध्या में रहने वाले हम जैसे लोग अधीर थे कि 6 दिसंबर को क्या होगा, उसी तरह की स्थिति सुरक्षाकर्मियों की भी थी।
व्यवस्था ऐसी जैसे राम राज्य हो
महंत बताते हैं कि अयोध्या आने वाले कारसेवकों के लिए विहिप और अन्य हिंदुवादी संगठनों की तरफ से बहुत बेहतर व्यवस्था की गई थी। कारसेवकपुरम, आश्रमों और अन्य जगहों पर भोजन की व्यवस्था थी। कतार में लेकर भोजन लीजिए और ग्रहण करिए। कारसेवकों के ठहरने के लिए टेंट लगाए गए थे। आश्रमों में कंबल पड़े थे। जिसे जरूरत हो जाइए और उठाकर ले आइए। भोजन ट्रकों में भरकर अयोध्या के बाहर से भी आ रहे थे। बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन पर संघ और आश्रम के लोग लगे थे कि बाहर से आने वाले लोगों को किसी तरह की असुविधा नहीं हो। किसी चीज की कोई कमी नहीं। कहीं कोई रोक टोक नहीं। इतने लोग होने के बावजूद कोई अव्यवस्था नहीं। ऐसा लगता था कि जैसे राम राज्य हो।
जगह-जगह धरपकड़ फिर भी लोग आते ही जा रहे थे
महंत ब्रजमोहन दास बताते हैं कि जैसे-जैसे 6 दिसंबर की तारीख करीब आने लगी खबर आने लगी कि सरकार ने ट्रेन पर रोक लगा दी है। रास्ते में कारसेवकों की गिरफ्तारी हो रही है। उनको रखने के लिए स्कूलों को वैकल्पिक जेल में तब्दील कर दिया गया था। फिर भी लोगों के अयोध्या आने का सिलसिला रुक नहीं रहा था। कोई अपने साधन से आ रहा था तो कोई बस से तो कोई ट्रेन से। लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर, प्रशासन से बच-बचाकर पहुँच रहे थे। चारों दिशाओं से लगातार कारसेवकों का जत्था आता जा रहा था।
भाषा नहीं समझ आती पर जयघोष की ऊर्जा अद्भुत
महंत बताते है कि बड़ी संख्या में कारसेवक दक्षिण भारत से भी आए थे। इनमें माताओं-बहनों की संख्या भी काफी थी। वे कहते हैं, “हमें उनकी भाषा समझ नहीं आती थी। लेकिन स्टेशन पर उतरते ही उनके जयघोष की जो ऊर्जा होती थी, वह अद्भुत थी। हर कोई उनके जोश को देखकर हैरान रह जाता। पूरे अयोध्या में उनके जोश की चर्चा थी। कई बार तो उन्हें इस पर संयम रखने को भी कहना पड़ता था।”
5 दिसंबर 1992 को अयोध्या का माहौल
महंत ब्रजमोहन दास बताते हैं कि एक दिन पहले भी अयोध्या का माहौल देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि 6 दिसंबर को ऐसा कुछ होगा। किसी ने नहीं सोचा था कि कारसेवक जन्मभूमि की ओर जा पाएँगे। अयोध्या का माहौल किसी मेले की तरह था। कहीं कारसेवक तो कहीं सुरक्षाकर्मी। कहीं जयघोष लग रहा है तो कहीं भोजन के लिए कतार लगी है। सब कुछ एकदम सामान्य था। बाजार भी खुले थे। लोगों की दिनचर्या सामान्य ही थी। कोई डर का माहौल नहीं था। चारों तरफ केवल उत्साह दिख रहा था।
…और 6 दिसंबर 1992 को चमत्कार हो गया
