आए दिन ऐसी ख़बरें आती रहती हैं जब हमें किसी नेता के दल बदलने की बात पता चलती है या फिर किसी राजनीतिक दल के इस गठबंधन से उस गठबंधन में जाने की बात पता चलती है। मतलब नेताओं के लिए पाला बदलना अब एक सामान्य ख़बर हो गई है। नेताओं की यह ‘बीमारी’ अब एक कदम आगे बढ़कर कुछ और लोगों को भी लग गई है। मसलन, आजकल के पत्रकार भी कई धुरों में बँटे हुए हैं, मीडिया हाउसेज का तो कहना ही क्या! ट्रेन की डिज़ाइन में खोट निकालना हो या ‘क्रान्तिकारी’ बयान को काट-छाँट कर पेश करना- आजकल के पत्रकार इन सबमें माहिर हो चुके हैं। अजेंडा विशेष पर काम करता आज का मीडिया और उसके एक वर्ग द्वारा झूठ फैलाना भी सामान्य हो गया है।
अब बात थोड़ी ऊपर लेवल की। आप एक ऐसे बुद्धिजीवी के बारे में क्या कहेंगे, जो राजनीति के दलदल में ऐसा उतर आया हो कि उसे ख़ुद की भी सुध नहीं रही? एक जमाने में पत्रकारिता के पुरोधा रहे उस व्यक्ति के बारे में क्या कहेंगे, जो आज उन्हीं की गोद में जाकर बैठ गया है जिनके ख़िलाफ़ लिख कर उसे प्रसिद्धि मिली? उस नेता के बारे में क्या कहेंगे, जो आज उसी पार्टी के विरोध में खड़ा है, जिसने उसे पहली बार संसद दिखाया, मंत्री बनाया, अपने हिसाब से कार्य करने की खुली छूट दी और सत्ता का स्वाद चखाया? उस बेस्टसेलर लेखक के बारे में क्या कहेंगे, जो आज अपनी ही किताबों में लिखी गई बातों को धता बता रहा है? उस अर्थशास्त्री के बारे में आपकी क्या राय होगी, जो आज अनर्थ पर तुल आया हो?
ये सब अलग-अलग लोग नहीं हैं बल्कि एक ही नाम है इनका- अरुण शौरी। नेताओं और आजकल के पत्रकारों के ‘गिरने’ की कई ख़बरें हम सुनते हैं और वो हमें चकित नहीं करतीं लेकिन 77 साल के एक बुज़ुर्ग का पाला बदल लेना, वो भी बिना किसी ठोस कारण के- हमें चकित करता है। हमें चकित करता है कि आख़िर क्यों कभी संघ की पैरवी करने वाला आज उन्हीं की गोद में जा बैठा है, जो संघ को गाली देते नहीं थकते। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एजेंडा बदल गया है, ऐसा भी नहीं है कि भाजपा ने अपनी नीतियाँ बदल दी हैं- दोनों की विचारधाराएँ वही हैं, लेकिन शौरी कहीं और भटक रहे हैं।
भाजपा और संघ के विरोध से हमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। अगर शौरी हमेशा से भाजपा और संघ के ख़िलाफ़ रहते तो शायद हम आज उन पर नहीं लिख रहे होते, लेकिन एक दलबदलू नेता को भी पीछे छोड़ते हुए जिस तरह उन्होंने सत्तालोलुपों के बीच अपनी जगह बनाई है- ये उन्हें अपनी प्रेरणा मानने वालों के लिए गहरा धक्का है। ये करारी चोट है पत्रकारिता में आए उन युवाओं पर, जो आपातकाल के दौरान शौरी की साहस भरी लेखनी से प्रभावित रहे हैं। वो कौन सी मज़बूरी है, जिसने ऐसे बुद्धिजीवी की सोच-शक्ति छीन कर उसे प्रशांत भूषण जैसों के साथ ला खड़ा किया!
