हाल ही में, कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने बेंगलुरु के ईदगाह मैदान में गणेशोत्सव के लिए तय किए गए स्थान पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने भी ईदगाह मैदान में गणेशोत्सव कार्यक्रम की अनुमति नहीं दी। इस मामले ने, एक कथित धर्मनिरपेक्ष देश में वक्फ की प्रचलित प्रथा और इसे लगातार बनाए रखने वाले वक्फ बोर्ड के कामकाज पर पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया है।
गौरतलब है, बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) ने दावा किया था कि ईदगाह की जमीन सरकारी है और इसे किसी मुस्लिम संगठन को हस्तांतरित नहीं किया गया था। लेकिन, वक्फ बोर्ड ने दावा किया कि यह 1850 के दशक से ही वक्फ की संपत्ति है। साथ ही यह भी कहा कि एक बार जो संपत्ति वक्फ की हो गई, वह हमेशा के लिए वक्फ की ही रहेगी।
वक्फ बोर्ड के वकील दुष्यंत दवे ने कोर्ट में तर्क दिया था कि वक्फ अधिनियम एक अधिभावी कानून है, जिस पर कोई भी कानूनी प्रक्रिया नहीं हो सकती। इसलिए न्यायालय वक्फ संपत्ति पर आदेश पारित नहीं कर सकता है। इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने गणेशोत्सव की अनुमति देने से इनकार करते हुए ईदगाह मैदान पर यथास्थिति रखने का आदेश दिया।
वक्फ क्या है?
आपके मन में यह सवाल जरूर उठ रहा होगा कि आखिर वक्फ है क्या? इस्लाम के अनुसार, वह संपत्ति जो केवल मजहबी या मजहब के उद्देश्यों के लिए उपलब्ध हो, वह वक्फ है। ऐसी संपत्ति का कोई अन्य उपयोग या बिक्री नहीं की जा सकती है। शरिया कानून के अनुसार, एक बार वक्फ की स्थापना हो जाने के बाद संपत्ति वक्फ को समर्पित कर दी जाती है। इसके बाद, यह हमेशा के लिए वक्फ संपत्ति के रूप में बनी रहती है। यही नहीं, शरिया के अनुसार, वक्फ संपत्ति स्थायी रूप से अल्लाह को समर्पित होती है।
आसान भाषा मे कहें तो ‘वक्फ’ वह व्यक्ति है, जो लाभार्थी के लिए वक्फ बनाता है। यानी कि वक्फ संपत्ति अल्लाह को दी जाती है। हालाँकि, अल्लाह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं होता है, इसलिए वक्फ़ की संपत्ति की व्यवस्था या प्रबंधन करने के लिए एक व्यक्ति जिसे मुतवल्ली कहा जाता है, को नियुक्त किया जाता है।
भारत में वक्फ और वक्फ बोर्डों का इतिहास
भारत में, वक्फ का इतिहास दिल्ली सल्तनत के शुरुआती दिनों से ही माना जाता है। सुल्तान मुइज़ुद्दीन सैम घोर ने मुल्तान की जामा मस्जिद के पक्ष में दो गाँव समर्पित किए और इसका प्रशासन शेखुल इस्लाम को सौंप दिया। जैसे-जैसे दिल्ली सल्तनत और बाद में इस्लामी राजवंश भारत में फले-फूले, भारत में वक्फ संपत्तियों की संख्या बढ़ती चली गई।
19वीं शताब्दी के अंत में हालाँकि भारत में वक्फ की समाप्ति का भी एक मामला सामने आया था। उस दौरान, ब्रिटिश शासन के समय में लंदन की प्रिवी काउंसिल में एक वक्फ संपत्ति पर विवाद शुरू हुआ था। इस मामले की सुनवाई करने वाले चार ब्रिटिश न्यायाधीशों ने वक्फ को “सबसे खराब और सबसे हानिकारक” बताते हुए अमान्य घोषित कर दिया था।
भारत में इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया गया और 1913 के मुसलमान वक्फ मान्यकरण अधिनियम ने भारत में वक्फ को बचा लिया था। इसके बाद से अब तक वक्फ पर अंकुश लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। यही कारण है, वक्फ बोर्ड अब सशस्त्र बलों और भारतीय रेलवे के बाद भारत में तीसरा सबसे बड़ा भूमि मालिक है।
वास्तव में, वोट बैंक की राजनीति के चलते देश की आजादी से बाद से वक्फ को लगातार पोषण मिलता रहा है और यह साल दर साल मजबूत होता चला गया। नेहरू सरकार द्वारा पारित वक्फ अधिनियम 1954 ने वक्फों के केंद्रीयकरण की दिशा में एक रास्ता बनाया था। यही नही, भारत सरकार द्वारा 1954 के इसी वक्फ अधिनियम के तहत साल 1964 में सेंट्रल वक्फ काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना की गई थी।
तत्कालीन भारत सरकार द्वारा स्थापित किया गया सेंट्रल वक्फ काउंसिल ऑफ इंडिया एक केंद्रीय संस्था है। यह संस्था विभिन्न राज्य के वक्फ बोर्डों के काम की देखरेख करता है, जो वक्फ की धारा 9 (1) के प्रावधानों के तहत स्थापित किए गए थे। 1954 वक्फ अधिनियम को साल 1995 में मुस्लिमों के लिए और भी अधिक अनुकूल बनाया गया। इसके बाद से यह एक अधिभावी कानून है और इस पर कोई विधायी शक्तियाँ काम नहीं कर सकती हैं। एडवोकेट दवे ने भी कोर्ट में यही तर्क दिया।
वक्फ अधिनियम 1995
