सुप्रीम कोर्ट में निजी संपत्ति को ‘समुदाय का भौतिक संसाधन’ मानने को लेकर 32 साल पुरानी एक याचिका पर सुनवाई की है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने इस पर सुनवाई शुरू की है। इससे पहले इस मामले पर तीन सदस्यों वाली पीठ और फिर बाद में 7 सदस्यों वाली पीठ सुनवाई कर चुकी है।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए CJI चंद्रचूड़ ने मंगलवार (23 अप्रैल 2024) को कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने पुरानी और जर्जर हो चुकीं असुरक्षित इमारतों को अधिगृहीत करने के लिए एक कानून बनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह कानून इसलिए बनाया गया, क्योंकि किरायेदार इन इमारतों से हट नहीं रहे और मकान मालिकों के पास मरम्मत के लिए पैसे नहीं हैं।
CJI चंद्रचूड़ ने कहा, “तकनीकी रूप से ये स्वतंत्र स्वामित्व वाली संस्थाएँ हैं, लेकिन कानून (म्हाडा अधिनियम) का कारण क्या था… हम कानून के सिद्धांतों पर टिप्पणी नहीं कर रहे हैं और इसका परीक्षण नहीं किया गया है’। पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि निजी संपत्तियों को संविधान के अनुच्छेद 39 (B) के तहत ‘समुदाय का भौतिक संसाधन’ माना जा सकता है या नहीं।
CJI ने समुदाय में स्वामित्व और एक व्यक्ति के अंतर का उल्लेख किया। उन्होंने निजी खदानों का उदाहरण दिया और कहा, “वे निजी खदानें हो सकती हैं, लेकिन व्यापक अर्थ में ये समुदाय के भौतिक संसाधन हैं।” बेहद सघन रूप से बसे मुंबई की इन इमारतें जर्जर हो गई हैं और इन असुरक्षित इमारतों में किरायेदार रह रहे हैं। इन कारण मानवीय क्षति पहुँचने का खतरा हमेशा बरकरार रहता है।
निजी संपत्ति को लेकर क्या रहे हैं पहले के निर्णय?
सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अदालत के समक्ष एकमात्र सवाल अनुच्छेद 39 (बी) की व्याख्या का था, न कि अनुच्छेद 31सी का, जिसकी वैधता 1971 में 25वें संवैधानिक संशोधन से पहले अस्तित्व में थी। इसे केशवानंद भारती मामले में 13 न्यायाधीशों की पीठ ने बरकरार रखा है।
इस पर CJI चंद्रचूड़ ने साल 1997 में मफतलाल इंडस्ट्रीज का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राय दी है कि अनुच्छेद 39 (बी) की 9 जजों की पीठ द्वारा व्याख्या की आवश्यकता है। मफतलाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस दृष्टिकोण को स्वीकारना मुश्किल है कि अनुच्छेद 39 (बी) के तहत समुदाय के भौतिक संसाधन में निजी स्वामित्व वाली चीज़ें आती हैं।
दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 39 (B) में प्रावधान है कि राज्य अपनी नीति को यह सुनिश्चित करने की दिशा में निर्देशित करेगा कि ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाए जो आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो’।
बता दें कि साल 1977 में रंगनाथ रेड्डी मामले में कोर्ट की बहुमत ने स्पष्ट किया है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों में निजी संपत्ति शामिल नहीं है। वहीं, जस्टिस अय्यर का अलग रूख था। इसी तरह 1983 में संजीव कोक मामले में 5 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने जस्टिस अय्यर पर भरोसा किया और इस बात को नज़रअंदाज करते हुए कहा कि यह अल्पसंख्यक दृष्टिकोण था।
इसके आधार पर ही 22 साल पहले 2002 में सात जजों के संविधान पीठ ने इसे 9 जजों के पीठ को भेजा था। दरअसल, इसकी व्याख्या जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर के अल्पमत दृष्टिकोण से उपजी है। उन्होंने कहा था कि सामुदायिक संसाधनों में निजी संपत्तियाँ शामिल हैं।
क्या है महाराष्ट्र सरकार का कानून?
