पुलवामा में हुई आतंकी घटना के बाद प्रोपेगैंडा-परस्त मीडिया के प्रपंचों की वजह से जनता और मीडिया तंत्र का ध्यान देहरादून जैसे छोटे शहरों में कश्मीरी युवकों की मौजूदगी पर केंद्रित हो गया है। लोग सोचने लगे हैं कि देहरादून में इतने कश्मीरी छात्र कहाँ से आ गए? पहले तो ऐसा नहीं था। फिर अचानक कौन सी लहर आई? क्या है ये सारा मामला?
दरअसल एक दौर आया था वर्ष 2006 के आस-पास, जब इंजीनियरिंग और पैरामेडिकल की पढ़ाई अचानक से डिमांड में आ गई थी। उस समय देहरादून में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट कॉलेज खुले। क्वालिटी हो या नहीं, कॉलेजों में जमकर एडमिशन हुआ करते थे। सीटें फुल और कॉलेज के मालिकों की जेबें भी भरी रहा करती थीं। सब मजे में चल रहा था। फिर आया साल 2008 की मंदी का दौर। जनता को भी समझ आ गया कि भेड़-बकरियों की तरह डिग्री लेने से कोई फायदा नहीं होने वाला।
प्राइवेट कॉलेज में आई इस मंदी के दौर में इंस्टीटूट्स में एडमिशन कम होने लगे। कल तक जिन कॉलेज मालिकों की जेबें ठसा-ठस भरा करती थीं, उन्हें एक-एक सीट पर एडमिशन के लाले पड़ने लगे। शिक्षकों को सेलरी तक देने के लिए बगलें झाँकनी पड़ रही थीं।
ऐसे में किसी मास्टरमाइंड ने सुझाव दिया कि क्यों न कश्मीर के छात्रों को फ़ार्मा और इंजीनियरिंग की सीटों का प्रलोभन दिया जाए। इसमें कॉलेज वालों के कई फायदे थे। सीटें तो भरनी ही थीं। साथ ही कश्मीरी छात्रों से फीस की मशक्कत भी इन्हें नहीं करनी थी। कश्मीरी छात्रों के लिए प्रावधान है कि यदि वे कोई प्रोफेशनल कोर्स करते हैं, तो उनकी फीस में सहायता केंद्र सरकार करती है।
बस, ये आइडिया चल निकला। शिक्षकों से कहा जाने लगा कि सेलरी चाहिए तो सीटों पर एडमिशन करवाओ। ‘एजेंट्स’ श्रीनगर भेजे जाने लगे। इंजीनियरिंग और फार्मा सेक्टर में बेहतरीन जॉब के सपने बेचे जाने लगे।
जो लड़के-लड़कियाँ कश्मीर में सेना पर पत्थर फेंका करते थे, उन्हें फ्री की डिग्री लेने में भला क्या हर्ज होता। छात्र चाहे आसमानी किताब पढ़ें या एनाटॉमी पढ़ें, कॉलेज प्रशासन को उससे फर्क पड़ने वाला नहीं था।
खैर, सीटें भरने लगीं। मास्टरों को तनख्वाह भी मिलने लगी। सख्त हिदायत जाने लगी थी कि सभी को पास करना है। किसी की ‘इयर बैक’ न लगे। कॉलेज कैम्पस के बागों में बहार घुल गई। कॉलेज के आस-पास के लोगों को बढ़े हुए रेट पर किरायेदार मिलने लगे।
कीमत क्या चुकानी पड़ेगी, किसी ने भी नहीं सोचा। आज देहरादून में यही छात्र देश-विरोधी नारे लगा रहे हैं। फार्मा कंपनियों को इन ‘गुड फ़ॉर नथिंग’ एम्प्लॉईज को ‘एन्टी-नेशनल’ नोटिस भेजना पड़ रहा है। कौन जानता है कि IMA जैसे संस्थानों पर भी ये शांतिदूत नजरें रखे हुए हों और आर्मी की गतिविधियों की सूचना कहीं भेजते हों। देहरादून में ही DRDO और आयुध निर्माण फ़ैक्ट्री भी हैं, जिन्हें बेहद संवेदनशील माना जाता है।
मुझे याद है कि मेरे एक मित्र ने नवोदय विद्यालय में पंजाब से माइग्रेशन से लौटने के बाद बताया था कि किस तरह साल 2002-03 के आस-पास पंजाब के नवोदय विद्यालय में माइग्रेशन पॉलिसी के तहत आए एक कश्मीरी छात्र ने बाथरूम में विस्फोटक रख दिया था। खतरा किस कदर है, इस एक उदाहरण से ही आप गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हर कश्मीरी यही करता है, लेकिन ऐसे उदहारण मिलते हैं तो आम जनता का रवैया बदल ही जाता है।