22 नवंबर 1995 को वक्फ अधिनियम 1995 लागू किया गया। यह अधिनियम वक्फ परिषद, राज्य वक्फ बोर्डों और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की शक्ति और कार्यों के साथ-साथ मुतवल्ली के कामकाज को भी देखता है।
यह अधिनियम एक वक्फ ट्रिब्यूनल की शक्ति और प्रतिबंधों का भी वर्णन करता है, जो अपने अधिकार क्षेत्र के तहत एक सिविल कोर्ट की तरह कार्य करता है। वक्फ ट्रिब्यूनल को एक सिविल कोर्ट माना जाता है और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत एक सिविल कोर्ट द्वारा प्रयोग की जाने वाली सभी शक्तियों का उपयोग और कार्यों को करने की क्षमता रखता है।
वक्फ ट्रिब्यूनल ऐसा है कि इसका निर्णय अंतिम और सभी पक्षों पर बाध्यकारी होगा। इस अधिनियम के तहत अगर कोई भी मसला वक्फ ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित किया जाना है तो वो विवाद या कानूनी कार्यवाही किसी दीवानी अदालत के अधीन नहीं जा सकती है। सीधे शब्दों में कहें तो वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसले किसी भी सिविल कोर्ट से ऊपर हैं।
एक बार वक्फ की संपत्ति, हमेशा के लिए वक्फ की संपत्ति
वक्फ के मामले में संपत्ति का स्वामित्व वक्फ से अल्लाह को ट्रांसफर किया जाता है। और कोई भी संपत्ति अल्लाह से वापस नहीं ली जा सकती है। इसलिए एक बार संपत्ति वक्फ बन जाने के बाद, यह हमेशा वक्फ रहेगी और इसका मालिक अल्लाह होगा लेकिन उपयोग वक्फ बोर्ड करेगा।
ठीक ऐसा ही बेंगलुरु ईदगाह मैदान के मामले में भी देखा गया। भले ही सरकार के अनुसार किसी भी मुस्लिम संगठन को इस भूमि का मालिकाना हक नहीं दिया गया है। लेकिन, वक्फ का दावा है कि यह 1850 के दशक से वक्फ की संपत्ति थी, इसका मतलब है कि यह अब हमेशा के लिए वक्फ संपत्ति है।
हाल ही में, गुजरात वक्फ बोर्ड ने सूरत नगर निगम की बिल्डिंग पर दावा पेश किया था, जो अब वक्फ की संपत्ति है क्योंकि इस बिल्डिंग से जुड़े किसी भी दस्तावेज को अपडेट नहीं किया गया था। वक्फ के अनुसार, मुगल काल के दौरान, सूरत नगर निगम की इमारत एक होटल थी और हज यात्रा के दौरान इस्तेमाल की जाती थी। ब्रिटिश शासन के दौरान संपत्ति तब ब्रिटिश साम्राज्य की थी। हालाँकि, जब साल 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली, तब संपत्तियों को भारत सरकार को हस्तांतरित कर दिया गया था। लेकिन, जैसा कि ऊपर भी बताया गया है कि दस्तावेजों को अपडेट नहीं किया गया था, इसलिए यह सूरत नगर निगम की इमारत वक्फ बोर्ड के पास चली गई।
वक्फ बोर्ड सम्पत्ति पर दावा करने के मामले में कभी पीछे नहीं रहा। दिव्य भास्कर ने बताया था कि वक्फ बोर्ड ने देवभूमि द्वारका में दो द्वीपों के स्वामित्व पर दावा करते हुए गुजरात हाईकोर्ट में अपील की थी। इस पर हाई कोर्ट के जज ने हालाँकि सुनवाई करने से इनकार कर दिया था। साथ ही, कोर्ट ने वक्फ बोर्ड से अपनी याचिका को संशोधित करने के लिए भी कहा था।
वक्फ का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि यदि आपकी हाउसिंग सोसाइटी के किसी अपार्टमेंट का मालिक अपने अपार्टमेंट को वक्फ बोर्ड के नाम करता है तो वह अपार्टमेंट किसी भी दिन समाज के अन्य सदस्यों की इजाजत या बातचीत के बिना ही मस्जिद में बदल सकता है। कुछ ऐसा ही सूरत की शिव शक्ति सोसाइटी में हुआ था। वहाँ, एक प्लॉट के मालिक ने गुजरात वक्फ बोर्ड में अपना प्लॉट रजिस्टर कराया, जिससे वह मुसलमानों के लिए ‘पवित्र’ स्थान बन गया और लोग वहाँ नमाज पढ़ने लगे।
एक धर्मनिरपेक्ष देश में क्या कर रहा है वक्फ?
केवल एक मजहब की मजहबी संपत्तियों के लिए एक विशेष अधिनियम होना बेहद अजीब लगता है। साथ ही, तब जबकि देश को धर्मनिरपेक्ष देश कहा जाए और बाकी धर्मों की सम्पत्तियों के साथ भेदभाव हो। दरअसल, एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय ने यही सवाल पूछते हुए फिलहाल दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। वक्फ की संवैधानिक वैधता को लेकर इस याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस भी जारी किया है।
गौरतलब है कि इस्लामी देश तुर्की, लीबिया, मिस्र, सूडान, लेबनान, सीरिया, जॉर्डन, ट्यूनीशिया और इराक में वक्फ मौजूद नहीं है। लेकिन भारत में वोट-बैंक की राजनीति के चलते न केवल वक्फ बोर्ड सबसे बड़ा शहरी जमींदार है, बल्कि उसके पास कानूनी रूप से उनकी रक्षा करने वाला एक अधिनियम भी है।
इस लेख की मूल कॉपी OpIndia पर प्रकाशित हुई है। इसका अनुवाद आकाश शर्मा ‘नयन’ ने किया है।