आज हम में से कोई इतना बड़ा नहीं है जो शौरी की उपलब्धियों पर सवाल कर सके, उन्हें सिखा सके कि करना क्या है? लेकिन हाँ, अगर ख़ुद अरुण शौरी ही अरुण शौरी को बताएँ कि आप गलत हैं तो कैसा रहेगा? हमारी यही कोशिश है कि शौरी को शौरी ही आइना दिखा कर यह सूचित करें कि आप गलत जगह पर हैं, आप ऐसे लोगों के साथ हैं, जो आपकी क़द्र नहीं करते, आप ऐसे लोगों के साथ हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके मोदीविरोधी बयानों के कारण आपको तवज्ज़ो देते हैं, आप ऐसे लोगों के साथ हैं, जो सत्ता मिलने पर न आपकी मानेंगे न आपका कहा करेंगे।
आपके सेक्युलर एजेंडा का क्या हुआ शौरी साहब?
1997 में अरुण शौरी की एक क़िताब आई थी- ‘अ सेक्युलर एजेंडा‘। इस किताब को लिखने वाले अरुण शौरी मायावती की पार्टी के साथ मंच साझा करने वाले अरुण शौरी को ऐसा आइना दिखाने की ताकत रखते हैं, जो शायद कोई और चाह कर भी उन्हें न दिखा पाए। उस क़िताब में अरुण शौरी लिखते हैं कि हिन्दुओं की कड़ी प्रतिक्रिया सरकार के प्रो-माइनॉरिटी (Pro-Minority) रुख का एक स्वाभाविक परिणाम है। आज वाले अरुण शौरी यह नहीं मानते। वो नहीं मानते कि हिन्दुओं की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, क्योंकि वो तो उनके साथ बैठते हैं जो हिन्दू आतंकवाद की बातें करते हैं। किताब वाले शौरी साहब ममता के अतिथि शौरी से पूछते हैं कि अगर हिन्दुओं की प्रतिक्रिया नेचुरल है, स्वाभाविक है- जैसा कि आपने अपने किताब में लिखा है, तो फिर आप उस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को आतंकवाद कहने वालों के साथ मंच क्यों साझा कर रहे हैं?
अपनी इस पुस्तक में शौरी साहब यूनिफार्म सिविल कोड की वकालत करते हैं लेकिन आज उन्हीं मायावती की पार्टी के साथ मंच साझा करते हैं, जो शरीयत क़ानून में किसी भी तरह की सुधार की गुंजाइश को सिरे से नकारती है। इस पुस्तक में अरुण शौरी ने बताया था कि कैसे पत्रकारों का एक सूडो-सेक्युलर (Pseudo-Secular) गैंग समाचारों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है, बयानों को गलत तरीके से दिखाता है और बनावटी स्टोरीज से लोगों को दिग्भ्रमित करता है ताकि हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को खराब कर सके। लेकिन आज शौरी साहब उसी भाषा में बात करते हैं, जिसमे सुडो-सेक्युलर गैंग बात करता है। क्यों?
