Sunday, November 17, 2024
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डॉक्टर बनने के लिए बाल विवाह से लड़ने वाली ‘द हिन्दू लेडी’, जिनकी वजह से आया ‘सहमति की उम्र का क़ानून’

11 वर्ष की आयु में रुक्माबाई की शादी 19 वर्ष के दादाजी भीकाजी से हुई। विवाह के बाद वह अपने पति के घर नहीं गईं। वह पढ़ने के लिए विद्यालय जाती थीं। एक दिन पति ने घर चलने के लिए कहा और 11 वर्ष की रुक्माबाई ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया और यहीं से आया उस दौर का सबसे चर्चित मामला।

सभी जानते हैं कि आज से 100 या 120 साल पहले का समाज कैसा था या यूँ कहे उस दौर में समाज के सामने कुरीतियों की सूरत में क्या चुनौतियाँ मौजूद थीं। फिर भी भारतीय समाज का सबसे शाश्वत पहलू यही है कि धारा के विपरीत चलने वाले लोग हमेशा मौजूद रहते हैं, जो आम जनमानस को रास्ते दिखाने वाली सबसे गाढ़ी लकीर खींचते हैं। ऐसा ही एक नाम है रुक्माबाई राउत का, जो भारत की पहली प्रैक्टिसिंग महिला चिकित्सक थीं। उनका विवाह महज़ 11 साल की उम्र में कर दिया गया था, फिर भी उन्होंने वैवाहिक जीवन त्यागते हुए पढ़ाई का रास्ता चुना। 

22 नवंबर 1864 को मुंबई के एक बढ़ई परिवार में जन्मी रुक्माबाई की माँ जयंती बाई थीं और पिता जनार्दन पांडुरंग। उस दौर में बाल विवाह आम बात थी, इसलिए जयंती बाई का विवाह भी 14 वर्ष की उम्र में कर दिया गया। वह सिर्फ 15 साल की थीं जब रुक्माबाई का जन्म हुआ था, इसके दो साल बाद वह विधवा हो गई और फिर उन्होंने सखाराम अर्जुन से दूसरा विवाह किया। इस विवाह को लेकर समाज में काफी बहस भी हुई, लेकिन जयंती बाई ने निर्णय पूरी दृढ़ता के साथ लिया था। सखाराम अर्जुन मुंबई स्थित ग्रांट मेडिकल कॉलेज में वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने रुक्माबाई की पढ़ाई जारी रखने में अहम भूमिका निभाई।     

रुक्माबाई की आयु 8 वर्ष थी जब उनकी माँ जयंती बाई ने पूरी संपत्ति उनके नाम कर दी थी। इसके बाद 11 वर्ष की आयु में रुक्माबाई के जीवन में सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ और वह था 19 वर्ष के दादाजी भीकाजी से विवाह। रुक्माबाई विवाह के बाद अपने पति के घर नहीं गईं। वह पढ़ने के लिए विद्यालय जाती थीं। एक दिन पति ने घर चलने के लिए कहा और 11 वर्ष की रुक्माबाई ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया और यहीं से एक और विवाद शुरू हुआ। 

उनके पति भीकाजी ने अपने वैवाहिक अधिकारों का हवाला देते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय में रुक्माबाई के विरुद्ध याचिका दायर की। यह मामला भी ऐतिहासिक था, ‘दादाजी भीकाजी बनाम रुक्माबाई’ और इससे ही निकल कर आया ‘सहमति की उम्र का क़ानून’ 1891 (Age of consent act)। न्यायालय ने रुक्माबाई के समक्ष दो विकल्प रखे, पहला वह अपने पति के साथ रहें या दूसरा वह जेल चली जाएँ। 

इसके बावजूद मामले की सुनवाई के दौरान रुक्माबाई ने इतनी कम उम्र में जो दलीलें पेश की वह खुद में सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनी। उन्होंने अपनी शिक्षा का हवाला देते हुए न्यायालय के समक्ष स्पष्ट रूप से कहा कि वह अपने पति के पास नहीं जाएँगी। उनका यह भी कहना था कि उन्हें वैवाहिक जीवन में बँधकर रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।             

अंततः न्यायाधीश रोबर्ट हिल पनहे ने इस मामले पर आदेश सुनाया जिसके तहत रुक्माबाई को आर्थिक जुर्माना देना पड़ा और दोनों पक्षों में सहमति बनी। मामला इतना चर्चित हुआ था कि ब्रिटिश प्रेस का ध्यान भी आकर्षित हुआ और 19वीं शताब्दी की शुरुआत होते-होते बाल विवाह और स्त्री अधिकारों पर व्यापक विमर्श की नींव पड़ी। ’रुक्माबाई रक्षा समिति’ का गठन भी हुआ था। इस मुद्दे पर तत्कालीन समाज सुधारक और शिक्षा संबंधी मुद्दों की कार्यकर्ता पंडिता रमाबाई ने एक लेख लिखा था जिसका एक अंश काफी चर्चित हुआ था। 

जिसमें उन्होंने लिखा था, “यह सरकार महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता और अधिकारों की वकालत तो करती है, लेकिन जब एक महिला किसी पुरुष की दासी बनने से असहमत होती है तब वही सरकार क़ानून का हवाला देकर महिला को क़ानून की बेड़ियाँ पहना कर लाचार बना देती है।” इसके अलावा खुद रुक्माबाई ने भी ‘द हिन्दू लेडी’ के उपनाम से टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए स्त्री विमर्श पर कई लेख लिखे जिन पर काफी चर्चा हुई थी। 16 जून 1885 को लिखे गए रुक्माबाई के एक लेख का अंश कुछ इस प्रकार है, 

“बाल विवाह की इस कुरीति ने मेरे जीवन की खुशियों को बर्बाद कर दिया है। यह कुप्रथा हमेशा मेरे और उन चीज़ों के बीच में आई जिन्हें मैंने सबसे ऊपर रखा (शिक्षा और मानसिक चिंतन)। मेरी कोई गलती नहीं होने के बावजूद मुझे सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। मेरी बहनें जो हमेशा अपने अधिकारों से वंचित रही हैं, जो जागरूक नहीं हैं उनसे ऊपर उठने की भावना पर संदेह करते हुए मुझ पर तमाम तरह के आरोप लगाए गए।”        

आखिरकार रुक्माबाई साल 1889 में अपनी पढ़ाई के लिए लंदन स्कूल मेडिसिन, इंग्लैंड गई और 1894 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करके वापस लौटीं। इसके बाद वह सूरत में चीफ़ मेडिकल ऑफिसर के पद पर नियुक्त हुईं और लगभग 35 वर्षों तक इस पेशे से जुड़ी रहीं। इस बीच उन्होंने सामजिक सुधार संबंधी तमाम मुद्दों पर काम किया और 25 सितंबर 1955 को 91 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। निर्देशक अनंत महादेवन ने उनके जीवन से प्रभावित होकर एक फिल्म भी बनाई थी जिसका नाम था, ‘रुक्माबाई भीमराव राउत”।  

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