Friday, November 22, 2024
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जय श्री राम, हुह… जिस पत्रकार ने ऐसा कहा, वो एक नंबर का धूर्त है, बंगालियों के नाम पर कलंक है

अगर बंगाल में श्रीराम की पूजा नहीं होती, लोग उन्हें नहीं मानते, तो प्रीतिश नंदी क्या बता सकते हैं कि वहाँ 'जय श्री राम' के नारे लगाने वाले क्या अयोध्या से आ रहे हैं? अगर इन छद्म बुद्धिजीवियों ने जरा भी भारत का इतिहास पढ़ा होता, तो शायद ये ऐसा नहीं कहते।

प्रीतिश नंदी ने ‘जय श्री राम’ से आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि ये ‘जय श्री राम वाले’ माँ सरस्वती से अनजान हैं। उन्होंने दावा किया कि वे और अन्य बंगाली नागरिक माँ सरस्वती की पूजा करते हैं। उन्होंने कहा कि सरसवती विद्या, ज्ञान और बुद्धि की देवी है। उन्होंने कहा कि ‘वे लोग’ महिलाओं की इज़्ज़त करते हैं। उन्होंने कहा कि इसी कारण बंगाली लोग दुर्गा और काली, दोनों की ही पूजा करते हैं। इसके बाद उन्होंने ‘जय श्री राम’ पर तंज कसते हुए लिखा, “जय श्री राम, हुह“। प्रीतिश नंदी के दावे सही हैं, सरस्वती की पूजा बंगाल में होती है, माँ काली एवं दुर्गा की पूजा बंगाल में होती है, बंगाली महिलाओं की इज़्ज़त करते हैं, लेकिन पेंच कहाँ है, ये हम आपको बताते हैं। दरअसल, उन्होंने जिन देवी-देवताओं का नाम लिया, उनकी पूजा किसी न किसी रूप में हर उस जगह होती है, जहाँ हिन्दू समाज रहता है।

दुर्गा पूजा के दौरान आप बिहार की किसी भी गली में चले जाइए, लोगों में जोश और उत्साव वहाँ किसी बंगाली की तरह ही रहता है। ठीक ऐसे ही, माँ सरस्वती की पूजा केरल एवं तमिलनाडु में भी होती है, जो पश्चिम बंगाल से काफ़ी दूर है। वहाँ नवरात्रि के अंतिम तीन दिन माँ सरस्वती की पूजा की जाती है। माँ कालरात्रि की पूजा नवरात्र के दौरान पूरे भारत में की जाती है। क्या केरल, तमिलनाडु और बिहार के लोग महिलाओं की इज़्ज़त नहीं करते हैं? दरअसल, भारत में कन्या पूजन और देवियों की पूजा लम्बे समय से होती आ रही है। हाँ, बंगाल के दुर्गा पूजा में भव्यता, उत्साह और जोश सबसे ज्यादा होता है, लेकिन यही तो भारत की विशालता की ख़ासियत है। बिहार में छठ के दौरान कुछ ऐसा ही उत्साह होता है, केरल में ओणम के दौरान, महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी के दौरान और तमिलनाडु में पोंगल के दौरान कुछ ऐसी ही भव्यता होती है।

प्रीतिश नंदी अंग्रेजों की उसी ‘फूट डालो’ नीति को आगे बढ़ा रहे हैं, जिस पर चलते हुए कॉन्ग्रेस ने लिंगायत समुदाय को हिन्दू धर्म से अलग देखते हुए उसे एक अलग धर्म बनाने की कोशिश की थी। धर्मों में लड़ाने, जातियों में लड़ाने और सम्प्रदायों में लड़ाने के बाद अब ये गिरोह विशेष अलग-अलग देवी-देवताओं के भक्तों और क्षेत्रीय परम्पराओं के आधार पर लड़ाने पर उतारू है। अगर बंगाल में श्रीराम की पूजा नहीं होती, लोग उन्हें नहीं मानते, तो प्रीतिश नंदी क्या बता सकते हैं कि वहाँ ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने वाले क्या अयोध्या से आ रहे हैं? अगर इन छद्म बुद्धिजीवियों ने जरा भी भारत का इतिहास पढ़ा होता, तो शायद ये ऐसा नहीं कहते। नंदी ने ऐसी ही ग़लती की है, जैसी जावेद अख़्तर ने घूँघट और बुर्क़े की तुलना कर के की थी। इन्हें ऐतिहासिक तथ्यों से जवाब देना आवश्यक है।

पश्चिम बंगाल में श्रीराम के प्रभाव को नकारने वाले और ‘जैस श्री राम’ के नारे से चिढ़ने वाले प्रीतिश नंदी से बस एक सवाल पूछा जाना चाहिए और वह ये है कि कृत्तिवासी रामायण क्या है? प्रीतिश को या तो नहीं पता या वो सब जानते हुए भी लोगों को बेवकूफ बनाना चाहते हैं। हमारा कार्य है उन चीजों को सामने लाना, जो ये छद्म बुद्धिजीवी नहीं चाहते कि आप जान पाएँ। हमारा कार्य है उस तथ्य को सामने रखना, जिसे ये वामपंथी छिपा लिया करते हैं, दबा दिया करते हैं और इसके उलट एक अलग नैरेटिव बनाते हैं। दरअसल, कृत्तिवासी रामायण भगवान श्रीराम की गाथा है, बंगाली भाषा में, और वाल्मीकि रामायण का बंगाली रूपांतरण है। कृत्तिवासी रामायण में भगवान श्रीराम द्वारा रावण वध से पहले दुर्गा पूजा करने की कहानी भी है और बंगाल में दुर्गा पूजा की लोकप्रियता बढ़ने में इसका भी योगदान है।

