तनिष्क का विज्ञापन आता है, जिसमें एक हिन्दू महिला की मुस्लिम परिवार में शादी दिखा कर ‘लव जिहाद’ को बढ़ावा दिया गया। तनिष्क के इस विज्ञापन पर काफी विवाद हुआ और आम लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं। नतीजा यह निकला कि तनिष्क ने इस मामले पर सफाई जारी की और बिना माफ़ी माँगे विज्ञापन हटा लिया। कुल मिला कर देश के बड़े ब्रांड के लिए विज्ञापन की मदद से धार्मिक समरसता को बढ़ावा देने की आड़ में नैतिक उपदेश देने का ज़रिया बन गया है।
तनिष्क ने अपने विज्ञापन में अंतर धार्मिक विवाह की आदर्श तस्वीर दिखाने का प्रयास किया, जो कि भारत में होने वाले असल अंतर धार्मिक विवाहों की सच्चाई से कहीं अलग है। विज्ञापन में ऐसा दिखाया गया कि एक मुस्लिम परिवार हिन्दू बहू की परम्पराओं के क्रियान्वन में मदद कर रहा है। एक बार के लिए हम ऐसे मामलों की सामाजिक सच्चाई को नज़रअंदाज़ भी कर दें तो एक हिन्दू और मुस्लिम के बीच शादी का क़ानूनी पहलू बहुत साफ़ तस्वीर पेश करता है। मुस्लिम क़ानून के अनुसार हिन्दू और मुस्लिम के बीच होने वाली शादी की सच्चाई कुछ ऐसी है:
हिन्दू धर्म से हट कर इस्लाम शादी को बराबर बढ़ावा देता है और ब्रह्मचर्य के सिद्धांत को सिरे से खारिज करता है। इस्लाम धर्म के अनुसार शादी समझौते या अनुबंध जैसा है, जबकि हिन्दू धर्म में इसे पवित्र प्रक्रिया और बंधन माना गया है। मुस्लिम क़ानून के अनुसार एक मुस्लिम और हिन्दू के बीच होने वाली शादी को वैधानिक नहीं माना जाता है। इसलिए बहुत से अधिकार ऐसे हैं, जिनका शादी के दौरान या शादी के बाद कोई उल्लेख ही नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ऐसी शादियों से होने वाले बच्चों का पिता की संपत्ति पर पूरा अधिकार होता है।
इस्लाम में कुल 3 तरह के निकाह होते हैं, साही, बाटिल और फ़ासिद।
साही निकाह को मुस्लिम क़ानून के अनुसार वैधानिक माना गया है, जिसमें हर प्रकार के नियमों और दिशा-निर्देशों का पालन किया जाता है। इस तरह के निकाह में पति और पत्नी दोनों के पास हर ज़रूरी अधिकार होते हैं। इस तरह के निकाह से होने वाले बच्चों का अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर पूरा अधिकार होता है और उनके पास अपने घर वालों की पहचान होती है।
बाटिल निकाह में दम्पति को समान अधिकार नहीं मिलते हैं और इनसे होने वालो बच्चों को भी अवैध माना जाता है। इस्लामी क़ानून में निम्न कारणों के चलते इस निकाह को व्यर्थ माना जाता है:
जब दम्पति में रक्त सम्बंध हो या पूर्वज समान हों
रिश्ते में ही सम्बंध हुआ हो
पालन पोषण
किसी दूसरे व्यक्ति की पत्नी से निकाह या क़ानूनी अटकल मौजूद होने के बावजूद विधवा से निकाह।
इस तरह के निकाह में विरासत सम्बंधी अधिकारों के लिए कोई मान्यता नहीं होती है। किसी सूरत में निकाह समाप्त होने पर पत्नी रिवाज़ी दहेज़ की अधिकारी होती है।
फ़ासिद निकाह में हिन्दू और मुस्लिम के बीच होने वाले निकाह शामिल होते हैं। इस तरह के निकाहों को मुस्लिम क़ानून के अनुसार अस्थायी माना जाता है क्योंकि इसमें तमाम औपचारिकताएँ और दिशा-निर्देश नहीं हैं। हालाँकि इस तरह की अनियमितताएँ निकाह को क़ानून के दायरे से बाहर नहीं करती हैं लेकिन उन्हें वैधानिक बनाने के लिए अनियमितताओं को हटाना पड़ेगा।
इस तरह के तमाम कारण, जिनके तहत निकाह अस्थायी या फासिद बनता है, उसमें सबसे बड़ा कारण है धर्म। हालाँकि धर्म का अंतर तब आड़े नहीं आता जब एक गैर-मुस्लिम पत्नी धर्म परिवर्तन करके इस्लाम स्वीकार कर लेती है या यहूदी अथवा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेती है। जबकि एक गैर-मुस्लिम पति के मामले में उसे इस्लाम कबूल करना होता है। यानी एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ मूर्ति पूजा या अग्नि की पूजा करने वाले व्यक्ति की शादी को इस्लाम के मुताबिक़ सही नहीं माना जाता है।
ऐसे में अगर हम इस क़ानून को विज्ञापन पर लागू करते हैं तो हिन्दू बहू और मुस्लिम पति के चलते यह निकाह फ़ासिद माना जाएगा। जब तक यह ख़त्म नहीं होता, तब तक इसमें कोई वैधानिक पहलू शामिल नहीं होता है और ख़त्म होने के बाद भी पत्नी सिर्फ दहेज़ की हक़दार होगी और उसका अपने पति की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा। यानी तनिष्क में जिस तरह की शादी दिखाई गई है वह इस्लाम के अनुसार मान्य नहीं है क्योंकि उसका अपने पति की सम्पत्ति पर बराबर का अधिकार ही नहीं होगा।
इसके अलावा एक मूटा होता है, जिसका एक ही मतलब होता है इस्तेमाल या मज़ा। इस तरह की शादियाँ अस्थायी रूप से सिर्फ और सिर्फ क्षणिक सुख के लिए की जाती हैं। इस तरह की शादी मुस्लिमों के किसी भी वर्ग में मान्य नहीं हैं सिवाय शिया मुस्लिमों के। हालाँकि उनमें भी इस तरह की शादी का चलन लगभग न के बराबर है। इस शादी में साथ रहने की समयावधि भी तय होती है।
एक मुस्लिम व्यक्ति इस तरह की शादी का समझौता मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या हिन्दू धर्म की महिला के साथ कर सकता है। वहीं मुस्लिम महिला किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के साथ इस तरह की शादी का समझौता नहीं कर सकती है। इसके अलावा शादी में समान अधिकारों के लिए कोई जगह नहीं होती है। इतना ही नहीं, एक मुस्लिम व्यक्ति इस तरह की शादी कितनी भी महिलाओं के साथ कर सकता है।