बिहार से लेकर चेन्नई तक और जोहान्सबर्ग से दिल्ली तक पीने के पानी की किल्लत हो रही है। मोदी जी ने मंत्रालय बना दिया है। नितीश कुमार बाढ़ के इंतजार में हैं, और बाकी जनता लगातार पानी बर्बाद करने में जुटी हुई है। मंत्रालय तो इस देश में तीन-तीन हैं इस समस्या को लेकर, लेकिन पानी धरती के नीचे से गायब होता जा रहा है।
हाल ही में रवीश कुमार ने इस विषय पर लिखा भी और प्राइम टाइम शो भी किया जो कि बहुत अच्छी बात है क्योंकि बाकी एंकर तो वो भी नहीं कर रहे। रवीश कुमार ने फेसबुक पोस्ट में बिहार के पानी की किल्लत पर सबमर्सिबल पम्प पर लिखा कि कैसे पानी की बर्बादी हो रही है, लेकिन जब मैंने जानकार लोगों से इस पर जानकारी इकट्ठी करनी शुरु की तो पता चला कि पम्प लगाना तो बस कई भयावह कारणों में से एक ही कारण है।
इस सिलसिले में जब मैं उत्सुकतावश जानने के लिए लोगों को तलाशने लगा तो आजादी के एक साल पूर्व जन्मे, आईआईटी खड़गपुर से 1968 में बीटेक, और बाद में साउथ गुजरात यूनिवर्सिटी से पीएचडी किए हुए डॉ दिनेश मिश्रा जी से बातचीत हुई जो जल संरक्षण से लेकर पानी से जुड़े कई अन्य विषयों पर जमीनी स्तर पर दशकों से कार्य कर रहे हैं। इन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं।
बातचीत से पता चला कि मानवीय लोभ, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, अवैज्ञानिक जीवनशैली और बेकार की नीतियों ने हमारे बीच का जलसंकट पैदा किया है जो अब इस स्थिति में पहुँच गई है कि लोग सड़कों पर पानी के लिए मार-पीट करने लगेंगे।
डॉ मिश्रा ने इस बात को पौराणिक संदर्भ देते हुए कहा, “हमारे पुराणों में, धर्मग्रंथों में हमेशा इन बातों को जगह दी गई है कि जितना संसाधन हम उपयोग करते हैं, उसी अनुपात में हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए भी तैयार करके जाना चाहिए। आप देखेंगे कि पहले के राजा, या धनाढ्य लोग कुआँ, नहरें, झील, सरोवर आदि खुदवाते थे और उसके एवज में यह कहा जाता था कि इसका पुण्य मिलता है। इसे आप धार्मिक दृष्टिकोण से न भी देखें तो भी, सामान्य बुद्धि यही कहती है कि जल के स्रोतों की व्यवस्था को गंभीरता से देखा जाता था।”
उसी बात पर आज की आम जनता को लाते हुए उन्होंने कहा कि आज हमने जमीन की सीमाएँ तो बना दी हैं, लेकिन उसके नीचे के जल पर तो कोई रेखा है नहीं। जिसके पास पैसे हैं, वो आपके हिस्से का भी पानी पम्प से खींच रहा है। कोई उससे ज्यादा अमीर होगा तो वो उसके भी हिस्से का खींचेगा।
“सरकारों ने इस समस्या को एक समग्र रूप से देखने की जगह और भयावह ही बना दिया है। आपको जल संरक्षण पर काम करना चाहिए, लेकिन आप पम्प लगवाने को प्रोत्साहित कर रहे हैं! और उसमें भी लेटलतीफी तो देखिए कि जब क्राइसिस हो जाती है, तब ये जगते हैं, फिर टेंडर निकलता है, फिर पाइप खरीदी जाती है, पम्प लाए जाते हैं, बिजली की व्यवस्था होती है, और तब तक बारिश आ जाती है। फिर सब लोग इस आपदा को भूल जाते हैं। यही चक्र के रूप में चलता रहता है।”
आज मोदी जी ने इस संदर्भ में बात करते हुए हैशटेग भी दिया है, और लोगों से पानी के इस्तेमाल पर अपनी समझदारी को ‘जनशक्ति और जलशक्ति’ से जोड़ते हुए फोटो अपलोड करने को कहा है। आशा है कि मोदी जी का यह अभियान ‘बेटी बचाओ’ और ‘स्वच्छता अभियान’ की तरह ही जागरुकता लाए, लेकिन इसमें सरकारों के मंत्रालयों के एक साथ काम करने पर ही कुछ बेहतर निकल कर आएगा।
इसी संदर्भ में डॉ दिनेश मिश्रा कहते हैं, “यहाँ तो तीन-तीन मंत्रालय हैं, लेकिन कोई मंत्रालय या उसके इंजीनियर की एक भी रिकॉर्डेड मीटिंग हुई हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। जल संसाधन मंत्रालय है, लघु सिंचाई विभाग है और आपदा प्रबंधन विभाग है। इन तीनों का काम पानी से संबंधित है, लेकिन इनके इंजीनियरों ने कभी साथ बैठ कर बात नहीं की होगी कि पानी के संकट को आने से पहले ही कैसे रोका जाए। पहला मंत्रालय कुछ नहीं करता, तो दूसरा एक्शन में आता है, लेकिन वो भी कुछ नहीं करता और बात ‘आपदा’ बन जाती है।”
