100 साल से धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन कर उन्हें देश-विदेश तक पहुँचाने का माध्यम बनने वाली गीता प्रेस को साल 2021 के लिए गाँधी शांति पुरस्कार मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए उन्हें बधाई भी दी। लेकिन कॉन्ग्रेसी नेता जयराम रमेश समेत कई अन्य इससे किलस गए और उन्होंने गीता प्रेस को अवार्ड मिलने को कहा कि ये बिलकुल ऐसा है जैसे सावरकर या गोडसे को सम्मान मिला हो।
Is anyone surprised with the attack by Anti hindu Congress on Gita Press
— Shehzad Jai Hind (@Shehzad_Ind) June 19, 2023
Had it been say “xyz press” they would have lauded it but because it’s Gita – Congress has a problem
Congress finds Muslim league as secular but Gita Press is communal ; Zakir Naik is shanti ka messiah but… https://t.co/ulqIRL96g1
जयराम रमेश के ट्वीट पर उन्हें सोशल मीडिया यूजर्स खूब लताड़ लगा रहे हैं। भाजपा नेता शहजाद जय हिंद ने कहा कि हैरानी नहीं हो रही कि कॉन्ग्रेसियों को गीता प्रेस से दिक्कत है। अगर ये कोई और प्रेस होती तो इसकी प्रशंसा होती है लेकिन गीता प्रेस के कारण इन्हें समस्या है। कॉन्ग्रेस को मुस्लिम लीग सेकुलर लगती है मगर गीता प्रेस कम्युनल है। जाकिर नाइक शांति का मसीह है पर गीता प्रेस सांप्रदायिक है। कॉन्ग्रेस को चाहिए कर्नाटक में गाय कटे। ये गीता को जिहाद से जोड़ते हैं। प्रभु श्रीराम और राम मंदिर का विरोध करते हैं।
इसी तरह राजद प्रवक्ता मनोज झा ने भी गीता प्रेस को गाँधी पीस प्राइज दिए जाने पर सवाल खड़े किए और कहा कि सरकार पूर्ण रूम से गाँधी विरोधी है। सरकार को चाहिए कि वो गीता प्रेस को जितना मन हो उतना पैसा दें। लेकिन गाँधी के नाम पर न दें। राजद प्रवक्ता का ऐसा भ्रामक बयान तब आया है जब गीता प्रेस ये बात स्पष्ट कर चुका है कि उन्हें गाँधी शांति पुरस्कार-2021 स्वीकार है लेकिन वो इसके साथ मिलने वाली एक करोड़ रुपए की राशि नहीं लेंगे
VIDEO | "Don't expect things which this government does not. They are fundamentally anti-Gandhi," RJD spokesperson Manoj Jha attacks Centre for conferring Gandhi Peace Prize 2021 to Gita Press. pic.twitter.com/8ZcsJvuIGN
— Press Trust of India (@PTI_News) June 19, 2023
बता दें कि गीता प्रेस को वर्ष 2021 का गाँधी शांति पुरस्कार दिया गया है। यहाँ धार्मिक किताबें प्रकाशित होती हैं और एक बार इनपर जिल्द चढ़ने के बाद इन्हें कभी जमीन पर नहीं रखा जाता। इन्हें रखने के लिए लकड़ी के फट्टे हैं। इसके अलावा इन्हें मशीन से नहीं हाथों से चिपकाया जाता है क्योंकि बाजार में बिकने वाली गोंद में जानवरों से जुड़ी चीजें मिली होती हैं। गीताप्रेस सालाना 2 करोड़ से ज्यादा पुस्तक छापकर देश विदेश भेजती है। 100 सालों में प्रेस ने 41 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें छापी हैं।
विख्यात @GitaPress गीता प्रेस गोरखपुर को वर्ष 2021 का गाँधी शांति पुरस्कार दिया जाएगा ।
— MANOGYA LOIWAL मनोज्ञा लोईवाल (@manogyaloiwal) June 18, 2023
लेकिन क्या आप ये जानते है कि वहाँ छपने वाली धार्मिक पुस्तकों को कभी भी जमीन पर नहीं रखा जाता है और आज भी मशीन से नहीं बल्कि हाथ से ही
पुस्तकों को चिपकाया जाता है !
