अयोध्या विवाद में श्री राम लला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि खाली नमाज़ पढ़ लेने से किसी जगह का मालिकाना हक़ मुस्लिमों का नहीं हो जाता, खासकर कि तब जब उस जगह का ढाँचा, स्तम्भ, शिलालेख आदि हिन्दू हों। “खाली सड़क पर नमाज पढ़े जाने से उस पर मालिकाना हक़ का दावा नहीं ठोंका जा सकता।” पाँच जजों की संवैधानिक पीठ के सामने वैद्यनाथन ने तर्क दिया।
ढाँचा तो कभी मस्जिद था ही नहीं
सीएस वैद्यनाथन ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ को बताया कि वह ढाँचा सही मायनों में कभी मस्जिद कहलाने की अर्हता पूरी नहीं करता था। उस स्थान की सजावट में चित्र प्रयुक्त थे, और इस्लामी आस्था के अनुसार इंसानों या जानवरों के चित्र उपासना स्थल पर नहीं हो सकते। वरिष्ठ वकील ने 1990 में ली गई तसवीरें भी अदालत के आगे रखीं।
वैद्यनाथन ने हिन्दू पक्ष की मुख्य दलील फिर से दोहराई कि बाबरी ढाँचा मंदिर के भग्नावशेषों पर बनाया गया था, अतः यह कहना गलत होगा कि वह ज़मीन उस ढाँचे के बनने के पहले किसी की थी ही नहीं। “अगर वह मंदिर के भग्नावशेषों पर बना ढाँचा है, तो शरीयत के ही मुताबिक वह मस्जिद हो ही नहीं सकता।” उन्होंने 1950 की फैज़ाबाद कमिश्नर की रिपोर्ट को भी उद्धृत किया, जिसमें विवादित स्थल के 14 स्तम्भों पर हिन्दू देवी-देवताओं और प्रतीक चिह्नों के चित्र उकेरे हुए थे। “और किसी मस्जिद में तो हिन्दू देवताओं के चित्र वाले स्तम्भ हो नहीं सकते।”
किसने तोड़ा, यह सवाल नहीं है
सीएस वैद्यनाथन ने यह भी दलील दी कि हालाँकि यह सत्य है कि मंदिर तोड़कर वह ढाँचा किसने बनवाया, इस पर विवाद है (एक विवरण इसकी ज़िम्मेदारी मुगलों के पहले शहंशाह बाबर पर डालता है, दूसरा औरंगज़ेब पर) लेकिन वह इस मुद्दे के हल में अनौचित्यपूर्ण है। ऐसा इसलिए क्योंकि चाहे मंदिर बाबर ने तोड़ा हो या औरंगज़ेब ने, तथ्य यही है कि हिन्दुओं का मंदिर तोड़कर ही कथित ‘मस्जिद’ बनाई गई।