चाहे वो कोई भी पार्टी हो, स्थानीय राजनीतिक दल अक्सर अधिक के अधिक वोट पाने के चक्कर में अंध-क्षेत्रीयता को बढ़ावा देते हैं। चाहे वो महाराष्ट्र में शिवसेना या मनसे हो या फिर बंगाल में तृणमूल। इन दलों को ऐसा लगता है कि स्थानीय लोगों को ये एहसास दिला कर अपने पक्ष में लामबंद किया जा सकता है कि ‘बाहरी’ राज्यों के लोग कथित रूप से उनका हक़ मार रहे हैं। तमिलनाडु में हिंदी के विरुद्ध छेड़ा गया आंदोलन, कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को अलग धार्मिक संप्रदाय बनाने की कोशिश, महाराष्ट्र में बिहारियों को पीट कर भगाना, असम से उत्तर भारतीयों को निकालना- ये सब उसी अंध-क्षेत्रीयता के रूप हैं। लेकिन, अभी तक ये गूँज दिल्ली नहीं पहुँची थी। वैसे तो कश्मीर को छोड़ दें तो भारत का कोई भी नागरिक देश के किसी भी हिस्से में बस सकता है।
भारत के किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में बिना रोक-टोक शिक्षा हासिल करने, नौकरी करने और रहने का अधिकार है। असम का कोई नागरिक तमिलनाडु में नौकरी कर सकता है। कोई बंगाली आंध्र प्रदेश के किसी कॉलेज में दाखिला ले सकता है। ऐसी ही हमारे देश की व्यवस्था है। और, दिल्ली तो इस विशाल देश की राजधानी है, देश का सबसे व्यस्त क्षेत्र है। यहाँ देश के कोने-कोने से लोग आते हैं और रहते हैं। लेकिन अब अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली को भी कश्मीर बनाने की वकालत शुरू कर दी है। आज कश्मीर अशांत है, वहाँ आतंकी हमले होते हैं, वहाँ से कश्मीरी पंडितों को भगा दिया जाता है, वहाँ सेना की तैनाती रखनी पड़ती है, यह सब क्यों?
ऐसा इसीलिए, क्योंकि कश्मीर में देश के दूसरे हिस्से के लोग बस नहीं सकते। वहाँ उन्हें ज़मीन ख़रीदने का अधिकार नहीं है। अगर भारत के अन्य हिस्से के लोग भी कश्मीर में जाकर बसते तो शायद आज कश्मीर की ये हालत न होती। कश्मीर पुराने समय में शांत था क्योंकि वहाँ विविधता थी, वहाँ हिन्दू, बौद्ध और मुस्लिम सभी थे। आज़ादी के बाद हमारे नीति-नियंताओं की लापरवाही के कारण वो विविधता ख़त्म हो गई। यहाँ हम केजरीवाल की बात करते हुए ये सब इसीलिए बता रहे हैं क्योंकि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कुछ ऐसा ही बयान दिया है जो इस डर को जायज बनाता है। आगे बढ़ने से पहले अरविन्द केजरीवाल के इस बयान को देखते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि उन्होंने क्या कहा और उसका परिपेक्ष्य क्या था?
अरविन्द केजरीवाल का 85% आरक्षण वाला रोना
पूर्वी दिल्ली से लोकसभा प्रत्याशी आतिशी के लिए चुनाव प्रचार करते हुए आप सुप्रीमो ने नौकरियों में दिल्ली के लोगों को आरक्षण देने की बात कही। पूर्ण राज्य का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठा रहे केजरीवाल ने अब नौकरियों के बहाने राजनीति खेलने की ठान ली है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि रोज़गार एक ऐसा मुद्दा है जिसका उपयोग कर किसी को भी बरगलाया जा सकता है। कॉन्ग्रेस भी इसी मुद्दे पर खेल रही है। उन्हें पता है कि बेरोज़गारी इस देश में दशकों से एक समस्या है और वो इसे अपना हथियार बनाना चाहते हैं। वो अपने हाथ में जो है, वो तो करते नहीं और जो हाथ में नहीं है, उसे करने का दावा कर चुनाव जीतना चाहते हैं। इसकी एक बानगी देखिए। जून 2018 में आई इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के मुताबिक़, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के 42% पद रिक्त हैं।
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— AAP In News (@AAPInNews) March 26, 2019
शिक्षा व्यवस्था तो दिल्ली सरकार के आधीन है और केजरीवाल सरकार हैदराबाद से लेकर अंडमान-निकोबार तक विज्ञापन देकर दिल्ली के स्कूलों और विद्यार्थियों की सफता का अपने पक्ष में प्रचार करती है। दिल्ली के स्कूलों में 66,736 शिक्षकों के लिए जगह है लेकिन अभी इनमें से 38,926 सीटों को ही भरा जा सका है। दिल्ली सरकार की विफलता का आलम देखिए कि उन्होंने सिर्फ़ 58.2% सीटों को ही भरा। उसमे भी 17,000 से अधिक तो अतिथि शिक्षक हैं। आप बाकी के 41% सीटों पर भर्तियाँ कर योग्य लोगों को रोज़गार तो दे सकते हो न? उसके लिए तो पूर्ण राज्य की आवश्यकता नहीं है? तो फिर आरक्षण बीच में कहाँ से आ गया? दिल्ली के 1100 स्कूलों में 25,000 अतिरिक्त शिक्षकों की ज़रूरत है।
