चीन में ब्यूबॉनिक प्लेग (Bubonic plague) के संदिग्ध पाए गए मरीजों के बाद वहाँ कई जगहों पर हाई अलर्ट है। चाइना डेली के अनुसार मंगोलिया में अधिकारियों ने प्लेग के रोकथाम और नियंत्रण के तीसरे स्तर की घोषणा साल 2020 के अंत तक कर दी है।
रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि गिलहरी का माँस खाने के कारण यह प्लेग एक 27 वर्षीय युवक और उसके 17 वर्षीय भाई में पाया गया।
लैब द्वारा इन केसों की पुष्टि के बाद ही वहाँ के स्वास्थ्य अधिकारी इस पर सचेत हुए और इलाके में मीट न खाने की अपील की गई। अभी तक इन दोनों युवकों के संपर्क में आने वाले 146 लोगों को आइसोलेट करके उनका इलाज किया जा रहा है।
अब हालाँकि पूरी दुनिया पहले से ही कोरोना की मार के कारण पस्त हो चुकी है। उस बीच में ऐसी बीमारी के अस्तित्व में आने की बात वाकई भयभीत करने वाली है। मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर इसे लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं।
कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि ब्यूबॉनिक प्लेग न केवल कोरोना से भी खतरनाक है बल्कि इसमें मृत्यु दर का आँकड़ा कोरोना से 3-4 गुणा ज्यादा होता है। ये बीमारी ऐसी है कि एक समय में इसके कारण कई करोड़ लोगों ने अपनी जान गँवा दी थी।
This news from Inner Mongolia, China should make us shiver.
— !ns0mn!@c n0m@d (@insomniacnomad) July 6, 2020
Wuhan virus is an amateur in front of Bubonic plague. CFR is 3-4 times.
Bubonic plague wiped out 25% to 60% of European population in 14th century with 75-200 million deaths.
Plague is most dangerous bcoz of its speed pic.twitter.com/OSTg07uYwD
अब आखिर इन बातों में क्या सच्चाई है? और ब्यूबॉनिक प्लेग क्या है? इसकी शुरुआत कहाँ से हुई थी? आज इन्हीं कुछ सवालों के जवाब हम आपको देने जा रहे हैं।
ब्यूबॉनिक प्लेग को वैसे ब्लैक डेथ भी कहा जाता है। हम इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि चीन में इसके अभी तक दो मरीज दिखे हैं और तुरंत वहाँ पर अलर्ट जारी कर दिया गया है।
ऐसा इसलिए क्योंकि ये प्लेग नया नहीं है। इससे पहले भी ब्यूबॉनिक प्लेग फैला था और उस समय पीपीई किट मौजूद नहीं हुआ करती थे। जिसके कारण लोगों को चिड़िया की तरह चोंच वाले मास्क पहनने पड़ते थे।
कहाँ से, किससे और कैसे शुरु हुआ ब्यूबॉनिक प्लेग
ये बात सन् 1347 की है। यही वो वर्ष था जब ब्यूबॉनिक प्लेग तेजी से फैला। इतिहास के पन्नों में इसे सबसे संक्रामक बीमारी माना जाता है। कुछ रिपोर्ट्स यह भी दावा करती हैं कि इस दौरान 20 करोड़ (200 मिलियन) लोग मरे। तो कुछ यह बताती हैं कि पिछली 2 सदी में इससे 5 करोड़ (50 मिलियन) तक की जानें गईं।
कारण? लोगों को उस समय इस प्लेग के बारे में खासी जानकारी नहीं थी। पता था तो बस ये कि ये बीमारी बेहद संक्रामक है और ये मरीज से निकलने वाली दूषित हवा के कारण होती है। जिसे Miasma कहते हैं।
हालाँकि, कुछ समय बाद इस बात का खंडन किया गया कि ब्यूबॉनिक प्लेग हवा से नहीं फैलता। बल्कि इसके फैलने का कारण येर्सिनिया पेस्टिस बैक्टीरिया है। जिससे सेप्टिकैमिक प्लेग और न्यूमोनिक प्लेग भी होता है।
ये बैक्टेरिया चूहे, खरगोश, गिलहरी आदि से फैलता है। मगर ये इतना खतरनाक होता है कि यदि एक वयस्क का समय पर इलाज न किया जाए तो यह उस वयस्क को मात्र 24 घंटे के भीतर मार सकता है।
