भारत में हर राज्य की पुलिस को एक बीमारी है, खासकर गैर-भाजपा शासित राज्यों में ये ज्यादा देखने को मिलती है। जब भी कोई ऐसी घटना होती है तो उसमें सबसे पहले बयान दिया जाता है कि कोई कम्युनल एंगल नहीं है, इसके बाद जाँच होती है और आगे की पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। जब बाकी बातें जाँच के बाद पता चलती हैं तो संप्रदायिक एंगल को नकारने की ऐसी कौन सी हड़बड़ी होती है, ये कौन सा कीड़ा पुलिस को काटे रहता है?
आइए, एकाध उदाहरण देखते हैं। जैसे, आप खुद देखिए। राजस्थान में कन्हैया लाल की हत्या से पहले करौली से लेकर जोधपुर तक में दंगे हुए, लेकिन राजस्थान पुलिस कम्युनल एंगल को नकारने में ही लगी रही। जोधपुर में दो समूहों के बीच पत्थरबाजी और हिंसा होती है, लेकिन पुलिस कहती है कोई सांप्रदायिक एंगल नहीं है। इस तरह की हर एक घटना में कम्युनल एंगल को नकार देने से क्या एक स्थायी शांति आ जाती है या फिर जिहादी फिर से सक्रिय नहीं होते?
ताज़ा मामला देखिए। बिहार के सीतामढ़ी में अंकित झा नाम के एक युवक को बीच बाजार दौड़ा-दौड़ा कर कुछ लोगों ने चाकू मार दिया। आरोप है कि नूपुर शर्मा का वीडियो देखने के कारण उस पर हमला हुआ। बिहार पुलिस इससे इनकार करते हुए इसे आपसी विवाद बता रही है। यहाँ ये सवाल भी जायज हो जाता है कि क्या आपसी विवाद और सांप्रदायिक हिंसा एक साथ नहीं हो सकती? आपसी विवाद सांप्रदायिक सोच के कारण और नहीं भड़क सकती?
फिर पुलिस कैसे कह सकती है कि आपसी विवाद है तो सांप्रदायिक जंगल होगा ही नहीं। जिहादी तो आपसी विवाद की आड़ में भी हिंसा कर सकते हैं और जिहाद के तहत हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। जब दंगे होते हैं तो वो भी तो आपसी विवाद को लेकर शुरू होता है। हिन्दू त्योहारों के जुलूस पर हमले, DJ पर आपत्ति जता कर पत्थरबाजी और छेड़खानी का विरोध करने पर हिंसा – इन सबकी शुरुआत आपसी विवाद से ही होती है लेकिन घटना सांप्रदायिक हो जाता है।
नूपुर शर्मा के समर्थन को लेकर अमरावती में केमिस्ट उमेश कोल्हे का गला रेते जाने की घटना को ही ले लीजिए। उनकी हत्या के बाद भी पुलिस मामले को रफा-दफा करने को लगी रही। लेकिन, महाराष्ट्र में सरकार बदलते ही सब दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। एक पूरे गिरोह का पर्दाफाश हुआ। कोल्हे के करीबियों ने ही उन्हें मरवा दिया, क्योंकि वो नूपुर शर्मा के समर्थन पर गुस्सा थे। पुलिस ‘सारे एंगल की जाँच करने’ की बात कहते हुए पहले टाल रही थी।
हो सकता है कि पुलिस को ऐसा लगता हो कि अगर किसी घटना के सम्बन्ध में पहले ही सांप्रदायिक कोण को नकार दिया जाए तो इससे विभिन्न समूहों में हिंसा की संभावना घटेगी और क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं होगी। पुलिस को लगता है कि कम्युनल एंगल वाली बात खोल देने पर शायद हिंसा और बढ़ जाए और उसकी चुनौतियाँ भी बढ़ जाएँ। शायद इसीलिए, शांति बनाए रखने के लिए वो कम्युनल एंगल को नकारने का फॉर्मूला अपनाती है, और कारण के रूप में अन्य चीजों को गिनाया जाता है।
ये अन्य फैक्टर्स भी कारण हो सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कम्युनल एंगल आ गया तो बाकी सारे एंगल झूठे हो जाते हैं। लेकिन, जिहादी सोच के साथ की गई हत्या में प्रमुखतः जो मुख्य कारण होता है उसे उठाया जाना चाहिए। जहाँ हिन्दू पीड़ित होते हैं, वहाँ खासकर पुलिस का रवैया इसी तरह का होता है। उनके लिए तो मीडिया तक आवाज़ नहीं उठाती। क्या कम्युनल अपराध को कम्युनल अपराध कहना इतना खतरनाक है कि इस पर पुलिस आपको गिरफ्तार भी कर लेगी?
