क्या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएँ विश्वविद्यालय में रद्द करना राजनीतिक नंबर बनाने का मुद्दा बन गया है? क्या अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएँ कराने या न कराने के फैसले का राजनीतिकरण किया जाना चाहिए?
मूल्यांकन, मूल्यांकन व्यवस्था, परीक्षा और डिग्री की विश्वासनीयता बनाए रखते हुए विद्यार्थियों और शिक्षकों का सर्वाधिक हित किस में है? क्या शिक्षाविदों, यूजीसी, विश्वविद्यालय सांविधिक निकाय और निर्वाचित छात्र निकायों पर इस बारे में सामूहिक रूप से निर्णय लेने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता?
क्या यह जरूरी नहीं है कि एक ऐसा हल निकाला जाए जिसमें कि इस महामारी में विद्यार्थी किसी भी तरह के जोखिम और तनाव से बच सकें और उनकी डिग्री भी समाज और संभावित नियोक्ताओं की नजरों में संदेहास्पद ना बने? डिग्री का स्तर न गिरे।
इस मामले में उपर दिए यह ऐसे बुनियादी सवाल हैं, जिन्हें जल्दबाजी में निर्णय लेने से पहले संज्ञान में लेना चाहिए। इस संदर्भ में बहुत से शिक्षकों और विद्यार्थियों की आशंका सही है कि ओपन बुक परीक्षा मूल्यांकन प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त डिग्री से मानकों का स्तर गिरेगा और आगे यह जाकर उनकी नौकरियों के अवसरों को भी प्रभावित करेगा।
विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार, शिक्षा और परीक्षा के स्तर को बनाए रखना विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और विश्वविद्यालयों की जिम्मेदारी है। इसलिए उन्हें किसी भी ऐसे समाधान को अस्वीकृत करना चाहिए जो निर्धारित मापदंडों पर खरा नहीं उतरता हो और विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा व गरिमा के अनुकूल ना हो। ओपन बुक परीक्षा का सुझाव देते हुए यूजीसी ने ऐसी किसी परीक्षा कराने का सुझाव नहीं दिया, जो बिना परीक्षक के संपन्न हो।
शिक्षाविदों के एक वर्ग ने इसे पारदर्शी और निष्पक्ष मूल्यांकन मॉडल माना है, जो अंतिम सेमेस्टर के विद्यार्थियों की डिग्री के स्तर को प्रभावित नहीं करेगा लेकिन यह शिक्षाविद विद्यार्थियों और शिक्षकों के बुनियादी सवालों का उत्तर नहीं दे पा रहे हैं। क्या यह मॉडल नकल, बाहरी हस्तक्षेप, समान अवसर इत्यादि सुनिश्चित करेगा?
उम्मीद है कि दिल्ली विश्वविधालय ने इस बारे में एक याचिका का उत्तर देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय को सम्भावित नकल एवं विद्यार्थियों को समान अधिकार का ध्यान रखने का आश्वासन दिया होगा।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 अगस्त से ओपन बुक टेस्ट करवाने का आदेश दिया है। इस मामले में महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि विद्यार्थी परीक्षा और मूल्यांकन की किसी भी विश्वसनीय पद्धति से बचना नहीं चाहते। ज्यादातर विद्यार्थी जिन्हें शिक्षकों का समर्थन भी है, वे उन सभी प्रश्न पत्रों/पाठ्यक्रमों का निष्पक्ष मूल्यांकन व प्रत्येक प्रश्नपत्र के ग्रेड प्राप्त करना चाहते हैं, जो उन्होंने अंतिम सेमेस्टर में पढ़े हैं।
हालाँकि, उनकी मूल चिंता यह है कि मूल्यांकन विश्वसनीय पद्धति अपनाकर ही किया जाए और जो डिग्री उन्हें मिले, उस पर कोविड-19 प्रभावित होने का ठप्पा ना लगे। दूसरी ओर, कॉन्ग्रेस, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कॉन्ग्रेस आदि पार्टियों के द्वारा विश्वविद्यालय परीक्षाएँ रद्द करने और बिना परीक्षा के विद्यार्थियों को डिग्री देने के लोकलुभावन बयान से यह गलत संदेश दिया जा रहा है कि डिग्री ऐसे ही प्राप्त हो जाएगी।
