Friday, November 22, 2024
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जब प्रतापपुर में गिरी थीं 13 लाशें: लालू के लाडले शहाबुद्दीन के घर छापेमारी की कीमत पुलिस को ही चुकानी पड़ी थी

मोहम्मद शहाबुद्दीन पर सीधा राजद सुप्रीमो और 15 साल तक बिहार में सत्ता के सर्वेसर्वा रहे लालू प्रसाद यादव का हाथ था। फ़िलहाल वो छोटेलाल गुप्ता नामक वामपंथी नेता का अपहरण कर के उन्हें गायब कराने सहित कई मामलों में जेल की सज़ा भुगत रहा है। जबकि यही वामपंथी दल आज राजद के साथ गठबंधन बना कर विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे हैं।

बिहार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसे मोहम्मद शहाबुद्दीन का नाम न सुना हो। खासकर सीवान के लोगों में तो उसका भय अब तक व्याप्त है, जिन्होंने लालू यादव के जंगलराज के दिनों में उसका आतंक को देखा-सुना है। और जो सीवान के हैं, वो टेढ़ीघाट के प्रतापपुर में स्थित शहाबुद्दीन की कोठी के बारे में ज़रूर जानते हैं। कहा जाता है कि वहाँ कितने गायब लोगों के कंकाल हो सकते हैं, इसकी शायद कोई गिनती ही नहीं है। उसी प्रतापपुर में मार्च 15, 2001 में कुछ ऐसा हुआ था, जिसने पूरे देश को थर्रा दिया था। प्रतापपुर में हुए उस मुठभेड़ और मोहम्मद शहाबुद्दीन की कहानी लोग आज भी सुनाते हैं।

सीवान: प्रतापपुर मुठभेड़ और मोहम्मद शहाबुद्दीन

प्रतापपुर में हुई मुठभेड़ में कुल 13 लोग मारे गए थे। देखा जाए तो एक तरह से ये राज्य की तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी और राज्य की पुलिस के बीच का मुठभेड़ थी। शहाबुद्दीन के साथ-साथ राजद के कई ऐसे गुंडे-बदमाश थे, जिन्होंने पुलिस के साथ मुठभेड़ की। दोपहर को शुरू हुई गोलीबारी देर रात तक चली, जिसमें न सिर्फ 12 राजद नेता, बल्कि एक पुलिसकर्मी की भी जान चली गई। ये वो समय था, जब बिहार में लाशें गिरनी आम घटना थी।

लालू यादव तब भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने में लगे हुए थे क्योंकि केंद्र में जब-जब भाजपा आती है, इन विपक्षी पार्टियों का ‘सेक्युलरिज्म’ का राग जाग उठता है और वो गोलबंदी की बातें करने लगते हैं। इसी तरह जब ये घटना हुई, तब बिहार के तत्कालीन डी-फैक्टो मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू यादव ‘पीपल्स फ्रंट’ के गठन के लिए दिल्ली जाने वाले थे लेकिन इस घटना के कारण उन्हें यह दौरा स्थगित करना पड़ा।

स्थिति ये हो गई थी कि सीवान में पुलिस की ही सुरक्षा पर ख़तरा उत्पन्न हो गया। इसके बाद सीआरपीएफ की 3 कंपनियों को वहाँ के लिए रवाना किया गया। साथ ही राँची से भारतीय सेना की एक बटालियन को वहाँ भेजा गया। चूँकि सीवान पुलिस शहाबुद्दीन को गिरफ्तार करने में असमर्थ रही थी, इसीलिए अतिरिक्त सुरक्षा बलों को पुलिस की मदद के लिए भेजा गया। साथ ही शांति-व्यवस्था नाम की कोई चीज तो जिले में थी ही नहीं।

लेकिन, ये सब कुछ किया जाता, उससे पहले ही तत्कालीन सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन पुलिस की नाक के नीचे से सीवान जिले से बाहर निकल कर फरार हो चुका था। आखिर हो भी क्यों न, उसके पीछे पूरी बिहार सरकार खड़ी थी। वो लालू यादव का प्यारा था, जिसके लिए राज्य में कुछ भी करने की छूट थी। हत्या, बलात्कार, रंगदारी और अपहरण का तो सीवान गढ़ बन गया था और पूरे बिहार में लीड कर रहा था। रोज न जाने कितने ही लोग गायब हो रहे थे।

दरअसल, इस मुठभेड़ के पीछे मोहम्मद शहाबुद्दीन का वो रवैया था, जो बर्ताव वो पुलिस अधिकारियों के साथ किया करता था। कहते हैं, सीवान में उसने खुलेआम एक डीएसपी को थप्पड़ मार दिया था, जिससे पुलिस भी उससे खासी खफा थी लेकिन प्रशासन के हाथ बँधे हुए थे। एक तो वो सांसद था, ऊपर से बिहार में सत्ता का दुलारा था और खुद एक बहुत बड़ा गुंडा था। हालाँकि, अंत में पुलिस ने भी तंग आकर अपने तरीके से बदला लेने की ठानी।

