बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने कहा है कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 (आरटीई अधिनियम) के 25% कोटे में सामाजिक रूप से वंचित बच्चों को प्रवेश नहीं दे सकते। ऐसा वे स्वेच्छा से भी नहीं कर सकते। न्यायालय ने इसे संविधान की अवमानना बताया है।
जस्टिस मंगेश एस पाटिल और जस्टिस शैलेश पी ब्रह्मेे की पीठ ने कहा कि इस तरह के प्रवेश की अनुमति देना संवैधानिक संरक्षण का उल्लंघन होगा, जो अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम से छूट देता है। इसके बाद कोर्ट ने याचिकाकर्ता की याचिका खारिज कर दी और और कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान आरटीई कोटा का विकल्प नहीं चुन सकते।
हाई कोर्ट की पीठ ने कहा, “एक बार जब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने आरटीई अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 30(1) के विरुद्ध मान लिया है, तो यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए याचिकाकर्ताओं जैसे अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम के प्रावधानों के अधीन होने की अनुमति नहीं दे सकता।”
अदालत ने आगे कहा, “भले ही वे (अल्पसंख्यक संस्थान) आरटीई कोटे के तहत छात्रों को प्रवेश देने के लिए तैयार और इच्छुक हों, उन्हें ऐसा करने की अनुमति केवल आरटीई अधिनियम के प्रावधानों को उन पर लागू करके ही दी जा सकती है, जो कि प्रमति शैक्षिक और सांस्कृतिक ट्रस्ट (सुप्रा) में घोषणा के आधार पर अपने आप में निषिद्ध है।”
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, बॉम्बे हाई कोर्ट के औरंगाबाद पीठ का यह निर्णय आरटीई अधिनियम की धारा 1(5) पर आधारित था। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह अल्पसंख्यक संस्थानों लागू नहीं होता है। कोर्ट ने प्रमति शैक्षिक और सांस्कृतिक ट्रस्ट मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का भी उल्लेख किया।
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अल्पसंख्यक संस्थानों पर आरटीई अधिनियम लागू करना संविधान के अनुच्छेद 30(1) के ‘अधिकार से बाहर’ होगा। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकारों की गारंटी देता है। कोर्ट ने यह फैसला 14 अगस्त को सुनाया था।
याचिकाकर्ताओं ने आरटीई अधिनियम और इसके तहत बनाए गए 2011 नियमों के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी थी। उनका तर्क था कि ये अनुच्छेद 14, 19 (1) और 30 के तहत उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। हालांकि, अदालत ने इन दावों को खारिज कर दिया और कहा कि याचिकाकर्ता आरटीई अधिनियम या नियमों की वैधता को चुनौती नहीं दे सकते।
याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायालय ने माना कि इज़ाक इंग्लिश मीडियम स्कूल ने पहले भी आरटीई कोटे के तहत छात्रों को प्रवेश दिया था और शैक्षणिक वर्ष 2017-18 से 2019-20 के लिए उसे प्रतिपूर्ति (Reimburse) नहीं की गई थी। न्यायालय ने सरकार को दावे की जाँच कर छह सप्ताह के भीतर स्कूल को प्रतिपूर्ति करने का निर्देश दिया है।
दरअसल, यह मामला अहमदनगर के इज़ाक इंग्लिश मीडियम स्कूल और आनंद मेडिकल एंड एजुकेशन फाउंडेशन से जुड़ा था। ये दोनों ही अल्पसंख्यक संचालित इंग्लिश मीडियम स्कूल चलाते हैं। इन संस्थानों ने 15 मार्च 2013 को जारी एक परिपत्र से जुड़े सरकारी निर्देश को चुनौती दी थी। इसमें अल्पसंख्यक स्कूलों को आरटीई अधिनियम के 25% कोटे से बाहर रखा गया था।
स्कूलों ने तर्क दिया था कि उन्हें स्वैच्छिक रूप से आरटीई कोटे के तहत छात्रों को प्रवेश देने की अनुमति दी जानी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने पिछले वर्षों में कोटे के तहत प्रवेश लेने वाले छात्रों के लिए प्रतिपूर्ति की भी माँग की। हालाँकि, न्यायालय ने इन तर्कों को खारिज कर दिया।