वहीं मुस्लिमों के मामले में क्या होता है? साधारण अपराध की घटनाओं को भी ‘कम्युनल एंगल’ देकर हिन्दुओं को अत्याचारी बताया जाता है। उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक ट्रेन डकैती की घटना को मीडिया ने कम्युनल बताते हुए लिखा कि मुस्लिम परिवार को लूटा गया। दिल्ली के मंगोलपुरी में रिंकू शर्मा की हत्या के मामले में पुलिस ने जाँच में कम्युनल एंगल पाया तो मीडिया ही इसे नकारने लगी। जबरन ‘जय श्री राम’ बुलवाने और दाढ़ी नोचने के कई झूठे मामले पकड़ में आ ही चुके हैं। फिर हिन्दू-मुस्लिम के मामले में ये दोहरा रवैया क्यों?
आजकल के माहौल में जब हजारों की मुस्लिम भीड़ कई शहरों में बाहर निकल कर ‘सिर तन से जुदा’ के नारे लगाती हो, वहाँ किसी हिन्दू का सिर कलम किए जाने के बाद इसे सांप्रदायिक हत्याकांड ही कहा जाएगा, चाहे मुस्लिम अपराधी के साथ उसकी दोस्ती रही हो, दुश्मनी रही हो या कोई आपसी विवाद। जिहादियों में कई खुलेआम हत्याएँ कर के वीडियो बनाते हैं, जैसा कन्हैया लाल के मामले में हुआ। तो कई अन्य विवाद की आड़ में इस्लाम के लिए जिहाद करते हैं।
कहने को तो पश्चिम बंगाल में हिन्दू पर्व-त्योहारों पर उनके जुलूस पर होने वले हमलों से लेकर चुनाव नतीजों के बाद ‘राजनीतिक हिंसा’ की आड़ में हिन्दुओं पर अत्याचार की घटनाएँ भी आधिकारिक रूप से सांप्रदायिक नहीं है, लेकिन क्या कई मामलों में सांप्रदायिक सोच वाले कट्टर मुस्लिमों ने इसकी आड़ में हिन्दुओं के प्रति अपना गुस्सा नहीं निकाला? चूँकि उस समय वो हिन्दू नहीं ‘भाजपा कार्यकर्ता’ थे, इसीलिए ये सांप्रदायिक एंगल नहीं हुआ।
Legacy publications hide crucial details in communal crimes where Hindus are victims, arguing they don’t want to flare up “majority” passions & incite violence. Reality is, it is all done to constantly reduce threat perception. The ostrich-like behaviour that we see, is by design
— Swati Goel Sharma (@swati_gs) December 3, 2021
अक्टूबर 2021 में सीलमपुर में भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान इस्लामी जिहादियों ने एक 2 माह के बच्चे और उसके परिवार पर हमला बोल दिया। पुलिस ने मामले दर्ज करने से पहले ही कम्युनल एंगल को नकार दिया। इस घटना के बाद बिना पीड़ितों की बात सुने अपने हिसाब से FIR लिख दी गई, पीड़ितों ने ऐसे आरोप लगाए। उसी साल अक्टूबर में रघुबीर नगर में डब्लू सिंह को मार डाला गया। मृतक की माँ कहती रहीं कि बेटे ने इस्लामी धर्मांतरण न करने की कीमत चुकाई है और दिल्ली पुलिस कम्युनल एंगल नकारती रही।
अब समय आ गया है जब पुलिस को हड़बड़ी में किसी भी घटना में ‘आपसी विवाद’ या अन्य कारण साबित करने के लिए तुरंत कम्युनल एंगल को नकारने से बचना चाहिए। किसी जिहादी का अपने हिन्दू पड़ोसी से जमीन का विवाद हो और वो उस ‘काफिर’ को मार डाले, फिर आधिकारिक रूप से तो ये ‘संपत्ति विवाद में हत्या’ हो गई, लेकिन क्या इसके पीछे उसकी जिहादी सोच ढक दी जाएगी? कम्युनल एंगल के पीछे कई अन्य कारण भी हो सकते हैं।
केरल में RSS कार्यकर्ताओं को निशाना बनाए जाने की घटनाएँ हों या पश्चिम बंगाल में BJP कार्यकर्ताओं को, राजनीतिक लड़ाई की इस आड़ में सांप्रदायिक रोटी भी सेंकी जा रही है। ‘लोन वुल्फ’ हमले हों या फिर ‘लव जिहाद’ के मामले, इन सबके पीछे एक ही जिहादी सोच काम करती है। पुलिस का ये फॉर्मूला अब पुराना हो चुका है और इससे जिहादियों का मनोबल बढ़ ही रहा है। जहाँ तक हिन्दुओं की बात है, वो घटना में आरोपितों के नाम देख कर ही मामला समझने लगे हैं।