अगर देहरादून में देश विरोधी तत्वों की कोई भी हरकत होती है, तो ऐसे छात्रों को एडमिशन देने वाले कॉलेज प्रशासन की भी जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। साथ ही उन मकान-मालिकों पर भी गाज गिरनी चाहिए, जो बिना किसी वेरिफिकेशन के देश-विरोधी तत्वों को पनाह देते हैं।
पोस्ट को फर्जी सेकुलर मीडिया अन्यथा न ले, इसलिए कुछ बातों को स्पष्ट किया जाना अति आवश्यक है:
- इस लेख का उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भी व्यक्ति को धर्म, जाति या स्थान के आधार पर वर्गीकृत किया जाए। शिक्षा सबका अधिकार है। यहाँ सिर्फ नीयत पर सवाल उठाए हैं। सवाल उठाने के पीछे इन ‘विद्यार्थियों’ का इतिहास और दैनिक क्रियाकलाप ही जिम्मेदार भी हैं।
- इस लेख में कॉलेज प्रशासन पर सवाल उठाए गए हैं। क्या उनकी नीयत शिक्षा देने की है? कॉलेज प्रशासन को सिर्फ फीस से मतलब होता है। ये पूछा जाना भी आवश्यक है कि क्या वे सही में क्वालिटी एजुकेशन दे रहे हैं।
- सबसे मुख्य हिस्सा अब आता है। यदि आप शिक्षक हैं, और आपसे कहा जाए कि जो फेल भी हो रहा है, उसे किसी भी हाल में पास करो। कैसा लगेगा आपको? उन विद्यार्थियों को कैसा लगेगा जो मेहनत करते हैं और जिनके माता-पिता किसी तरह मुश्किल से फीस का जुगाड़ कर पाते हैं?
- फिर से प्रश्न उठता है कि क्या देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ सेना की है? जब भी आपकी या हमारी जिम्मेदारी पर सवाल उठाए जाते हैं, तब हम बगलें झाँकने लगते हैं या फिर अतार्किक प्रश्न करने लगते हैं।
- यहाँ पर सिर्फ सिचुएशन की समीक्षा की गई है। लेख यह नहीं कहता है कि कॉलेज किसी खास व्यक्ति या समुदाय को एडमिशन न दे या फिर कश्मीरियों को पढ़ने का अधिकार नहीं है।
देश में सबको बराबर अधिकार हैं, लेकिन देश के खिलाफ बोलने वाले अवांछित तत्वों को बाहर किया जाना भी जरूरी है।
देश की एकता और अखंडता को हानि पहुँचाने वाले मीडिया गिरोह और सूँघकर प्रोपेगैंडा बना लेने की क्षमता रखने वाले लोग बहुत ही बड़े स्तर पर अपनी विषैली मानसिकता के प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं। पुलवामा आतंकी हमले के बाद देहरादून पुलिस ने ऐसे कुछ ‘विद्यार्थियों’ की धर-पकड़ शुरू की, जो भारतीय सैनिकों के बलिदान पर उत्सव मना रहे थे।
लेकिन JNU की फ्रीलॉन्स प्रोटेस्टर शहला राशिद ने अपने मीडिया गिरोह की घातक टुकड़ियों की मदद से अपने प्रोपेगैंडा को नया रंग दे दिया। मीडिया के इस समुदाय विशेष ने देहरादून जैसे छोटे शहर की हवा में भी जहर घोलने का काम किया और इस अफ़वाह को राष्ट्रीय खबर बना कर पेश किया कि देहरादून में कश्मीरी छात्रों पर जुर्म किए जा रहे हैं। अफ़वाह फैलाने और भीड़ को उकसाने को लेकर शहला रासिद के ख़िलाफ़ FIR भी दायर की गई। लेकिन वो वामपंथी ही क्या जिसकी पूँछ सीधी हो जाए!
पूरे देश मे देहरादून की छवि एक बेहद पढ़े-लिखे संपन्न और ‘हेट्रोजिनस कल्चर’ वाले शहर की रही है। भारत देश के सबसे शानदार शैक्षणिक संस्थानो के अलावा दूसरे बेहद महत्वपूर्ण सरकारी संस्थान भी यहाँ पर मौजूद हैं। पूरे देश से पढ़ाई की खातिर लोग देहरादून जाते हैं, जिससे काफी हद तक यहाँ की अर्थव्यवस्था को भी सहारा मिलता है। देहरादून के निवासी का इन प्रोपेगैंडा-परस्त गिरोहों से सिर्फ एक निवेदन है कि वो इस शहर की बेदाग छवि को ख़राब करने की कोशिशों को रोक दें।