सर्जिकल स्ट्राइक पर भी ख़ुद को आइना दिखा सकते हैं शौरी
अरुण शौरी ने 2008 मुंबई हमलों के बाद एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने सरकार को आतंकियों के प्रति किसी भी तरह की नरमी न बरतने की सलाह दी थी। लेकिन एक दशक बाद वाले अरुण शौरी उस लेख वाले अरुण शौरी से अलग हैं। लेख वाले शौरी आतंकियों के बारे में कहते हैं:
‘एक आँख के बदले एक आँख नहीं। एक आँख के बदले दोनों आँख लो। एक दाँत के बदले एक दाँत नहीं, एक दाँत के बदले पूरा का पूरा जबड़ा उखाड़ लो।’
सितम्बर 2016 में भारतीय सेना ने यही किया। लेकिन अब ये लेख वाले शौरी नहीं थे, अब जो शौरी थे, वो सर्जिकल स्ट्राइक के विरोधी थे। अब शौरी के अनुसार भारतीय सेना का पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों को मारना फर्ज़ीकल स्ट्राइक था। दाँत के बदले जबड़ा लाने की बात करने वाले शौरी के लिए अब भारतीय सेना का साहस फ़र्जीकल स्ट्राइक है! वो लेख वाले शौरी साहब सांसद थे। ये वाले न जाने क्या हैं! लेकिन वो लेख वाले सांसद शौरी बहादुर थे, सरकार को एक आँख के बदले दोनों आँखे लाने की सलाह देते थे। अभी वाले सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत माँगने वाले केजरीवाल के सुर में सुर मिलते हैं।
तब मोदी की प्रशंसा, अब अंधविरोध
2014 में ET Now को दिए एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि मोदी को तानाशाह बता कर उनकी आलोचना की जाती है लेकिन ये देश के लिए बिलकुल सही है क्योंकि लोग चाहते हैं कि मोदी सत्ता में आएँ और कड़े निर्णय लें। इस इंटरव्यू में समाचार चैनल ने कहा था कि अरुण शौरी मोदी सरकार में वित्त मंत्री हो सकते हैं। क्या इंटरव्यू वाले शौरी अभी वाले शौरी से यह पूछ सकते हैं कि क्या उनको वित्त मंत्री नहीं बनाया जाना ही उनकी नाराज़गी की वज़ह है?
तो क्या यह मान लिया जाए कि यशवंत सिन्हा की तरह अरुण शौरी भी इसीलिए उल्टे-सीधे बयान दे रहे हैं क्योंकि उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल पाई? कभी तानाशाही को सही ठहराने वाले शौरी अब मोदी सरकार की आलोचना के लिए विकेन्द्रिकित आपातकाल का बहाना बनाते हैं। लेकिन कभी तानाशाही के पैरोकार रहे शौरी साहब को विकेन्द्रीकृत शासन (बकौल शौरी अगर ऐसा है भी तो) से किस तरह की परेशानी है?
आपातकाल ने आपको अरुण शौरी बनाया, भूल गए?
इसमें कोई शक़ नहीं कि अरुण शौरी को पत्रकारिता के क्षेत्र में जितने भी अवॉर्ड मिले हैं, जितनी भी प्रसिद्धि मिली है- वो सब आपातकाल के दौरान उनकी सरकार विरोधी लेखनी की देन है। उपर्युक्त इंटरव्यू में शौरी कहते हैं कि आज की स्थिति आपातकाल से भी बदतर है। बकौल शौरी, इंदिरा गाँधी ने क़ानून के अनुसार काम किया था और 1,75,000 लोगों को जेल में डालने के बाद भी इंदिरा गाँधी को अपनी सीमा का भान था।
दिमाग काम नहीं कर रहा मेरा! क़रीब दो लाख लोगों को गिरफ़्तार करना सीमा नहीं है, तो भगवान जाने शौरी की नज़र में सीमा क्या होती है! आज की स्थिति को आपातकाल से भी बदतर बताने वाले शौरी क्या यह बता सकते हैं कि अगर 2 लाख लोगों को जेल में ठूँस देना सीमा है तो फिर मोदी सरकार ने कितनों को जेल में भेजा है? पीएम मोदी के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करने वाले जिग्नेश, हार्दिक, अकबरुद्दीन, इरफ़ान अंसारी, मणिशंकर अय्यर तक को भाजपा सरकार जेल नहीं भेज पाई, आपातकाल ख़ाक लगाएगी!
अरुण शौरी जी, आपको 2014 से पहले वाले शौरी चीख-चीख कर कह रहे हैं कि चेत जाइए वरना जिन सत्तालोलुपों के साथ आप मंच साझा कर रहे हैं- उनका काम बन जाने पर एक दिन वही आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेकेंगे। आप न जनाधार वाले नेता हैं न आपकी राजनीतिक दलों में पैठ है। आपके पास भले अर्थशास्त्र का ज्ञान होगा लेकिन उनका इन गिरगिटों की नज़र में न कोई मोल रहा है, और न कभी होगा। आप लाख कोशिशें कर लें, मायावती की कैबिनेट में वित्त मंत्री तो राहुल गाँधी ही बनेंगे।