प्रतापपुर मुठभेड़ का कारण: परीक्षा केंद्रों के निरीक्षण के लिए निकला था मोहम्मद शहाबुद्दीन

प्रतापपुर गाँव सीवान से 17 किलोमीटर दूर था और मोहम्मद शहाबुद्दीन के सारे गैर-क़ानूनी काम वहीं हुआ करते थे। वहाँ अपहरण के बाद लोगों को लाया जाता था। कहा जाता है कि आए दिन सीवान में गायब हुए लोगों को यहीं ठिकाने लगाया जाता था। प्रतापपुर एक तरह से सीवान की ‘राजधानी’ बन गया था, जहाँ से सिर्फ हुक्म चलता था। वहाँ पुलिस की एंट्री की तो अनुमति ही नहीं थी, छापेमारी तो दूर की बात।

उस समय मैट्रिक की परीक्षाएँ चल रही थीं। ये सारा गड़बड़झाला तब शुरू हुआ, जब मोहम्मद शहाबुद्दीन ने परीक्षाओं के दौरान इंस्पेक्शन की ठानी और वो सारे एग्जामिनेशन हॉल्स का दौरा करने लगा। वो और उसके गुंडे ‘कदाचार निवारण उड़न दस्ता’ बना कर ऐसा कर रहे थे। अर्थात, बच्चों की परीक्षाएँ कैसे होनी चाहिए, एक अपराधी इस पर अपना हुक्म चला रहा था। ऐसे ही एक परीक्षा सेंटर पर पुलिसकर्मियों ने उसकी मौजूदगी से ऐतराज जताया।

इसके बाद वहाँ मौजूद डीएसपी और शहाबुद्दीन के बीच कहासुनी शुरू हो गई। एक और बात ध्यान देने लायक है कि मोहम्मद शहाबुद्दीन के साथ उस वक़्त गुंडे-बदमाश ही चलते थे, जो राजद नेता का चोला ओढ़े रहते थे। उन्हीं में से एक अपराधी को डीएसपी ने गिरफ्तार करना चाहा, जिसके बाद शहाबुद्दीन ने उन्हें थप्पड़ जड़ दिया। यानी, एक ऑन ड्यूटी पुलिस अधिकारी के साथ गाली-गलौज किया गया और उस पर हाथ भी उठाया गया।

जिले के अधिकतर पुलिसकर्मी आक्रोशित हो गए। उनके हाथ में हथियार थे लेकिन वो असहाय थे। बड़े अधिकारी ही सारे निर्णय लेते थे और एक तरह से राजद के गुंडे-बदमाशों को क़ानूनी कार्रवाइयों से छूट प्राप्त थी। अपमानित पुलिसकर्मियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया और डीआईजी को ही स्थानीय सर्किट हाउस में बँधक बना लिया। ये पुलिसकर्मी खुद के अपमान से जलते हुए सांसद के खिलाफ कार्रवाई की माँग कर रहे थे।

यहाँ तक कि डीएम और एसपी की गाड़ियों तक के साथ तोड़फोड़ की गई। इन पुलिसकर्मियों ने अंततः सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के पैतृक गाँव प्रतापपुर स्थित उसके आवास पर छापेमारी करने का आदेश ले ही लिया और उस पर डीएम-एसपी के हस्ताक्षर भी करा लिए। इन सबके बीच राज्य सरकार को कुछ भी नहीं पता चला क्योंकि अगर वहाँ इसकी जरा भी भनक लगती तो शायद आवाज़ उठाने वाले पुलिसकर्मी ही सस्पेंड कर दिए जाते।

प्रतापपुर मुठभेड़: सीवान से 17 किलोमीटर दूर खेला गया मौत का तांडव

पुलिसकर्मी जैसे ही प्रतापपुर पहुँचे, वहाँ शहाबुद्दीन के गुर्गों ने फायरिंग शुरू कर दी। फिर दोनों तरफ से जबरदस्त गोलीबारी हुई। दोनों तरफ से 1000 राउंड्स से भी ज्यादा की गोलीबारी हुई। इससे आप समझ सकते हैं कि शहाबुद्दीन के घर में हथियार और गोला-बारूद किस कदर भरे रहे होंगे। ये वो दौर था, जब बिहार में एके-47 का उपयोग आम हो गया था और आए दिन हत्याओं में शार्पशूटर अपराधी इसका प्रयोग करते थे।