हमें गर्व होना चाहिए… pic.twitter.com/Y91EPGoxLb
घर-घर गीता प्रेस पहुँचाने वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार
उल्लेखनीय है कि आज गीता प्रेस द्वारा करोड़ों की तादाद में प्रकाशित की जा रही किताबें हर साल बिकती हैं। लोग केवल गीता प्रेस लिखा होने भर से उसे खरीद लेते हैं। मगर इसके प्रति इतना विश्वास लोगों में यूँ ही नहीं बना। साल 1923 में इसकी शुरुआत होने के बाद ये धीरे-धीरे लोगों तक पहुँची और इसे घर-घर तक पहुँचाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वो हनुमान प्रसाद पोद्दार हैं। जिन्होंने अलीपुर जेल में श्री ऑरोबिंदो (उस समय बाबू ऑरोबिंदो घोष) के साथ बंद रहते हुए जेल में ही गीता का अध्ययन शुरू कर दिया था।
वहीं से छूटने के बाद उनका ध्यान इस बात पर गया कि कैसे कलकत्ता ईसाई मिशनरी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था, जहाँ बाइबिल के अलावा ईसाईयों की अन्य किताबें भी, जिनमें हिन्दुओं की धार्मिक परम्पराओं के लिए अनादर से लेकर झूठ तक भरा होता था, सहज उपलब्ध थीं। लेकिन गीता- जो हिन्दुओं का सर्वाधिक जाना-माना ग्रन्थ था, उसकी तक ढंग की प्रतियाँ उपलब्ध नहीं थीं। इसीलिए बंगाली तेज़ी से हिन्दू से ईसाई बनते जा रहे थे।
1926 में हुए मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के दिल्ली अधिवेशन में पोद्दार की मुलाकात सेठ घनश्यामदास बिड़ला से हुई, जिन्होंने आध्यात्म में पहले ही गहरी रुचि रखने वाले पोद्दार को सलाह दी कि जन-सामान्य तक आध्यात्मिक विचारों और धर्म के मर्म को पहुँचाने के लिए आम भाषा (आज हिंदी, उस समय की ‘हिन्दुस्तानी’) में एक सम्पूर्ण पत्रिका प्रकाशित होनी चाहिए। पोद्दार ने उनके इस विचार की चर्चा जयदयाल गोयनका से की, जो उस समय तक गोबिंद भवन कार्यालय के अंतर्गत गीता प्रेस नामक प्रकाशन का रजिस्ट्रेशन करा चुके थे।
गोयनका ने पोद्दार को अपनी प्रेस से यह पत्रिका निकालने की ज़िम्मेदारी दे दी, और इस तरह ‘कल्याण’ पत्रिका का उद्भव हुआ, जो तेज़ी से हिन्दू घरों में प्रचारित-प्रसारित होने लगी। आज कल्याण के मासिक अंक लगभग हर प्रचलित भारतीय भाषा और इंग्लिश में आने के अलावा पत्रिका का एक वार्षिक अंक भी प्रकाशित होता है, जो अमूमन किसी-न-किसी एक पुराण या अन्य धर्मशास्त्र पर आधारित होता है।
गीता प्रेस की स्थापना के पीछे का दर्शन स्पष्ट था- प्रकाशन और सामग्री/जानकारी की गुणवत्ता के साथ समझौता किए बिना न्यूनतम मूल्य और सरलतम भाषा में धर्मशास्त्रों को जन-जन की पहुँच तक ले जाना। हालाँकि गीता प्रेस की स्थापना गैर-लाभकारी संस्था के रूप में हुई, लेकिन गोयनका-पोद्दार ने इसके लिए चंदा लेने से भी इंकार कर दिया, और न्यूनतम लाभ के सिद्धांत पर ही इसे चलाने का निर्णय न केवल लिया, बल्कि उसे सही भी साबित करके दिखाया। 5 साल के भीतर गीता प्रेस देश भर में फ़ैल चुकी थी, और विभिन्न धर्मग्रंथों का अनुवाद और प्रकाशन कर रही थी। गरुड़पुराण, कूर्मपुराण, विष्णुपुराण जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन ही नहीं, पहला शुद्ध और सही अनुवाद भी गीता प्रेस ने ही किया।
बम्बई से आई गोरखपुर, गोरखधाम बना संरक्षक
गीता प्रेस ने श्रीमद्भागवत गीता और रामचरितमानस की करोड़ों प्रतियाँ प्रकाशित और वितरित की हैं। इसका पहला अंक वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ, और एक साल बाद इसे गोरखपुर से ही प्रकाशित किया जाने लगा। उसी समय गोरखधाम मन्दिर के प्रमुख और नाथ सम्प्रदाय के सिरमौर की पदवी को प्रेस का मानद संरक्षक भी नामित किया गया- यानी आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और नाथ सम्प्रदाय के मुखिया योगी आदित्यनाथ गीता प्रेस के संरक्षक हैं।
गीता प्रेस की सबसे खास बात है कि इतने वर्षों में कभी भी उस पर न ही सामग्री (‘content’) की गुणवत्ता के साथ समझौते का इलज़ाम लगा, न ही प्रकाशन के पहलुओं के साथ- वह भी तब जब 60 करोड़ से अधिक प्रतियाँ प्रेस से प्रकाशित हो चुकीं हैं। 96 वर्षों से अधिक समय से इसका प्रकाशन उच्च गुणवत्ता के कागज़ पर ही होता है, छपाई साफ़ और स्पष्ट, अनुवाद या मुद्रण (printing) में शायद ही कभी कोई त्रुटि रही हो, और subscription लिए हुए ग्राहकों को यह अमूमन समय पर पहुँच ही जाती है- और यह सब तब, जबकि पोद्दार ने इसे न्यूनतम ज़रूरी मुनाफे के सिद्धांत पर चलाया, और यही सिद्धांत आज तक गीता प्रेस गोरखपुर में पालित होता है। न ही गीता प्रेस पाठकों से बहुत अधिक मुनाफ़ा लेती है, न ही चंदा- और उसके बावजूद गुणवत्ता में कोई कमी नहीं।
‘भाई जी’ कहलाने वाले पोद्दार ने ऐसा सिस्टम बना और चला कर यह मिथक तोड़ दिया कि धर्म का काम करने में या तो धन की हानि होती है (क्योंकि मुनाफ़ा कमाया जा नहीं सकता), या फिर गुणवत्ता की (क्योंकि बिना ‘पैसा पीटे’ उच्च गुणवत्ता वाला काम होता नहीं है)। उन्होंने मुनाफ़ाखोरी और फकीरी के दोनों चरम छोरों पर जाने से गीता प्रेस को रोककर, ethical business और धर्म-आधारित entrepreneurship का उदाहरण प्रस्तुत किया।