इस बीमारी से जुड़े आँकड़े बताते हैं कि इसका मृत्यु दर अनुपात 30% से लेकर 60% है। वहीं सेप्टिकैमिक प्लेग और न्यूमोनिक प्लेग तो ऐसी बीमारियाँ हैं, जहाँ मृत्यु दर 100 प्रतिशत तक पहुँचा हुआ है।
इस बैक्टेरिया से होने वाली बीमारियों में संक्रमित व्यक्ति के मुर्गी की अंडे जितनी बड़ी गाँठे पड़ जाती है। उसे बुखार आता है, खराश होती है, पसलियों में दर्द होता है इत्यादि।
इस बैक्टेरिया के कारण जो गाँठ शरीर में उभरी दिखती हैं, उन्हें ब्यूबोस कहा जाता है। इनमें मरीज के शरीर में पस का भरना और खून निकलना आम बात होती है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति इससे संक्रमित होता है, उसमें ये सभी लक्षण संक्रमण होने के 1-7 दिन में दिखने लगते हैं। साथ ही संक्रमित व्यक्ति से यह 5-7 लोगों में फैलने का खतरा होता है।
इंटरनेट पर ब्लैक डेथ पर मौजूद जानकारी के अनुसार, इस बीमारी ने 1347 से लेकर 1351 तक जनजीवन को बहुत प्रभावित किया। स्थिति ऐसी थी कि शायद किसी भी अन्य बीमारी ने इतने लोगों को तब तक कभी मारा हो।
रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस प्लेग की शुरुआत भी चीन से हुई थी। लेकिन जहाजों के जरिए यह बाद में यह फैलते-फैलते अन्य देशों तक पहुँच गया। इस महामारी को लेकर अनुमान है कि उस वक्त इसकी वजह से यूरोप की लगभग 25-60 प्रतिशत आबादी का सफाया हो गया था और 5 करोड़ लोगों की मौत हुई थी।
इस महामारी को लेकर लोगों में भ्रम बैठ गया था कि यह सब ईश्वर के प्रकोप के कारण हो रहा है। यानी ईश्वर किसी बात से नाराज है। जिसके कारण ये महामारी फैली।
भारत में भी दी थी इस प्लेग ने दस्तक
यहाँ बता दें कि ब्यूबॉनिक प्लेग का असर भारत में भी देखने को मिला था। सबसे पहले भारत में इससे जुड़ा मामला 23 सितंबर 1896 को बॉम्बे में रिपोर्ट किया गया था। ये भारत में तीसरे प्लेग के रूप में देखा गया था। कलकत्ता, कराची, पंजाब समेत कई बंदरगाह वाले राज्यों में यह संक्रमण जहाजों के जरिए पहुँचा था।
इसने उस समय भारत के करीब 1.2 करोड़ लोगों को अपनी चपेट में लिया। इसके बाद स्थिति को संभालने के लिए यहाँ महामारी रोग अधिनियम 1897 बना। इस अधिनियम में खतरनाक बीमारी रोग के रूप में विशेष उपाय और नियमों की निर्धारित करने की शक्ति थी।
इस कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने उन संक्रमित जगह व प्रॉपर्टी को विध्वंस करने में उपयोग किया। इसके बाद साल 1994 में यर्सेनिया नाम के बैक्टेरिया ने भारत पर एक बार फिर हमला बोला। मगर इस बार यह विषाणु ब्यूबॉनिक प्लेग नहीं, बल्कि निमोनिया लेकर आया।
आज क्या है प्लेग का इलाज
प्लेग के शुरुआती में इसका कोई इलाज नहीं था। उस समय लोग गिल्टियों पर उबलता पानी डालकर गाँठों को पिघलाने का प्रयास करते थे। या फिर गर्म सलाख से उन्हें दागते थे।
मगर, विज्ञान क्षेत्र में तरक्की के बाद कई ऐसी एंटीबॉयोटिक्स इस समय दुनिया में मौजूद हैं, जिनसे इस संक्रमण को महामारी बनने से पहले रोका जा सकता है। साथ ही बीमार व्यक्ति को उपयुक्त उपचार भी दिया जा सकता है।
हालाँकि इन दवाइयों को लेकर यह कहना मुश्किल होता है कि इनसे पूरी तरह प्लेग खत्म होता है या नहीं। लेकिन WHO के डेटा पर गौर करें तो हर साल प्लेग 1000 से 2000 लोगों में होता है। बावजूद इसके कि इसके लिए कोई प्रभावी वैक्सीन नहीं है। अब डॉक्टर्स इसे फैलने से रोकने में सक्षम होते हैं और ये बड़ी महामारी का रूप नहीं ले पाता।