प्रतापपुर के बगल में ही स्थित है खलीलपुरा गाँव, जहाँ शहाबुद्दीन ने कई अपराधी पाल रखे थे। वहाँ ग्रामीणों ने ही घेर कर सब-इंस्पेक्टर रामसागर सिंह को मार डाला। उधर सीवान शहर में भी शहाबुद्दीन ने अपने गुर्गों को सक्रिय कर दिया और इधर गोलीबारी चल ही रही थी, तब तक पुलिस थाने पर हमला हो गया और पेट्रोल बन लेकर पहुँची भीड़ ने आगजनी शुरू कर दी। एक पुलिस जीप को आग के हवाले कर दिया गया।

गोलीबारी के वक़्त मोहम्मद शहाबुद्दीन अपने प्रतापपुर स्थित उस घर में ही मौजूद था, लेकिन वो मुठभेड़ के दौरान ही किसी तरह वहाँ से भाग निकला और फरार हो गया। हालाँकि, बाद में वो मीडिया चैनल वालों को इंटरव्यू भी दे रहा था। मुठभेड़ के अगले ही दिन उसने ‘स्टार न्यूज़’ से कहा कि उसके लोगों ने ‘आत्मरक्षा’ में गोलीबारी की है और वो किसी भी सूरत में आत्मसमर्पण करने नहीं जा रहा है। ये था लालू राज में अपराधियों की बेखौफी का आलम!

उसके घर से एक एके-47 राइफल, 9mm पिस्टल और कुछ हैंड ग्रेनेड मिले। हालाँकि, उस समय तक वह अपने घर से हथियारों को ठिकाने लगा चुका था, वरना वहाँ से और भी हथियार मिल सकते थे। इसके बाद गाँव में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को रेकी के लिए भेजा गया। राँची से सेना की दो कम्पनी और दानापुर से एक कम्पनी भेजी गई। हालाँकि, आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि ये पहला मौका नहीं था जब शहाबुद्दीन ने पुलिस के साथ गोलीबारी की।

इससे पहले 1996 लोकसभा चुनाव के दौरान मतदान के दिन ही उसके गुर्गों ने तत्कालीन एसपी एसके सिंघल पर फायरिंग कर दी थी। एसके सिंघल फिलहाल बिहार के डीजीपी हैं। गुप्तेश्वर पांडेय के समय-पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर राजनीति में जाने के कारण ये पद खाली हुआ, जिसके लिए डीजी होमगार्ड एसके सिंघल बिहार सरकार की पहली पसंद बने। तब सीवान में चुनावों के दौरान शहाबुद्दीन के विपक्षी उम्मीदवारों का पोस्टर तक लगाने की अनुमति नहीं होती थी।

प्रतापपुर मुठभेड़ से बौखलाए मोहम्मद शहाबुद्दीन ने तब सीवान के एसपी बच्चू सिंह मीणा को मार डालने की कसम खाई थी और आसपास के जिलों के पुलिसकर्मियों को भी धमकाया था, जिनकी मदद से उसके घर पर छापेमारी हुई थी। व्यापारियों ने जिला छोड़ना शुरू कर दिया था और कारोबारी तो डर के मारे दुकानें खोलते तक ही नहीं थे। हालाँकि, तब सीवान के डीएम थे मोहम्मद राशिद खान, जिन पर शहाबुद्दीन की करतूतों के समर्थन का आरोप लगा था और पुलिसकर्मी उनसे खासे खफा थे।

हालाँकि, कई लोग इसे तब की राजनीति से भी जोड़ कर देखते हैं क्योंकि प्रतापपुर मुठभेड़ को मुस्लिमों की सुरक्षा का मुद्दा बना दिया गया था और ये वो दौर था, जब रंजन यादव लालू से बगावत पर उतर आए थे। बगावती कैम्प ने इसे ‘अल्पसंख्यकों की सुरक्षा’ से जोड़ा। कुछ नेताओं का कहना था कि रंजन यादव से वफ़ादारी दिखाने के कारण ही मोहम्मद शहाबुद्दीन को मार डालने के लिए ‘साजिश रची गई’ थी।

इसके बाद सरकारी कार्रवाई शुरू हुई और एसपी सहित कई अधिकारियों का तबादला हुआ। बिहार सरकार में मंत्री शिवानंद तिवारी के नेतृत्व में मंत्रियों की टीम ने घटनास्थल का दौरान किया और उन्हें रिपोर्ट तैयार कर सरकार को भेजने की जिम्मेदारी दी गई। तिवारी ने इसे ‘कोल्ड ब्लडेड मर्डर’ करार दिया और एनकाउंटर को फेक बताया। मृतकों के परिजनों को एक सरकारी नौकरी और 2.5 लाख रुपए बतौर मुआवजा दिया गया।

