Sunday, September 8, 2024
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G20 का केंद्र बना जो ‘भारत मण्डपम्’, वहाँ दुनिया की सबसे ऊँची नटराज प्रतिमा: जानिए तमिलनाडु में शिव के इस रूप के पीछे का इतिहास, तमिलनाडु के जंगल की कहानी

ऑल इंडिया रेडियो के पाक्षिक पत्रिका सारंग में मई-दिसंबर 1952 के अंक में भी शिव के मूर्तियों के रूपों पर एक विस्तृत लेख दिया गया है। इसमें लेखक ने शिव के नटराज रूप को लेकर लिखा है कि कवि और शिल्पी भाव-गगन में साथ-साथ समान स्तर पर उड़ते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु फिर शिल्पी की कल्पना का विहंग कुछ ऊँचा चढ़ता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार (6 सितंबर) को इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा X पर शेयर किए गए भगवान नटराज की तस्वीर को रिपोस्ट किया। इसे शेयर करते हुए पीएम ने कहा कि भारत मंडपम में भव्य नटराज प्रतिमा हमारे समृद्ध इतिहास और संस्कृति के पहलुओं को जीवंत करती है। जैसे ही दुनिया जी-20 (G20) शिखर सम्मेलन के लिए इकट्ठा होगी। ये भारत की सदियों पुरानी कलात्मकता और परंपराओं के सबूत के तौर पर खड़ी होगी।

‘अष्टधातु’ (आठ धातुओं) से बनी दुनिया की सबसे बड़ी नटराज प्रतिमा मंगलवार (5 सितंबर 2023) को भारत मंडपम के सामने स्थापित की गई। ये जगह राष्ट्रीय राजधानी में जी-20 शिखर सम्मेलन का स्थल है। पीएम मोदी ने इस प्रतिमा को भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति से जोड़ा है और सही मायने में इसके अपना सार्थक अर्थ है।

भगवान नटराज की ये मूर्ति भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें भगवान शिव ऊर्जा और जीवंतता का संचार करने वाले तांडव नृत्य मुद्रा में हैं। तो आइए हम इस मूर्ति अर्थात भगवान शिव के नटराज रूप के बारे में जानने की कोशिश करते हैं।

मशहूर मूर्तिकार राधाकृष्णन ने किया है तैयार

जी-20 शिखर सम्मेलन स्थल पर भारत मंडपम में स्थापित नटराज की अष्टधातु की ये मूर्ति 27 फीट ऊँची और 18 टन वजनी है। ब्रह्मांडीय ऊर्जा, रचनात्मकता और शक्ति का महत्वपूर्ण प्रतीक नटराज की यह प्रतिमा सम्मेलन में आकर्षण बनने जा रही है।

इसे तमिलनाडु के स्वामी मलाई के मशहूर मूर्तिकार राधाकृष्णन स्थापति और उनकी टीम ने रिकॉर्ड 7 महीने में तैयार किया है। चोल साम्राज्य काल से ही राधाकृष्णन की 34 पीढ़ियाँ मूर्तियाँ बना रही हैं। यह प्रतिष्ठित परियोजना संस्कृति मंत्रालय की टीम आईजीएनसीए ने संचालित किया है।

मध्यकालीन युग की नटराज प्रतिमा का है प्रतिरूप

भारत मंडपम में स्थापित नटराज की प्रतिमा मध्यकालीन युग की नटराज प्रतिमा का प्रतिरूप है, जो राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में चोल कांस्य की गैलरी में रखी गई है। संग्रहालय में रखी नटराज की यह संतुलित मूर्ति 12वीं शताब्दी में चोल राजवंश के संरक्षण में दक्षिण भारत में बनाई गई थी।

यह प्रतिमा 96.0 सेंटीमीटर लंबी, 82.8 सेंटीमीटर चौड़ा और 28.2 सेंटीमीटर ऊँची है। भगवान शिव की नटराज मूर्ति के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, कलात्मक और आध्यात्मिक महत्व है। यहाँ हम इन सभी के बारे में जानेंगे।

