यूँ तो मंदिरों के सरंक्षण को लेकर मद्रास हाई कोर्ट का हालिया फैसला 224 पन्नों का है। 75 निर्देशों का एक सेट तमिलनाडु सरकार को जारी किया गया है। मकसद यह सुनिश्चित करना है कि राज्य में प्राचीन मंदिरों और स्मारकों का रखरखाव उचित तरीके से हो। इस फैसले का लब्बोलुबाब यह है कि हाई कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि मंदिरों की जो जमीन है, उनका जो पैसा है, वह उन पर ही खर्च किया जाना चाहिए।
इस फैसले से मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए चलाए जा रहे अभियान को नई उर्जा मिलेगी। तमिलनाडु में तो इस अभियान को अच्छा-खासा समर्थन हासिल है। राज्य में हजारों की संख्या में मंदिर हैं और सरकारी नियंत्रण में इन मंदिरों की लगातार उपेक्षा हो रही है जो हाई कोर्ट के फैसले से भी स्पष्ट होती है।
सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने प्रमुख रूप से तमिलनाडु में हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की मुहिम शुरू की। #FreeTNTemples नाम की इस जन सहयोग आधारित मुहिम से देश के लाखों लोग जुड़े। इस मुहिम में वीरेंद्र सहवाग, कंगना रनौत, रवीना टंडन, मोहनदास पाई और मौनी रॉय जैसे कई सेलिब्रिटीज भी शामिल हुए। हालाँकि सद्गुरु की यह मुहिम तमिलनाडु के लिए ही थी लेकिन इसके बाद पूरे देश में हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की माँग ने जोर पकड़ रखा है।
ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि हिन्दू मंदिरों और संस्थाओं के प्रबंधन एवं नियंत्रण से संबंधित वो कौन से मुद्दे हैं जिनका समाधान किया जाना जरूरी है? भारत का संविधान किस तरीके से हिंदुओं को अपने मंदिरों और उनकी संपत्तियों के संचालन का अधिकार देता है?
संविधान मे वर्णित प्रमुख प्रावधान
भारतीय संविधान का ‘अनुच्छेद 14’ ‘विधि के समक्ष समता एवं विधियों के समान संरक्षण’ से संबंधित है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘भारत के राज्य क्षेत्र’ में किसी भी व्यक्ति को ‘विधि के समक्ष समता एवं विधियों के समान संरक्षण’ से वंचित नहीं किया जाएगा। व्यक्ति का तात्पर्य एक विधिक व्यक्ति से है। इसमें संस्थाएँ, कंपनियाँ, निगम इत्यादि सम्मिलित हैं। व्यक्ति की इस संवैधानिक परिभाषा के आधार पर भगवान (अयोध्या मामले में रामलला भी एक पक्षकार के रूप में थे) को भी एक विधिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है।
‘अनुच्छेद 25’ ‘धर्म की स्वतंत्रता’ की व्याख्या करता है। इस प्रावधान में अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को निर्बाध रूप में मानने, उसके आचरण और प्रसार का अधिकार (धर्मांतरण का नहीं) सम्मिलित है। अंतःकरण की स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को भगवान तथा उसके रूपों के साथ अपने ढंग से अपने संबंध बनाए रखने की स्वतंत्रता प्राप्त है। आचरण के अधिकार के अंतर्गत धार्मिक पूजा, परंपरा इत्यादि शामिल है।
इसी श्रृंखला में संविधान का ‘अनुच्छेद 26’ महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह धर्म से जुड़े कार्यों के प्रबंधन और धार्मिक संस्थाओं के पोषण से संबंधित है। ‘अनुच्छेद 26’ के अंतर्गत ‘प्रत्येक धर्म’ और उसके ‘किसी नागरिक अनुभाग’ को निम्न अधिकार प्राप्त हैं,
- धार्मिक कार्यों के लिए संस्थाओं की स्थापना एवं पोषण का अधिकार