शिवानंद तिवारी ने पुलिस को ही क्रूर बता दिया और दावा किया कि पुलिसकर्मियों ने अपने वरिष्ठों के आदेश की अवहेलना की। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में उलटा अधिकारियों के खिलाफ ही कार्रवाई की अनुशंसा कर दी। मोहम्मद शहाबुद्दीन के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास और अवैध हथियार रखने के मामले दर्ज कर के इतिश्री कर ली गई। पुलिस-प्रशासन को एक बार फिर एक तरह से बता दिया गया, बिहार में अपराध का साम्राज्य है।

मोहम्मद शहाबुद्दीन और सीवान में उसका साम्राज्य

सीवान एक ऐसा शहर है, जहाँ 90 के दशक में और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के दशक में सिर्फ मोहम्मद शहाबुद्दीन की ही तूती बोलती थी। विभिन्न ठेकों का टेंडर हो या फिर मुखिया से लेकर जिला परिषद तक के चुनाव, हर जगह उसकी ही पसंद चलती थी। उसने 1996, 98, 99 और 2004 में यहाँ से सांसद बन कर जीत का चौका लगाया। अब जब शहाबुद्दीन जेल में है, उसकी पत्नी हीना शहाब 2009, 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुकी हैं।

मोहम्मद शहाबुद्दीन पर सीधा राजद सुप्रीमो और 15 साल तक बिहार में सत्ता के सर्वेसर्वा रहे लालू प्रसाद यादव का हाथ था। वो राजद की नेशनल एग्जीक्यूटिव कमिटी का हिस्सा था। फ़िलहाल वो छोटेलाल गुप्ता नामक वामपंथी नेता का अपहरण कर के उन्हें गायब कराने सहित कई मामलों में जेल की सज़ा भुगत रहा है। ये इतर बात है कि यही वामपंथी दल आज राजद के साथ गठबंधन बना कर विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि शहाबुद्दीन ने सिर्फ लोकसभा चुनाव ही जीता, इससे पहले वो जीरादेई विधानसभा क्षेत्र से 2 बार विधायक चुना जा चुका है। उसे उसके समर्थक ‘साहेब’ कह कर बुलाते हैं। सजायाफ्ता गैंगस्टर शहाबुद्दीन पर अपहरण, हत्या और लूट के इतने मामले दर्ज हैं कि उसके सामने बड़े से बड़े अपराधी भी छोटे लगें। और सबसे बड़ी बात तो ये है कि बिहार का ये गैंगस्टर शिक्षित है, काफी पढ़ा-लिखा है।

आर्ट्स से मास्टर्स की डिग्री लेने वाले मोहम्मद शहाबुद्दीन ने राजनीतिक विज्ञान में पीएचडी की डिग्री ले रखी है। शुरू में उसने जनता दल के टिकट पर दो विधानसभा चुनाव जीते लेकिन लालू प्रसाद द्वारा राजद के गठन के साथ ही उसका प्रभाव बढ़ता ही चला गया। उस समय कहा जाता था कि मोहम्मद शहाबुद्दीन जो भी करे, उसे क़ानूनी कार्रवाइयों से छूट प्राप्त है और उसे सत्ता का पूर्ण संरक्षण मिला हुआ है।

2004 के चुनाव में तो स्थिति ये थी कि शहाबुद्दीन के जेल में होने के बावजूद चुनाव प्रचार के दौरान जिसने भी विपक्षी उम्मीदवारों के पोस्टर-बैनर भी टाँगे वो गायब हो गया। इस चुनाव में न जाने कितने अपहरण और हत्या की वारदातें हुईं। जेल से निकल कर अस्पताल में शिफ्ट होकर शहाबुद्दीन जिससे चाहे उससे मिल सकता था। उसके लिए कोई रोकटोक नहीं थी। उस चुनाव में विपक्ष एक तरह से था ही नहीं।

जब चुनाव हुए तो साइलेंट वोटर्स का भी बोलबाला रहा और जदयू उम्मीदवार ने 2 लाख से भी ज्यादा (33%) मत पाकर शहाबुद्दीन को तगड़ी फाइट दी, भले ही वो जीत गया। शाहबुद्दीन के ईगो को इससे ठेस पहुँची और उसके बाद जदयू कार्यकर्ताओं की हत्याएँ शुरू हो गईं। जिस गाँव में जदयू उम्मीदवार को ज्यादा मत मिले थे, वहाँ का मुखिया ही मारा गया। जदयू उम्मीदवार के घर पर ताबड़तोड़ गोलीबारी हुई। वो जदयू उम्मीदवार आज सीवान के सांसद हैं और भाजपा किसान मोर्चा के उपाध्यक्ष भी।

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