आज जो रामचरितमानस हिंदी बेल्ट में लोकप्रिय है, जिस पुस्तक ने रामायण को उत्तर भारत के घर-घर तक पहुँचाया, उस रामचरितमानस के लेखक भी उसी धरा से प्रभावित थे, जो कृत्तिवासी रामायण के लेखक कृत्तिवासी ओझा ने शुरू की थी। तुलसीदास का रामचरितमानस कृत्तिवासी रामायण के बाद लिखा गया और तुलसीदास उससे प्रभावित भी थे। न सिर्फ़ तुलसीदास, बल्कि रविंद्रनाथ टैगोर जैसे महान लेखक भी कृत्तिवासी रामायण में भगवान श्रीराम के चित्रण से प्रभावित थे। बंगाल में दुर्गा पूजा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय अगर जिसको जाता है, तो वह हैं- कृत्तिवासी ओझा। वही कृत्तिवासी ओझा, जिन्होंने रामायण का बंगाली रूपांतरण लिखा। प्रीतिश नंदी किसे ठगने की कोशिश कर रहे हैं? किसे बेवकूफ बना रहे हैं वह? जब एक बंगाली रामायण लिख सकता है, रामायण में ‘दुर्गा पूजा’ की चर्चा कर इसे घर-घर में लोकप्रिय बना सकता है, तो बंगाल में ‘जै श्री राम’ के नारे से किसी को भी आपत्ति क्यों?

माँ दुर्गा और भगवान श्रीराम के भक्तों को अलग-अलग देखते हुए क्षेत्र और श्रद्धा के नाम पर उन्हें लड़ने की कोशिश में लगे नंदी क्या यह नहीं जानते कि बंगाली रामायण के लेखक ने दुर्गा पूजा को बंगाल के घर-घर तक पहुँचाया। जब ख़ुद भगवान श्रीराम माँ दुर्गा के उपासक हैं, उन्होंने दुर्गा पूजा की थी, तो क्या रामभक्त देवी दुर्गा की पूजा नहीं कर सकते? या फिर माँ दुर्गा को मानने वाले भगवान श्रीराम के भक्त नहीं हो सकते? मिथिलांचल में दुर्गा पूजा के दौरान रामायण और दुर्गा सप्तशती साथ-साथ पढ़ी जाती है। रामनवमी के दौरान माँ सीता को जगतजननी दुर्गा का अवतार मानकर पूजा की जाती है। ख़ुद तुलसीदास ने रामचरितमानस में माँ पार्वती के जन्म की कहानी कहते हुए उन्हें जगदम्बा कहा है।

हिन्दू धर्म को तोड़ने-मरोड़ने के प्रयास में लगे प्रीतिश नंदी को जानना चाहिए कि कृत्तिबास ओझा के ‘श्री राम पंचाली’ ने बंगाल में दुर्गा पूजा को मशहूर कर जन-जन तक पहुँचा दिया। इसमें पहली बार शक्तिपूजा के बारे में लिखा था। ‘श्री राम पंचाली’ में राम द्वारा रावण को हराने के लिए शक्ति पूजा करने का जिक्र है। इसमें इस बात का जिक्र है कि जब राम को लगा कि रावण से युद्ध करना कठिन है तो जामवंत ने उनकी चिंता को देखकर उन्हें शक्ति की पूजा करने को कहा। इसके बाद भगवान श्रीराम ने दुर्गा पूजा किया। प्रीतिश नंदी को शायद यह पता ही नहीं। आख़िर हो भी कैसे, इन्हें माँ दुर्गा तभी याद आती है जब भगवान श्रीराम का अपमान करना होता है। इन्हें रामायण और महाभारत तभी यात आता है जब इन्हें हिन्दुओं को हिंसक साबित करना होता है। वामपंथियों ने नया कुटिल तरीका आज़माने की असफल कोशिश की है।

प्रीतिश नंदी, सीताराम येचुरी और जावेद अख़्तर जैसे लोग अगर रामायण-महाभारत, माँ दुर्गा और घूँघट की बात कर रहे हैं तो इन्हें शक की नज़रों से देखा जाना चाहिए। क्योंकि, ये लोग कभी भी इन चीजों में विश्वास नहीं रखते। ये इन चीजों के गुण तभी गाते हैं, जब हिन्दुओं को भड़काना हो, अलग-अलग करना हो और नीचा दिखाना हो। प्रीतिश नंदी से निवेदन है कि कृत्तिवास ओझा को पढ़ें, ‘श्रीराम पांचाली’ को पढ़ें, टैगोर को पढ़ें। तब उन्हें पता चलेगा कि बंगाल और रामायण का वही कनेक्शन है, जो उस क्षेत्र का माँ दुर्गा से है। यहाँ बात क्षेत्रीयता की नहीं है, बात पूरे हिन्दू समाज की है, भारतीय इतिहास की है, श्रीराम और माँ दुर्गा के भक्तों को अलग-अलग कर के देखने वालों की साज़िश के पर्दाफाश करने की है।

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अनुपम कुमार सिंह
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भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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