Sunday, December 22, 2024
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‘मीलॉर्ड्स, आलोचक ट्रोल्स नहीं होते’: भारत के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक बिना नाम और बिना चेहरा वाले ट्रोल का पत्र

अगर आपको इन बातों से दुःख पहुँचा तो क्षमा करें, मैं पास के सांप्रदायिक मंदिर में प्रार्थना करने जा रहा हूँ कि मैं भी प्रशांत भूषण की तरह एक रुपए का जुर्माना देकर निकल जाऊँ।

भारत के सम्मानित मुख्य न्यायाधीश महोदय,

मैं आपको ये पत्र उन ट्रोल्स की तरफ से लिख रहा हूँ, जिनका न तो कोई नाम है और न ही कोई चेहरा। इससे पहले कि मैं बड़बड़ाना शुरू करूँ, मुझे ये बताने की अनुमति दीजिए कि ट्रोल्स का मतलब क्या होता है और क्यों वो अपना नाम और चेहरा दुनिया के सामने लाना पसंद नहीं करते। ट्रोल्स वो होते हैं जो प्रभावशाली लोगों की आलोचना करते हैं। ये प्रभावशाली लोग राजनेता, अधिकारी, सेलेब्रिटी पत्रकार, बुद्धिजीवी, कारोबारी या फिर न्यायाधीश – इनमें से कोई भी हो सकते हैं।

फिर आप ज़रूर ये सोच रहे होंगे कि हमें ट्रोल्स ही क्यों कहा जाता है, आलोचक क्यों नहीं? ऐसा इसलिए, क्योंकि हम उन लोगों की आलोचना करते हैं जो अपनी आलोचना पसंद नहीं करते। उदाहरण के लिए इलीट वर्ग के पत्रकारों को ही ले लीजिए। वो खुद को सबसे सवाल पूछने की शक्ति चाहते हैं, लेकिन जब उनसे कोई सवाल पूछता है तो वो इसे पत्रकारिता पर हमला ठहरा देते हैं। वो खुद के बनाए हुए तथाकथित ‘लोकतंत्र के चौथे स्तंभ’ वाले वर्ग में रहते हैं।

इसीलिए, वो लोग हमें ट्रोल्स की संज्ञा देते हैं। जैसे ही वो सोशल मीडिया के आलोचकों को ट्रोल्स कहना शुरू करते हैं, उनके साथ कई और लोग जुड़ कर भी हमें ट्रोल्स ही कहने लगते हैं। हाँ, ये अलग बात है कि हमें ये पसंद आता है और हम ख़ुशी से इसे स्वीकार करते हैं। फिर हमारा कोई चेहरा और नाम क्यों नहीं है? आपसे कुछ नहीं छिपा है मीलॉर्ड, आप तो जाते हैं कि शक्तिशाली लोगों को जब वहाँ ले जाया जाता है जहाँ उन्हें असुविधा हो, फिर वो कैसी प्रतिक्रियाएँ देते हैं?

उन्हें एक्सपोज करने पर वो क्या करते हैं। वो हमारी नौकरी के पीछे पड़ सकते हैं। हमारे परिवार के पीछे पड़ सकते हैं। कभी-कभी तो हमें गुंडों से पिटवा भी सकते हैं। नाम और चेहरा न दिखाने का एक फायदा ये भी है कि ये शक्तिशाली लोग मुद्दे को भटका नहीं सकते और उन्हें जवाब देना पड़ता है, क्योंकि दूसरी स्थिति में वो धर्म, जाति या समुदाय को लेकर मुद्दे को भटका सकते हैं। फिर ये ‘गालीबाज ट्रोल्स’ कौन हैं? असल में ट्रोल्स तो मजाक-मस्ती, व्यंग्य या हास्य-विनोद का सहारा लेते हैं।

वो तथ्यों पर बात करते हैं, गालियों से नहीं। मैं हूँ या कोई और, उसे गाली देकर ट्रोल्स को बदनाम नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे शक्तिशाली लोगों को भी कार्रवाई का एक बहाना मिल जाता है। केवल ट्रोल्स ही नहीं, बल्कि गालियों का प्रयोग करने वाले किसी भी व्यक्ति से कानूनी तौर पर निपटा जाना चाहिए, भले ही वो किसी महिला के लिए ‘हरामखोर’ शब्द का इस्तेमाल करने वाला राज्यसभा सांसद हो या फिर किसी पत्रकार को गाली बकने वाला कोई अभिनेता हो।