दरअसल, इमारतों की मरम्मत के लिए महाराष्ट्र आवास एवं क्षेत्र विकास प्राधिकरण (MHADA) कानून 1976 के तहत इन मकानों में रहने वाले लोगों पर उपकर लगाता है। इसका भुगतान मुंबई भवन मरम्मत एवं पुनर्निर्माण बोर्ड (एमबीआरआरबी) को किया जाता है, जो इन इमारतों की मरम्मत का काम करता है।
अनुच्छेद 39 (बी) के तहत दायित्व को लागू करते हुए म्हाडा अधिनियम को साल 1986 में संशोधित किया गया था। इसमें धारा 1A को जोड़ा गया था, जिसके तहत भूमि और भवनों को प्राप्त करने की योजनाओं को क्रियान्वित करना शामिल था, ताकि उन्हें जरूरतमंद लोगों को हस्तांतरित किया जा सके।
संशोधित म्हाडा कानून (Maharashtra Housing and Area Development Authority Act) में अध्याय VIII-A है में प्रावधान है कि राज्य सरकार अधिगृहीत इमारतों और जिस भूमि पर वे बनी हैं, उसका अधिग्रहण कर सकती है, यदि 70 प्रतिशत रहने वाले ऐसा अनुरोध करते हैं।
साल 2019 में महाराष्ट्र की राज्य विधानसभा ने इस कानून में फिर से संशोधन किया। इसके तहत भूस्वामियों के लिए संपत्ति बहाल करने के लिए समय सीमा निर्धारित की गई थी, अन्यथा उसे राज्य सरकार संपत्ति को अपने कब्जे में ले लेगी। इसको लेकर भूस्वामियों का कहना है कि राज्य सरकार उनकी जमीनों पर कब्जा करके उसे बिल्डरों को दे देगी।
बता दें कि इस समय मुंबई में लगभग 13,000 अधिगृहीत इमारतें हैं, जिनके जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। हालाँकि, किरायेदारों के बीच या डेवलपर की नियुक्ति पर मालिकों और किरायेदारों के बीच मतभेदों के कारण उनके पुनर्विकास में अक्सर देरी होती रहती है।
क्या है याचिका में?
दरअसल, महाराष्ट्र सरकार के कानून के खिलाफ जमीन के मालिकों ने कई याचिकाएँ दायर की हैं। प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन ने अध्याय VIII-A को चुनौती देते हुए दावा किया है कि प्रावधान मालिकों के खिलाफ भेदभाव करते हैं और अनुच्छेद 14 के तहत समानता के उनके अधिकार का उल्लंघन करते हैं। यह मुख्य याचिका साल 1992 में दायर की गई थी। इसके अलावा, 15 याचिकाएँ भी दी गई हैं।
इस मामले को तीन बार पाँच सदस्यीय पीठ और एक बार सात न्यायाधीशों वाली बड़ी पीठों के पास भेजा जा चुका है। आखिरकार 20 फरवरी 2002 को इसे 9 न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया गया। इसी मामले पर CJI चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में जस्टिस हृषिकेश रॉय, बीवी नागरत्ना, सुधांशु धूलिया, जेबी पारदीवाला, मनोज मिश्रा, राजेश बिंदल, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क दिया गया है कि सामुदायिक संसाधनों में कभी भी निजी स्वामित्व वाली संपत्तियाँ शामिल नहीं हो सकती हैं। उन्होंने जस्टिस अय्यर के दृष्टिकोण को मार्क्सवादी समाजवादी नीति का प्रतिबिंब बताया। उनका कहना है कि इस नीति का नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रधानता देने वाले संविधान द्वारा शासित लोकतांत्रिक देश में कोई स्थान नहीं है।