Friday, April 26, 2024
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लाल किला एक्सरसाइज: चीन पर लेफ्टिनेंट जनरल थोराट ने 1960 में चेताया, नहीं सँभले नेहरू, फिर हुआ 1962…

लेखक और इतिहासकार कुमार वर्मा भी बता चुके हैं कि उस समय के रक्षा मंत्री ही इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि चीन कभी भारत पर हमला कर सकता है। इसलिए नेहरू भी उन्हीं के मत के साथ आगे बढ़े। बाकी जो हुआ सब इतिहास है।

चीन के साथ युद्ध की स्थिति तो साल 1960 से पहले ही पैदा हो चुकी थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हालातों को गंभीरता से लेना उचित न समझा। इन बातों का खुलासा पूर्व आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एसएसपी थोराट के उन निष्कर्षों से होता है, जिसे उन्होंने उस समय एक साल तक स्थिति का मुआयना करने के बाद लिखा था।

बात 1959 से शुरू होती है, जब चीन ने सर्वप्रथम पाकिस्तान से गैरकानूनी ढंग से अक्साई चीन अपने कब्जे में ले लिया और घोषणा कर दी कि मैकमोहन रेखा को सीमा रेखा नहीं मानता और तिब्बत उसका अखंड हिस्सा है। ये वो समय था जब जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री होते हुए देश की सेना की स्थिति बेहद खराब थी और चीन इसका भरपूर फायदा उठाने को तैयार था।

इन्हीं हालातों के मद्देनजर पूर्व सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एसएसपी थोराट ने स्थिति को देखते हुए एक निष्कर्ष तैयार किया। इस निष्कर्ष को उन्होंने ‘लाल किला’ अभ्यास का नाम दिया। इन सीक्रेट पेपर को साल 2012 में इंडिया टुडे ने एक्सेस कर एक रिपोर्ट तैयार की। इससे पता चलता है कि चीन के साथ युद्ध में भारतीय वायुसेना का आक्रमक भूमिका में होना सेना की युद्ध योजनाओं का अभिन्न अंग था।

अपने इन निष्कर्षों में उन्होंने साफ बताया था कि भारत-चीन सीमा के बीच जैसे संबंध 1960 से पहले रहे हैं। उनमें आने वाले समय में बदलाव आ सकता है। अपनी बात रखते हुए उन्होंने इन बदलावों का कारण उन क्षेत्रों को बताया था जो स्पष्ट तौर पर भारत के थे। लेकिन चीन उन पर कब्जा करना चाहता था।

उन्होंने इन दस्तावेजों में लिखा था कि चीन अब मैकमोहन सीमा को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा मानने से इनकार कर रहा है और लद्दाख के कुछ क्षेत्रों में अपना कब्जा करना चाहता है। इसलिए भारत को चीन के पूर्ण प्रतिरोध का विरोध करने और किसी भी प्रकार के घुसपैठ को दूर करने की आवश्यकता है।

रिपोर्ट के अनुसार, उस समय में आर्मी कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल एसएसपी थोराट ने अपने निष्कर्ष में कहा:

पहले हमारे लिए सबसे बड़ा ख़तरा सिर्फ़ पाकिस्तान था। इस ख़तरे के साथ ही अब चीन का ख़तरा भी जुड़ गया है। चीन हमारी धरती पर कब्ज़ा करने की फ़िराक़ में है। चीन ने मैकमोहन लाइन को अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर मानने से इनकार कर दिया है। इसके साथ ही उसने लद्दाख, उत्तर प्रदेश और North East Frontier Agency के इलाकों में घुसपैठ भी की है…

जनरल थोराट ने अपने निष्कर्षों से यह चेतावनी ठीक चीनी हमले के दो साल पहले दे दी थी। लेकिन नेहरू सरकार ने इस पर कोई एक्शन नहीं लिया। अंतत: साल 1962 में 20 अक्टूबर को चीनी सैनिकों ने भारत पर हमला बोला। जिसके बाद साबित हो गया कि लेफ्टिनेंट जनरल थोराट का अनुमान कितना सटीक था।

17 मार्च 1960 को लाल किला अभ्यास हुआ। उस समय ऐसा लगा जैसे लेफ्टिनेंट जनरल जानते थे कि चीन हमला करने वाला है। दरअसल, उन्होंने मैकमोहन रेखा के पार सैन्य और बुनियादी ढाँचे के निर्माण का आंकलन कर लिया था।

साल 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, लेफ्टिनेंट जनरल गुरु बख्शी व पूर्व महानिदेशक और तत्कालीन युवा कप्तान कहते हैं कि 1959 में हम सभी युवा अधिकारियों को जनरल थिमैया ने अड्रेस किया था। उस समय उनकी बातों से हमें समझ आया कि तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्णा सेना की सलाह लेने में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे।

लेफ्टिनेंट जनरल थोराट ने अपने निष्कर्ष में साफ कहा था कि पाकिस्तान और चीन से आक्रामकता के खिलाफ हमारे क्षेत्र और सिक्किम की रक्षा करें और नेपाल को सैन्य सहायता देने और नागा हिल्स और तुएनसांग एजेंसी में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैयार रहें।

बता दें जनरल थोराट ने यह सभी बातें बिना किसी आधार पर नहीं कही थीं। उन्होंने विस्तृत खुफिया जानकारी की मदद से चीन के सैन्य निर्माण व सड़क और हवाई क्षेत्र निर्माण योजनाओं का आकलन कर अपनी रिपोर्ट पेश की थी। मगर, तब भी उनकी बात की सुनवाई नहीं हुई। इसका परिणाम हमें 1962 में देखने को मिला।

सेना के पूर्व उपाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल शांतनु चौधरी ने उस समय को याद करते हुए दुख जताया था और कहा था कि दुख की बात है कि उस समय शीर्ष सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व के बीच समन्वय का अभाव था।

जब लेफ्टिनेंट जनरल ने चेतावनी दी थी और उस पर काम किया गया होता तो हालात बिलकुल अलग होते। लेफ्टिनेंट जनरल थोराट भी चाहते थे कि युद्ध में एयरफोर्स की अहम भूमिका हो। बता दें पूर्व एयर चीफ मार्शल भी इस बात को कह चुके हैं कि अगर तब हवाई शक्ति का इस्तेमाल होता तो परिणाम बिलकुल अलग होते।

इसके अलावा लेखक और इतिहासकार कुमार वर्मा भी बता चुके हैं कि उस समय के रक्षा मंत्री ही इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि चीन कभी भारत पर हमला कर सकता है। इसलिए नेहरू भी उन्हीं के मत के साथ आगे बढ़े। बाकी जो हुआ सब इतिहास है। उस समय अगर लेफ्टिनेंट जनरल की रिपोर्ट पर सकारात्मक रूप से विचार होता तो भारत हालातों के लिए तैयार होता।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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