जहाँ आपके पास 66,000 शिक्षकों के लिए जगह है, वहाँ आपके पास सिर्फ़ 21,000 रेगुलर शिक्षक हैं, मतलब सिर्फ़ 31% और आप पूर्ण राज्य बन जाने पर 85% आरक्षण की बात करते हो! अरविन्द केजरीवाल ने कहा:
“दिल्ली की नौकरियों और यहाँ के कॉलेजों में दिल्ली वालों को आरक्षण मिलना चाहिए। दिल्ली के छात्र/छात्राओं के लिए यहाँ के कॉलेजों में 85 प्रतिशत सीटें रिजर्व होनी चाहिए। दिल्ली के पूर्ण राज्य बनते ही मैं इसे लागू करूँगा। कैबिनेट ने प्रस्ताव पास कर दिया कि ठेके पर काम करने वालों की नौकरी पक्की की जाए लेकिन वो फाइल भी केंद्र सरकार लेकर बैठी है। दिल्ली पूर्ण राज्य बनेगा तो 24 घंटे में नौकरी पक्की करके दिखा देंगे।”
ख़ुद अरविन्द केजरीवाल का जन्म हरियाणा स्थित भिवानी में हुआ था। पढ़ाई के लिए वो पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में गए। नौकरी उन्होंने झारखण्ड के जमशेदपुर में की। समाज सेवा उन्होंने कोलकाता में की। राजनीति वो दिल्ली में कर रहे हैं। हाँ, इलाज कराने वो बंगलुरु जाते हैं। इसके लिए उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत पड़ी क्या? बाहरी और स्थानीय की राजनीति का खेल शुरू कर चुके केजरीवाल राजनीति के दलदल में इतने गहरे उतर चुके हैं कि कहीं जनता उन्हें भी बाहरी बना कर निकाल न फेंके! जब मूल रूप से एक हरियाणवी दिल्ली का मुख्यमंत्री बन सकता है, पंजाबी परिवार से आने वाली कपूरथला में जन्मीं शीला दीक्षित दिल्ली की सबसे लम्बे कार्यकाल वाली मुख्यमंत्री रह सकती हैं, एक बिहारी (मनोज तिवारी) दिल्ली में विश्व की सबसे बड़ी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बन सकता है, तो दिल्ली के बाहर से आने वालों को यहाँ पढ़ने और नौकरी करने से क्यों रोका जाए?
महाराष्ट्र वाली घटना से सीखें केजरीवाल
2008 में कुछ ऐसा ही समय आया था जब मनसे और सपा कार्यकर्ताओं के बीच झड़प का मराठी क्षेत्रीय दलों ने ख़ूब फ़ायदा उठाया और परिणाम स्वरूप 15,000 से भी अधिक उत्तर भारतीयों को नासिक और 25,000 से भी अधिक को पुणे छोड़ कर जाना पड़ा था। इनमें से अधिकतर छोटे कामगार थे, टैक्सी ड्राइवर्स थे और छात्र थे। इस से हानि स्थानीय सिस्टम को होती है। इसकी एक बानगी देखिए। इन विवादों के कारण सबसे बड़ी भारतीय आईटी कंपनियों में से एक इनफ़ोसिस ने 3000 पदों को चेन्नई शिफ्ट कर दिया था। इस से किसका घाटा हुआ? राजनीतिक दलों के इस अंध-क्षेत्रीयता वाले हंगामे के बीच पुणे को हानि हुई, जो चेन्नई का फ़ायदा बन गया। दिल्ली में तो भला कई कम्पनियाँ स्थित हैं, उनके दफ़्तर हैं, कारखाने हैं, कहीं केजरीवाल के आरक्षण वाली माँग के कारण दिल्ली कश्मीर न बन जाए।
आयुष्मान भारत जैसी जनकल्याणकारी योजना और सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण न देकर केजरीवाल सरकार दिल्ली की जनता के साथ धोखा कर रही है- श्री @ManojTiwariMP pic.twitter.com/VUGHoViwCK
— BJP Delhi (@BJP4Delhi) March 17, 2019
कुल मिलाकर देखें तो अरविन्द केजरीवाल ने जब बात बनते नहीं देखा तो ये दाँव चल कर दिल्ली वासियों को अपने पाले में करने की कोशिश की है। आज जब एक ग्लोबल विश्व की परिकल्पना साकार होती दिख रही है, दुनिया तेज़ी से सम्पूर्ण डिजिटलाइजेशन की तरफ बढ़ रही है, अरविन्द केजरीवाल पुरानी संकीर्णता को ज़िंदा कर के चुनावी फसल काटने का बीड़ा उठाए हुए हैं। जिस दिल्ली ने देश के कोने-कोने से लोगों को बुला कर अपना बना लिया, उस दिल्ली में ये चुनावी संकीर्णता शायद ही चले। साथ ही AAP सरकार यह भी जवाब दे कि ग़रीबों को केंद्र सरकार द्वारा दिया गया 10% आरक्षण अभी तक दिल्ली में क्यों रोक कर रखा गया है?