महंत बताते हैं कि 6 दिसंबर 1992 की सुबह भी सामान्य थी। पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार ही तैयारियाँ चल रही थी। प्रशासन ने जन्मभूमि की तरफ जाने वाले सारे रास्ते मोटे-मोटे बल्लियों और कँटीले तारों से बंद कर रखा था। यह घेरा भी कई राउंड का था। किसी भी तरह वहाँ नहीं पहुँचा सकता था। सुरक्षाकर्मियों की एक बस हनुमानगढ़ी के पास खड़ी थी। उसके भीतर सुरक्षाकर्मी नहीं थे। मैं नहीं जानता कि वे साधु कौन थे। देखने में एकदम दुबले-पतले से। वे उस बस में चढ़ गए और स्टेयरिंग सँभाल ली। अचानक से बस को तेजी से जन्मभूमि की ओर लेकर चल पड़े। बस बल्लियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ रही थी। पीछे-पीछे भीड़ भी चल पड़ी जो देखते-देखते अनियंत्रित हो गई।
मौके पर ही बन गए तीन दल
महंत ब्रजमोहन दास ने बताया, “जब कुछ कारसेवक विवादित ढाँचे पर चढ़ गए तो मौके पर ही रणनीति बनाते हुए तीन दल तैयार किए गए। एक दल विवादित ढाँचे की ओर बढ़ा। दूसरे दल को लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई। तीसरे दल के जिम्मे था यदि प्रशासन कोई कार्रवाई करती है, फायरिंग करती है तो उससे निपटते हुए लोगों की सुरक्षा करनी।” यह पूछे जाने पर कि इस रणनीति को तैयार करने वाले कौन थे, वे बताते हैं, “सब कुछ मौके पर अचानक से हुआ। इसमें कोई चर्चित व्यक्ति शामिल नहीं था। सभी सामान्य कारसेवक थे। एक-दूसरे को जानते भी नहीं थे।” वे बताते हैं कि साधु के बस को लेकर आगे बढ़ने के चार से पाँच घंटे के भीतर ही ढाँचे का मलबा तक नहीं बचा था।
आज भी वह दृश्य याद आता है तो अचंभित रह जाता हूँ
महंत कहते हैं, “उस दिन कुछ पल पहले जन्मभूमि पर एक ढाँचा खड़ा था और अगले कुछ क्षण में एक रोड़ी भी नहीं बची थी। जन्मभूमि तक लोगों को पहुँचने से रोकने के लिए जो कँटीले तार लगाए गए थे वह इतने तेज थे कि शरीर के जिस हिस्से से संपर्क हो उसे काट दे। आप विश्वास नहीं करेंगे। लेकिन मैंने वह देखा है। आज भी वह दृश्य याद आता है तो अचंभित रह जाता हूँ। कारसेवकों ने नंगे हाथों से उन तारों को उखाड़ फेंका था। ऐसा हुआ था आज भी भरोसा नहीं होता।”
जब यह सब हो रहा था सुरक्षाकर्मी कहाँ थे?
महंत के अनुसार उस दिन सुरक्षाकर्मियों की हालत वैसी ही हो गई थी जैसी भगवान कृष्ण के जन्म के समय कारागार के पहरेदारों की हो गई थी। उनकी स्थिति देखकर लग रहा था कि उन्हें उम्मीद नहीं थी ऐसा कुछ होगा। प्रशासन बेसुध था। उन्होंने ढाँचे के चारों तरफ एक किलोमीटर का जो घेरा बल्लियों और कँटीले तारों से बना रखा था, उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी कि कोई एक क्षण में उसके पार निकल जाएगी।
प्रभु कृपा क्या होती है, उससे पूछिए जो उस दिन अयोध्या में था
महंत बताते हैं कि बिना अस्त्र-शस्त्र के ढाँचा तोड़ना, बल्लियों और कँटीले तारों के घेरे को हटा देना असंभव था। यदि प्रशासन अपने संसाधनों से उस घेरे को हटाता तो उसे महीनों लगते। वे बताते हैं कि कारसेवक फिर धीरे-धीरे वहीं लौट गए जहाँ से आए थे। तब एक युवा साधु रहे महंत भी करीब एक महीने बाद अयोध्या से वृंदावन के लिए निकल गए थे। उनके अनुसार, “6 दिसंबर को जो कुछ हुआ उसके बाद से उत्साह और खुशी पूरे अयोध्या में साफ दिख रही थी। चमत्कार क्या होता है, प्रभु कृपा क्या होती है यह वही बता सकता है जो उस दिन अयोध्या में मौजूद था।”