ऐतिहासिक महत्व

पुरातत्व, प्रतीकात्मक और साहित्यिक सबूतों से से पता चलता है कि शिव के आनंद तांडव मुद्रा वाली कांस्य प्रतिमाएँ पहली बार 7वीं और 9वीं शताब्दी के मध्य के बीच पल्लव काल में दिखाई दी थीं। पल्लव काल की नटराज की कांस्य मूर्तियाँ लकड़ी की मूर्तियों से प्रभावित थीं। चोल कारीगरों ने धातुओं के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया।

इस तरह से इन कारीगरों ने चिपटी और लंबी पल्लव कालीन मूर्तियों के उलट गतिशील और उभरी हुई आकृतियों का निर्माण करना शुरू कर दिया। इस वजह से इस तरह की नटराज मूर्ति को चोल राजवंश के युग का माना जा सकता है। तंजावुर या तंजाई राजनीतिक और औपचारिक दोनों अर्थों में शाही चोलों की राजधानी थी। इसके अलावा, राजधानी का भौतिक और प्रतीकात्मक केंद्र शिव को समर्पित एक मंदिर था।

इसे राजराजा चोल प्रथम के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। यह मंदिर राजघरानों के साथ बहुत नजदीकी से जुड़ा हुआ था। उस वक्त के राजा के नाम पर इस मंदिर का नाम ‘राजराजेश्वर मंदिर’ रखा गया। परिवार और राज्य के देवता के रूप में शिव चोलों और उनकी प्रजा के धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जगत में अहम स्थान रखते थे।

हालाँकि शिव को कई दिव्य भूमिकाओं में चित्रित किया गया था, लेकिन यह शिव की नटराज मुद्रा ही थी जो चोल शक्ति का प्रतीक बन गई। अलंकृत और वस्त्रों से सजी इस मूर्ति ने कई अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दक्षिणी भारत के कई शिव मंदिरों में एक अलग नाताना सभा होती है, जहाँ नटराज की मूर्ति स्थापित की जाती है।

सांस्कृतिक महत्व

चोल काल अपनी धातु की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। यह अवधि के दौरान कारीगरों के हासिल किए गए गहरे सौंदर्य और तकनीकी कौशल के लिए जाना जाता है। दक्षिण और उत्तर भारत दोनों में धातु की मूर्तियाँ ‘लॉस्ट-वैक्स’ प्रक्रिया का इस्तेमाल करके बनाई जाती थीं।

जहाँ दक्षिण भारत में ठोस मूर्तियाँ बनाई गईं, वहीं उत्तर भारत में खोखली मूर्तियाँ निर्मित हुईं। दक्षिण में निर्मित अधिकांश धातु की मूर्तियाँ पाँच धातुओं तांबा, चाँदी, सोना, टिन और सीसा की मिश्रधातु से बनी होती थीं। शैव मूर्तिकला में नृत्य करते हुए शिव को या तो क्रोधित या शांत रूप में चित्रित किया गया है।

किसी भी उदाहरण में शिव का नृत्य ब्रह्मांड के निर्माण और विनाश का संकेत देता है। इस नृत्य मुद्रा में शिव को आमतौर पर चार भुजाओं में डंडा, गज प्रतीक, विनाश की प्रतीक ज्वाला और सृजन के प्रतीक डमरू के साथ चित्रित किया जाता है। उनका आगे का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में होता है। उन्हें साँप का आभूषण पहने और बौने मुयालाका पर नृत्य करते हुए दिखाया जाता है, जो अज्ञानता और बुराई का प्रतीक है।

नटराज की प्रतिमा का कलात्मक महत्व

नटराज को ‘नृत्य का भगवान’ माना जाता है और उनका नृत्य उनके पंचकृत्य या शिव की पाँच गतिविधियों को बताता है। ये गतिविधियां सृजन, संरक्षण, विनाश, आवरण और अनुग्रह हैं। उनके दाहिने हाथ के अग्रभाग पर भुजंग-वलय रखा हुआ है। ये कुंडलित साँप के आकार का कंगन है। नटराज का बायाँ पैर दाहिनी ओर तिरछा उठा हुआ है और उनका एक पैर हवा में है, जो मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है।