- अपने धर्म से संबंधित कार्यों के प्रबंधन का अधिकार
- संपत्तियों के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार
- संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार
‘अनुच्छेद 29’ अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच के अंतर को नकारता है। इस अनुच्छेद में व्यवस्था की गई है कि भारत के किसी भी भाग में रहने वाले ‘नागरिकों के किसी भी अनुभाग’ को अपनी बोली, भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है। ‘नागरिकों के अनुभाग’ की व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि इसमें केवल अल्पसंख्यक नहीं, अपितु बहुसंख्यक भी शामिल हैं। यह अनुच्छेद इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में हिंदुओं के अलावा अन्य सभी समुदायों को उनके पंथ और मजहब से संबंधित निर्णय लेने की स्वतंत्रता है।
हालाँकि ‘अनुच्छेद 30’ अल्पसंख्यकों से संबंधित है, किन्तु इस अनुच्छेद में यह विशेष रूप से कहा गया है कि ‘अनुच्छेद 30’ के अंतर्गत अल्पसंख्यकों को मिले अधिकार केवल बहुसंख्यकों के साथ समानता स्थापित करने के लिए हैं न कि इसलिए कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के मुकाबले अधिक लाभ की स्थिति में रख दिया जाए।
किस प्रकार मंदिर दुर्दशा के शिकार हुए
महाराष्ट्र में लगभग 4000 से अधिक ऐसे मंदिर हैं जो सरकार के नियंत्रण में है। इनमें पंढ़रपुर के विट्ठल महाराज का मंदिर, सिद्धिविनायक, कोल्हापुर का महालक्ष्मी जैसे बड़े मंदिर शामिल हैं। महाराष्ट्र में कई हिन्दू संगठन मंदिरों में व्याप्त भ्रष्टाचार और मंदिरों की भूमि के घोटालों का मुद्दा उठाते रहते हैं। इन संगठनों के अनुसार ‘पश्चिम महाराष्ट्र देवस्थान समिति’, जो कि सरकार द्वारा प्रशासित है, सिंधुदुर्ग, कोल्हापुर और सांगली में लगभग 3067 मंदिरों को नियंत्रित करती है। इस समिति के रहते हुए लगभग 8000 एकड़ मंदिरों की भूमि माफियाओं के अवैध कब्जे में जा चुकी है। संगठनों द्वारा यह आरोप भी लगाया गया कि पंढ़रपुर में विट्ठल महाराज के मंदिर को लगभग 1200 एकड़ जमीन भक्तों से दान में मिली थी, किन्तु जब अपने स्तर पर जाँच की गई तब मंदिर ट्रस्ट के स्वामित्व में एक इंच भी भूमि नहीं थी।
कर्नाटक में 2002 में कॉन्ग्रेस सरकार थी। लगभग 2,07,000 मंदिरों से कर्नाटक की सरकार को राजस्व के रूप में 72 करोड़ रुपए प्राप्त हुए, जिसमें से पुनः 10 करोड़ मंदिरों को मेंटेनेंस इत्यादि के लिए वापस किए गए। रिपोर्ट्स के अनुसार शेष बचे हिस्से में से 50 करोड़ रुपए मदरसों और 10 करोड़ रुपए चर्चों को ग्रांट के रूप में दे दिए गए। हिन्दू जन जागृति समिति की उसी रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक में संसाधनों की कमी के चलते लगभग 50,000 मंदिर बंद हो गए।
तमिलनाडु में मंदिरों की दुर्दशा के विषय में सद्गुरु अपनी एक फेसबुक पोस्ट में बताते हैं। उनके अनुसार तमिलनाडु में 10,000 से अधिक मंदिर विलुप्त होने के कगार पर हैं, क्योंकि वहाँ कोई भी पूजा करने वाला नहीं है। 34,000 ऐसे मंदिर हैं जिन्हें सालाना 10,000 रुपए (833 रुपए प्रतिमाह और 28 रुपए दैनिक) का बजट दिया जाता है। 37,000 मंदिरों की पूजा, सुरक्षा और प्रबंधन की जिम्मेदारी मात्र एक ही व्यक्ति के हाथ में है। एक सर्वे के अनुसार मंदिरों की स्वामित्व वाली 5.25 लाख एकड़ भूमि में से अब 4.78 लाख एकड़ भूमि ही शेष है। मद्रास उच्च न्यायालय ने हिन्दू धार्मिक एवं चैरिटेबल एंडोमेन्ट विभाग को कम से कम 50,000 एकड़ भूमि पुनः प्राप्त कर मंदिरों को लौटने का आदेश दिया था।