खैर, गाली देने वाले ट्रोल्स की संख्या कम ही है। मीलॉर्ड, अब मैं मुद्दे पर आता हूँ। आपने कुछ दिनों पहले केंद्र सरकार की एजेंसियों को निर्देश दिया कि वो सोशल मीडिया के माध्यम से जजों से सवाल पूछने वाले ट्रोल्स के विरुद्ध कार्रवाई करें। अगर ये बयान किसी पत्रकार या राजनेता की तरफ से आया होता, तो हमारे लिए ये सम्मान की बात होगी। लेकिन, आपकी तरफ से इस बयान का आना हमारे लिए दुःख भरा है। हम आपकी तरफ अभिव्यक्ति की आज़ादी के रक्षक के रूप में देखते हैं।

जैसा कि जस्टिस गौतम पटेल ने कहा, ‘बहुत ज्यादा मतभेद के अधिकार’ जैसा कुछ नहीं होता। इसी तरह जस्टिस चंद्रचूड़ हमें खड़े होने और मतभेद प्रकट करने वाला बनने के लिए कहते हैं। मतभेद प्रकट करने वालों के अधिकार की रक्षा करते हुए दिल्ली उच्च-न्यायालय कहता है कि अगर आपको पुस्तक पसंद नहीं है तो आप इसे मत पढ़िए। हजारों ऐसे उदाहरण हैं, जब न्यायपालिका अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए खड़ी हुई। जैसा कि हमने पहले बताया, जो लोग अपनी आलोचना पसंद नहीं करते वो हमें ट्रोल्स कहते हैं।

अब उन लोगों की सूची में न्यायपालिका का नाम भी जुड़ गया है – बड़े दुःख के साथ ये कहना पड़ रहा है। हमें तो बताया गया है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, भले ही वो कानून बनाने वाला या कानून को लागू करने वाला ही क्यों न हो। किसी जज या उसके फैसले की अपनी व्यक्तिगत क्षमता में आलोचना करना अपराध नहीं होना चाहिए। लोगों को अदालत का आदेश के पालन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, लेकिन उन फैसलों की आलोचना से नहीं।

असल में न्यायपालिका को ट्रोल्स नहीं, बल्कि वो मीडिया संस्थान नुकसान पहुँचा रहे हैं जो अदालत के आदेश को अपने हिसाब से पेश करते हैं। वो अपनी ज़रूरत के हिसाब से अदालत के आदेश को कोई भी एंगल दे देते हैं। वो जजों द्वारा मौखिक रूप से दिए गए बयान को हैडलाइन के रूप में प्रयोग में लाते हैं, जो असली आदेश से काई अलग हो सकता है। फेक न्यूज़ से ज्यादा न्यायपालिका को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाता और बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि न्यायपालिका अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर फेक न्यूज़ फैलाने वालों को हमेशा संरक्षण देती है।

ट्रोल्स के पीछे पड़ने की बजाए जजों को फेक न्यूज़ फैलाने वालों के खिलाफ कानून बनाने का निर्देश देना चाहिए। मैं प्रेस की आज़ादी के विरुद्ध नहीं हूँ, लेकिन आज़ादी की कीमत होती है और वो एक ही है – सच्चाई। प्रेस की आज़ादी झूठ बोलने की आज़ादी नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि जजों को बिना तैयारी के बयान देने से बचना चाहिए। जब एक जज के मन में पहले से कोई खास विचार होता है, निष्पक्ष फैसले की आशा कम हो जाती है और फैसले पर उसकी छाप नजर आती है।

मैं इस पत्र का इस उम्मीद के साथ अंत कर रहा हूँ कि न्यायपालिका उन ट्रोल्स की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को संरक्षण देगी, जिनके पीछे पहले से ही कई शक्तिशाली लोग पड़े हुए हैं। मुझे आशा है कि अदालत स्वतः संज्ञान लेकर ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ और ट्रोल्स के अधिकारों को बचाएगी। अगर आपको इन बातों से दुःख पहुँचा तो क्षमा करें, मैं पास के सांप्रदायिक मंदिर में प्रार्थना करने जा रहा हूँ कि मैं भी प्रशांत भूषण की तरह एक रुपए का जुर्माना देकर निकल जाऊँ। वही प्रशांत भूषण, जिन्होंने न्यायपालिका पर हमसे भी ज्यादा कड़ा हमला किया।

आपका विश्वासी
बिना नाम और चेहरा (बिना शर्म का नहीं) का ट्रोल

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