शिव की छवि एक प्रभामंडल में घिरी हुई है, जो अग्नि का चक्र है। भगवान के सिर पर कुंडलित बालों (जटामुकुट) का मुकुट है, जो देवी गंगा, एक साँप, रत्नों, फूलों, एक अर्धचंद्र और एक मानव खोपड़ी से सुशोभित है। मुकुट से दोनों तरफ कई जटाएँ उभरकर क्षैतिज रूप से फैलती हुई प्रभामंडल को छूती हैं।

शिव को मोती का हार, पवित्र धागा यज्ञोपवीत और उरसुत्र (छाती का एक बैंड), अंगूठियाँ, पायल और दाहिने कान में एक मकर-कुंडल और बाएँ कान पर पात्र-कुंडल से सजाया जाता है। पहला मकर के आकार की बाली को संदर्भित करता है जो एक पौराणिक मछली जैसा प्राणी है, जबकि बाद वाला नारियल या पामइरा के पत्तों के आकार की बाली को संदर्भित करता है।

मूर्ति का आध्यात्मिक महत्व

पेन्नार और कावेरी नदियों के बीच मंदिरों का शहर चिदंबरम स्थित है। ये ‘नृत्य के भगवान’ नटराज से जुड़ा प्रमुख धार्मिक स्थल है। चोलों का मानना था कि चिदम्बरम शिव का सांसारिक घर और पवित्र स्थान था। वहाँ उन्होंने ‘आनंद का नृत्य’ यानी आनंद तांडव किया था।

मान्यता है कि नटराज के पीछे की केंद्रीय धार्मिक कहानी चिदम्बरम के तिलई जंगल में घटित हुई थी। इसका सातवीं शताब्दी के संत-कवियों के गीतों में कई तरह की दैवीय और राक्षसी गतिविधियों के तौर पर वर्णन किया है। कहा जाता है कि भगवान शिव तिलई के जंगलों में भिक्षाटन के लिए एक भिखारी के रूप में आए थे।

उन्होंने सही ढंग से पूजा-पाठ नहीं करने वाले ऋषियों को छलने और अपमानित किया। इसके बाद उन ऋषि-मुनियों और भगवान शिव के बीच युद्ध हुआ था। इसमें ऋषियों ने उन पर हमला करने के लिए राक्षस और साँप जैसे प्राणियों को भेजा। शिव ने इन दुष्ट शक्तियों को पराजित किया और अपना विजयी ‘आनंद का नृत्य’ किया।

आल इंडिया रेडियो के पाक्षिक पत्र सारंग के 1952 अंक से साभार

लेखों में भी नटराज का होता रहा है जिक्र

ऑल इंडिया रेडियो के पाक्षिक पत्रिका सारंग में मई-दिसंबर 1952 के अंक में भी शिव के मूर्तियों के रूपों पर एक विस्तृत लेख दिया गया है। जगदीश चतुर्वेदी के इस लेख में शिव के नटराज रूप को लेकर लिखा है कि कवि और शिल्पी भाव-गगन में साथ-साथ समान स्तर पर उड़ते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु फिर शिल्पी की कल्पना का विहंग कुछ ऊँचा चढ़ता है।

वह सृष्टि का गतिक्रम, उसकी तालबद्धता का स्त्रोत, शिव की आदिशक्ति से प्रवाहित देखता है- उस शक्ति से, जो अखिल ब्रह्मांड की सृष्टि, पालन और संहार करती है; और फिर वह उसे साकार अभिव्यक्ति देता है, एक नवीनतम प्रतीक का सृजन करता है। यह नादन्त नृत्य करती हुई शिव की प्रतिमा है- नटराज, लोक-मानस का शतदल पद्म।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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