पलनि के ‘दण्डायुधपाणि स्वामी मंदिर’ का एक उदाहरण देखते हैं। मुरूगन स्वामी के इस मंदिर की हुंडी में दान स्वरूप प्राप्त धन एक बैंक अकाउंट में जमा किया जाता है। इस राशि का 14% प्रशासनिक फीस और 4% भाग ऑडिट फीस के रूप में लिया जाता है। इसके पश्चात 25%-40% हिस्सा वेतन में एवं दैनिक पूजा तथा त्योहारों के लिए मात्र 1-2 फीसदी राशि खर्च की जाती है। हुंडी मे इकट्ठा हुई राशि में से 4%-10% भाग ‘कमिश्नर कॉमन गुड फंड’ में चला जाता है जिसका उपयोग सरकार द्वारा चलाई गई कुछ मुफ्त की योजनाओं में होता है।
केरल में सबसे बड़ा मुद्दा देवस्वोम बोर्ड में सदस्यों की नियुक्ति का है। केरल में मंदिरों के प्रबंधन, प्रशासन एवं अन्य संबंधित क्रियाकलापों के लिए चार प्रमुख देवस्वोम बोर्ड हैं। इन बोर्ड्स के अधिकार क्षेत्र में गुरुवायूर, सबरीमाला, एत्तुमन्नूर शिव मंदिर जैसे कई बड़े मंदिर आते हैं। त्रावणकोर और मालाबार देवस्वोम बोर्ड के अधिकार क्षेत्र में ही लगभग 2577 मंदिर हैं। इन बोर्ड्स में सदस्यों की नियुक्ति के मामले में केरल की अब तक की सरकारों की भूमिका संदिग्ध रही है।
जब वामपंथी सरकार में रहे तो उन्होंने अपनी ही पार्टी के सदस्यों की नियुक्ति बोर्ड में की और जब कॉन्ग्रेस शासन में रही तो उसने अपने वोट बैंक को साधने के लिए इन देवस्वोम बोर्ड्स का सहारा लिया। त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड में अध्यक्ष और दो अन्य सदस्यों का चयन केरल सरकार द्वारा किया जाता है, जो केरल सरकार के मंत्री समूह और विधानसभा सदस्यों से संबंधित होते हैं।
गुरुवायूर देवस्वोम बोर्ड में प्रशासन की देखरेख के लिए प्रशासक की नियुक्ति भी केरल सरकार द्वारा की जाती है। इन मंदिरों की ‘हुंडी’ से प्राप्त दान की राशि धर्म के कार्यों को छोड़कर ‘विकास और निर्माण’ कार्यों के लिए खर्च की जाती है। ऐसे ही मामलों में मद्रास हाई कोर्ट का निर्णय महत्वपूर्ण है जो यह कहता है कि मंदिर की संपत्ति के मामले में सार्वजनिक उद्देश्यों के सिद्धांत का कोई उपयोग नहीं है।
आंध्रप्रदेश में भी पिछले वर्ष सरकार ने तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (TTD) के माध्यम से भगवान वेंकटेश्वर की 50 संपत्तियों की नीलामी का निर्णय लिया। ये संपत्तियाँ आंध्रप्रदेश के अतिरिक्त तमिलनाडु और ऋषिकेश में स्थित है। इन संपत्तियों की नीलामी के माध्यम से 24 करोड़ रुपए अर्जित किए जाने की संभावना थी, किन्तु भाजपा नेताओं और हिन्दू संगठनों के विरोध के कारण सरकार को यह निर्णय वापस लेना पड़ा।
भारत में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लाने की एक निरंतर प्रक्रिया रही। ईस्ट इंडिया कंपनी ने सबसे पहले मंदिरों पर अधिकार स्थापित करने के लिए ‘मद्रास रेगुलेशन-1817’ पारित किया जिसका विरोध होने पर 1840 में इसे वापस ले लिया गया। 1863 में एंडोवमेंट ऐक्ट लाया गया जिसके माध्यम से मंदिरों के अधिकार ट्रस्टी को सौंप दिए गए जो ब्रिटिश ही थे।
