सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (2 अगस्त 2024) को महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले को हरी झंडी दे दी, जिसमें औरंगाबाद और उस्मानाबाद शहरों का नाम बदला गया था। राज्य सरकार ने औरंगाबाद का नाम बदलकर छत्रपति संभाजीनगर और उस्मानाबाद का नाम बदलकर धाराशिव किया था। शेख मसूद इस्माइल शेख एवं अन्य ने सरकार के इस फैसले को चुनौती दी थी, जिसे शीर्ष न्यायालय ने खारिज कर दिया।
जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की खंडपीठ ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय पूरी तरह से तर्कसंगत था। दरअसल, याचिकाकर्ताओं ने महाराष्ट्र सरकार के फैसले के विरुद्ध बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। हाई कोर्ट ने सरकार के फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
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— Bar and Bench (@barandbench) August 2, 2024
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, “देखिए, किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए स्थान के नाम को लेकर हमेशा सहमति और असहमति होती है। क्या न्यायालयों को इसे न्यायिक समीक्षा के माध्यम से हल करना चाहिए? यदि उनके पास (सरकार के पास) नाम रखने का अधिकार है तो वे नाम बदल भी सकते हैं। यह (बॉम्बे उच्च न्यायालय का) एक तर्कसंगत आदेश है। इसमें गलती क्यों होनी चाहिए।”
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्य सरकार ने दोनों शहरों के नाम बदलने से पहले कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया का व्यापक रूप से पालन किया था। बता दें कि इस साल मई में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के इन दोनों शहरों के नाम बदलने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था और सरकार के फैसले को सही ठहराया था।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली पिछली महाविकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार ने 29 जून 2021 की कैबिनेट बैठक में औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने का फैसला किया था। जब मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली नई सरकार ने महाराष्ट्र में पद भार ग्रहण किया, उसके बाद 16 जुलाई 2022 को एमवीए सरकार के निर्णय को फिर से लागू किया।
इसके बाद संबंधित जिलों के निवासियों सहित कई व्यक्तियों ने इसके खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में कई याचिकाएँ दायर कीं। सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने तर्क दिया कि ‘उस्मानाबाद’ का नाम बदलकर ‘धाराशिव’ करने से न तो कोई धार्मिक या सांप्रदायिक द्वेष पैदा हुआ और न ही इससे धार्मिक समूहों के बीच कोई दरार पैदा हुई। इसके बाद हाई कोर्ट ने संबंधित याचिकाएँ खारिज कर दीं।