ऐसा करने से विद्यार्थियों को फायदा होने की बजाय नुकसान ही अधिक होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संकीर्ण राजनीति के कारण विद्यार्थियों के करियर को दाँव पर लगाया जा रहा है। यूजीसी के एक भूतपूर्व चेयरमैन ने कई शिक्षाविदों के साथ मिलकर इस मामले में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन को पत्र लिखा है। यह विश्वास करना बहुत कठिन है कि इस पत्र में राजनीतिक रूप से प्रेरित चिंता नहीं है।
ऐसा इसलिए, क्योंकि क्योंकि यूजीसी में इन पूर्व चेयरमैन के कार्यकाल में ही अनेक छात्र और शिक्षक विरोधी निर्णय जैसे- सेमेस्टर सिस्टम, विनाशकारी एपीआई, पीबीएएस व्यवस्था आदि को शिक्षा सुधार के नाम पर सरकारी नीति का अनुसरण करके बिना विरोध कॉलेजों और महाविद्यालयों पर लाद दिया गया था।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अभी भी अंतिम सेमेस्टर एग्जाम पर हुई राजनीति से किए गए नुकसान की भरपाई कर सकती है और एक विश्वसनीय मूल्यांकन पद्धति अपनाकर अंतिम सेमेस्टर के विद्यार्थियों का परिणाम घोषित कर सकती है।
एक सर्वोत्तम उपाय आंतरिक मूल्यांकन अपनाना है और पिछले सेमेस्टर के सर्वोत्तम रिजल्ट का समायोजन करके ऐसा किया जा सकता है। जैसा इंटरमीडिएट सेमेस्टर के लिए कई विश्वविद्यालय ने किया भी है।
कॉलजों और विश्वविद्यालयों में अपनाई जा रही सीबीसीएस प्रणाली के अनुसार सभी सेमेस्टर का समान महत्व है। तब यह विश्वसनीय उपाय अंतिम सेमेस्टर में भी लगाया जाना चाहिए। प्रत्येक पाठ्यक्रम/प्रश्नपत्र के ग्रेड अंक तालिका में दर्शाए जाने चाहिए।
साथ ही अंत में सीजीपीए के लिए उसे गिना जाए क्योंकि विद्यार्थियों ने अपने पाठ्यक्रम/प्रश्न पत्र को पूरा किया है और उन्होंने व्यावहारिक परीक्षा, कक्षा परीक्षा देने के साथ अपने असाइनमेंट भी जमा कराए हैं।
कई विद्वानों के हिसाब से परीक्षा-विहीन ऑनलाइन ओपन बुक एग्जाम की तुलना में यह आंतरिक मूल्यांकन का प्रस्ताव अधिक तीव्रगामी, विश्वसनीय और महामारी में विद्यार्थियों को सुरक्षित रखने के साथ ही उन्हें तनाव से राहत प्रदान करने वाला भी है।
किसी को भी हमारे विद्यार्थियों के साथ राजनीति करने या परीक्षा के नाम पर खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। वर्तमान स्थिति में यदि अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गईं तो इन विद्यार्थियों की डिग्री पर प्रश्नचिन्ह लगने के साथ-साथ आगे चलकर इनकी डिग्री को कोविड-19 प्रभावित डिग्री कहे जाने का भी खतरा है।
महामारी की चुनौतियों और छात्रों के संपूर्ण हितों को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, विश्वविद्यालय एवं राज्य सरकारों को अपनी परीक्षा व्यवस्था का अवमूल्यन करने वाली घोषणा करने की बजाय उन्हें प्रत्येक प्रश्न पत्र की तार्किक, विश्वसनीयता संचालित, पवित्र मूल्यांकन पद्धति की घोषणा करनी चाहिए।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इन विद्यार्थियों ने अंतिम सेमेस्टर को समय दिया है। विद्यार्थियों ने अंतिम सेमेस्टर में सभी प्रश्न पत्रों का अध्ययन किया है और स्वयं को मूल्यांकन के लिए तैयार किया है।भूल से भी ऐसे संकेत न दिए जाएँ कि डिग्री देते समय अकादमिक मापदंडों और मूल्यांकन पद्धति से समझौता किया गया है।