आखिर क्या कारण हैं कि पानी जमीन के नीचे से गायब होता जा रहा है? जब बाढ़ से इतना पानी आता है तो आखिर वो कहाँ जाता है? “हमने बाँध बनवा दिए हैं, तो उससे जो पानी, जिस मात्रा में खेतों, नहरों, जलाशयों के माध्यम से जमीन में जाता था, उसकी मात्रा कम हो गई है। दूसरी बात यह है कि अब हमारे मुहल्ले, गाँवों के घर, गलियाँ आदि सब पक्की होती जा रही हैं। हम पानी को जमीन पर गिरते ही, बाहर भेजने लगते हैं।”
“ऐसे में पानी बारिश से गिरता जरूर है, लेकिन वो बह कर नदी में चला जाता है, और वहाँ से समुद्र में। पानी को जमीन से रिस कर ग्राउंड वाटर बनने में सालों लगते हैं। हमारी जीवनशैली बदल रही है जिसमें पानी का उपभोग तो लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उसको रीचार्ज करने के लिए हमने कुछ नहीं किया है।”
इसी बावत मुझे ध्यान आया कि एक महिला ने जमीन में जगह-जगह पाइप लगा कर बरसात के पानी को सीधे जमीन के नीचे पहुँचाने की तकनीक का भी इस्तेमाल किया था। ये एक नई तकनीक थी क्योंकि जमीन के नीचे पानी के उतरने में सालों लगते हैं, और उस चक्कर में जिस तेजी से आपदा आई है, उतना समय हमारे पास है नहीं।
अगर लोग बारिशों में जिस बोरवेल, या बोरिंग से पम्प आदि लगाते हैं, उसी के साथ एक ऐसी व्यवस्था कर लें कि बरसात में पानी सीधा एक सामान्य फिल्टरेशन के बाद (पाइप पर जाली लगा दें) सीधे नीचे जाता रहे, तो भी समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। साथ ही, अगर सरकारें सड़कों और फुटपाथ के किनारे ऐसी व्यवस्था करे कि पानी ग्राउंड वाटर को कृत्रिम रूप से रीचार्ज कर सके तो भी इस संकट से राहत मिल सकती है।
डॉ दिनेश मिश्रा सरकारों के उदासीन रवैये को लेकर काफी निराश दिखे क्योंकि उन्होंने लगातार इसी विषय पर काम किया है, “आप यह देखिए कि सरकारों ने सिंचाई की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। पहले गाँव के लोग इन बातों पर बैठ कर विचार करते थे कि सिंचाई कैसे की जाए, कुओं का संरक्षण कैसे हो, तालाब को मरने न दिया जाए। फिर सरकार बीच में आ गई। योजनाएँ बन गईं, और अकाउंटिबिलटी शून्य है।”
“जब सारी चीजें सरकार अपने हाथों में ले लेती है तो आम जनता उस तरह से संसाधनों का ध्यान नहीं रख पाती जैसे पहले रखती थी। पहले वो उन्हें अपनी संपदा समझती थी, अब वो सरकारी हो गई। लोग पंप से खेत पटाने लगे, तालाबों की ज़रूरत खत्म होने लगी, तो वो सूखने लगे। कुओं को लोगों ने मूंदना शुरु कर दिया। सारा पानी नीचे से आने लगा, लेकिन नीचे जाने की व्यवस्थाएँ बंद हो गईं।”
जब हमने डॉ मिश्रा से कहा कि अब तो नया मंत्रालय भी बन गया है, तो वो बहुत उत्साहित नहीं दिखे, “मंत्रालय तो पहले भी थे, योजनाएँ भी हैं लोकिन जब तक आप जिम्मेदारी फिक्स नहीं करेंगे, मंत्रालय तो मंत्री, सेक्रेटरी, इंजीनियर जुटाने का जरिया बन कर रह जाएगा। लोगों को शामिल करने से पहले सरकार को इस आपदा को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए।”
“एक कहावत है कि इस बार के हथिया से अगले साल के रोहिणी नक्षत्र की बारिश का अंदाजा हो जाता है। लेकिन सरकारें हर साल आपदा के इंतजार में रहती हैं। अगर आपको लोगों की परेशानी से इतना मतलब है तो आप आपदा के आने से तीन महीने पहले से ही क्यों काम शुरु नहीं करते? जागरुकता के लिए सरकार क्या करती है? अगर पक्की छतों के मकान और सीमेंट की सड़कों की गलियाँ बन रही हैं तो लोगों को जल संरक्षण के बारे में, बारिश के पानी को जमा करके, धरती में भेजने के लिए कौन प्रोत्साहित करेगा?”
पानी से जुड़े कई धार्मिक पर्वों को एक तरह का जागरुकता अभियान बताते हुए डॉ मिश्रा ने बताया कि कुम्भ मेला या गंगा दशहरा जैसे पर्व में लोग स्वयं ही आते हैं। उसका एक प्रयोजन हुआ करता था। अब सरकारों को इस पर युद्धस्तर पर जुड़ना चाहिए ताकि जनशक्ति से लेकर सरकार के मंत्री तक, मंत्रालयों के बीच सामंजस्य बिठा कर, इस संकट का निवारण करें। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो जिसके पास पैसा होगा वो गहरा बोरिंग करता जाएगा और पानी खींचता रहेगा। गरीब पानी के लिए या तो गंदा पानी पीने को मजबूर होंगे, या फिर प्यास से मरेंगे।