आजादी के बाद से ही भारत में मुस्लिम और कथित बुद्धिजिवी अक्सर अल्पसंख्यकों के अधिकारों का रोना रोते रहे हैं। हालाँकि, संविधान कभी धार्मिक आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने के बाद तो किसी के धार्मिक अधिकारों पर चर्चा होनी ही नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी यह समय-समय पर चर्चा का विषय बन ही जाता है।
संविधान में अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समता का आश्वासन देता है। लेकिन हम यह देखते आए हैं कि विधि की समता के सामने हर समय कई प्रकार के धार्मिक दुराग्रह खड़े हो जाते हैं। सवाल मुस्लिमों की अल्पसंख्यक बने रहने में रूचि को लेकर है। इसका एक कारण कॉन्ग्रेस और वामपंथियों की तुष्टिकरण की नीति रही है। साथ ही अल्पसंख्यक बने रहने में वास्तविक मारा-मारी पीड़ित और शोषित के भाव की है। किसी देश में अल्पसंख्यक होना, उस देश की कृपा और मेहरबानी पर आश्रित होने जैसा भाव देता है। बावजूद इसके भारत में अल्पसंख्यक होना एक अवसर माना जाता रहा है।
पहला सवाल तो देश के मुस्लिमों को खुद से ही करना चाहिए कि क्या वो संविधान लिखे जाने के इतने वर्ष बाद भी स्वयं को संविधान की शर्तों से मंजूर मानते हैं? आज़ादी माँगने वाले मुस्लिम क्या 21वीं सदी के आज़ादी के विचारों से सहमत हैं? हाल ही में नागरिकता संशोधन कानून के बहाने शाहीन बाग़ में जो कुछ चल रहा है, वह किसी से भी छुपा नहीं है।
जब धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मौलिक हिस्सा माना गया, तब सुप्रीम कोर्ट ने ये तय किया कि संसद इसे किसी भी तरह से कमजोर करने में सक्षम नहीं है, बल्कि इसे मजबूत बनाने के लिए जरूरी कदम उठा सकती है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता शब्द के बावजूद भी भारत का मुस्लिम आज भी मुख्यधारा से जुड़ने में इतना असहज क्यों रहता है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का मुस्लिम आज भी कई आधारभूत क्षेत्रों में अन्य धर्म के लोगों की तुलना में पिछड़े हुए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि ऐसे उदाहरण हैं, जिसमें मुस्लिम आज भी समय से बहुत पीछे खड़ा है।
जब तक स्वयं मुस्लिम अपनी मजहबी कट्टरता के आवरण को नहीं त्याग देते, तब तक इस समाज के पुनर्जागरण की उम्मीद करनी फिजूल है। मुस्लिम समाज को खुद अपनी बुनियादी बदलावों के लिए लक्ष्य बनाने होंगे और समय सीमा तय करनी होगी। इसका सबसे ताजा और सटीक उदाहरण तीन तलाक का गैर कानूनी होना है। सरकार को इस कानून को पारित करने के लिए एक बड़े वोट बैंक से खिलाफत का जोखिम उठाना पड़ा। हाल ही में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) ने नागरिकता संशोधन कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है।
मुस्लिमों के पिछड़ेपन में सबसे बड़ा हाथ अगर धार्मिक कट्टरता के बाद किसी का रहा है तो वो कॉन्ग्रेस जैसे विपक्षी दल ही हैं। नागरिकता संशोधन कानून, यानी CAA और NRC ने एक नई बहस को भी छेड़ दिया है। यह बहस है पूरे देशभर में संविधान के ही भाग-4, अनुच्छेद- 44 (DPSP) में वर्णित यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की बात। इसमें संविधान निर्माताओं द्वारा नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून (UCC) लागू करना हमारा लक्ष्य होगा।
लेकिन भारत जैसी विविधता वाले देश में UCC को लागू करना कितना आसान हो सकता है? महज तीन तलाक को ही गैर कानूनी घोषित करने पर कई तरह के फतवे और विरोध देखने को मिले। मुस्लिमों के ‘नए राजनीतिक धर्म गुरु’ और AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी जैसे पढ़े-लिखे लोग भी यह कहते हुए देखे गए कि तीन तलाक उनके धर्म का विषय है और सरकार को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
अब, जबकि समाज और सभ्यता, दोनों ही राजनीति और धर्म से बाहर आना चाह रही है, ऐसे में अगर धार्मिक अधिकार ही आपके मूल अधिकारों पर भारी पड़ जाए तो आप किसे चुनेंगे? सत्य अपाच्य जरूर है, लेकिन मुस्लिम आज भी खुद को अल्पसंख्यक कहकर अलग किस्म के नशे में मशगूल है। लेकिन बहुत ही कम लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि अल्पसंख्यक होने का मतलब मुस्लिम होने से नहीं है।
वर्ष 2014 में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का प्रभार संभालने के तुरंत बाद नजमा हेपतुल्ला ने मुस्लिमों के अल्पसंख्यक दर्ज़े को लेकर बयान दिया था कि यह मुस्लिम मामलों का मंत्रालय नहीं बल्कि यह अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय है। नजमा हेपतुल्ला ने जोर देते हुए कहा था कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं।
इस बयान के पीछे देश में परम्परागत चली आ रही ‘हिन्दू बहुसंख्यक बनाम मुस्लिम अल्पसंख्यक’ चर्चा की पोल खुल जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत के संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग की परिकल्पना एक खुली श्रेणी के रूप में धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा के उद्देश्य से की गई है। इसलिए स्पष्ट है कि भारत के संविधान में एक स्थाई अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में सिर्फ मुस्लिमों के होने की ही संभावना शून्य है। संविधान में ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ भी कोई नहीं है।