इसके पश्चात अंग्रेजी सरकार भारत में धार्मिक संस्थानों पर अपना कब्जा स्थापित करने के लिए ‘द मद्रास रिलीजियस एण्ड चैरिटेबल एंडोवमेंट ऐक्ट-1925’ लेकर आई जिसे मुस्लिमों और ईसाइयों के विरोध के कारण पुनः वापस लेना पड़ा। अंततः ‘मद्रास हिन्दू रिलीजियस एण्ड एंडोवमेंट ऐक्ट-1927’ अस्तित्व में आया, जिसमें 1935 में कई बड़े बदलाव हुए।
स्वतंत्रता के बाद 1951 में तमिलनाडु सरकार के द्वारा ‘हिन्दू रिलीजियस एण्ड एंडोवमेंट ऐक्ट’ पास किया गया। 1959 में इसी कानून में संशोधन करते हुए तत्कालीन कॉन्ग्रेस राज्य सरकार ने ‘हिन्दू रिलीजियस एण्ड चैरिटेबल एंडोवमेंट ऐक्ट’ बनाया जिसके अंतर्गत राज्य में एक ‘हिन्दू रिलीजियस एण्ड चैरिटेबल एंडोवमेंट विभाग’ होने लगा जिसका प्रमुख कमिश्नर को नियुक्त किया जाता है।
भारत में मंदिरों पर तो सरकारी नियंत्रण है किन्तु मस्जिद और चर्च पूर्ण रूप से स्वशासी हैं। सरकार, गैर-हिन्दू धार्मिक संस्थानों पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं रख सकती है। हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त सभी धार्मिक संस्थाओं को प्रबंधन, प्रशासन एवं नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। उदाहरण के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ एवं हिमाचल प्रदेश में गुरुद्वारों के प्रबंधन एवं प्रशासन के लिए सिखों की समितियाँ बनी हुई हैं, जिनमें सदस्य भी सिख होंगे और उन्हें चुनने वाले भी।
दिल्ली में गुरुद्वारों के प्रबंधन एवं प्रशासन के लिए ‘दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी (DSGMC)’ है जो एक स्वशासी संस्था है। इस कमेटी की नियुक्ति चुनाव से होती है जिसमें मतदाता मात्र सिख होते हैं। चुनाव भले ही सरकार की निगरानी में होते हैं किन्तु सरकार का कमेटी की कार्यप्रणाली में कोई दखल नहीं है। इसी प्रकार पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश में गुरुद्वारों और सिख धार्मिक संस्थाओं के लिए ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी’ है जो ‘सिख गुरुद्वारा ऐक्ट, 1925’ के तहत स्थापित की गई।
मद्रास हाई कोर्ट के अलावा मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के मामले में 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया एक निर्णय भी अहम है। मामला तमिलनाडु के चिदंबरम में स्थित 1500 वर्ष पुराने नटराज मंदिर का था। मद्रास हाई कोर्ट के 2009 के निर्णय को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि ‘नटराज मंदिर’ को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। इस निर्णय के बाद यह माना गया कि भविष्य में तमिलनाडु के 45,000 मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त होकर भक्तों के पास जा सकते हैं और मंदिरों की जो संपत्तियाँ अवैध रूप से हथिया ली गई हैं, उन्हें भी मुक्त कराने का प्रयास किया जा सकता है।
भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान किसी भी धर्म को भारत के राज्य धर्म के रूप में मान्यता नहीं देता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। किन्तु मंदिरों को सरकारी दया पर छोड़ने वाला ‘हिन्दू रिलीजियस एण्ड चैरिटेबल एंडोवमेंट ऐक्ट’ पूर्ण रूप से भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव के विपरीत है और हिंदुओं को अपनी धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन और प्रशासन से रोकता है।