Sunday, December 22, 2024
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कौन किसके साथ? ख़ुद में ही कन्फ़्यूज़्ड हैं महागठबंधन के नेता

कभी ख़ुद को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने वाले नेता आज अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए समझौते करने को हैं मज़बूर

आजकल मीडिया में एक शब्द जो बार-बार प्रयोग किया जा रहा है, वो है- महागठबंधन। ये शब्द लोगों को इतनी ज़्यादा बार सुनने और पढ़ने के लिए मिल रहा है कि उन्हें ये तक पता नहीं चल पा रहा कि आख़िर महागठबंधन में कौन शामिल हैं और कौन नहीं। महागठबंधन का स्क्रिप्ट 1981 में आई यश चोपड़ा की क्लासिक फ़िल्म सिलसिला से भी ज्यादा जटिल है।

दरअसल, सिलसिला में रिश्तों का ऐसा ताना-बाना बुना गया है, जो असल ज़िन्दगी में शायद ही कहीं देखने को मिले। इस फ़िल्म में जया भादुरी प्रेमिका तो होती हैं शशि कपूर की पर उनकी शादी हो जाती है अमिताभ बच्चन से लेकिन अमिताभ जया से प्रेम नहीं करते और उनकी प्रेमिका रेखा होती हैं। रेखा भी अमिताभ से ही प्रेम करती हैं लेकिन उनकी शादी संजीव कुमार से हो जाती है। फ़िल्मी परदे पर तो ये कहानी काफ़ी अच्छी लगती है, लोग कहानी में खो जाते हैं और उनका मनोरंजन हो जाता है। लेकिन, असल ज़िंदगी में अगर ऐसी खिचड़ी पकती रहे तो लोग पसंद न करें। महागठबंधन के रूप में हमें ऐसी ही खिचड़ी पकती दिख रही है।

सबसे पहले बात मायावती की। कभी भाजपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती आज राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो कॉन्ग्रेस के साथ हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में उन्होंने कॉन्ग्रेस से किनारा कर लिया है। राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के छह विधायक हैं जबकि मध्य प्रदेश में उनके दो विधायक हैं। दोनों ही राज्यों में बसपा कॉन्ग्रेस के साथ है और सत्ता के मजे ले रही है। वहीं उत्तर प्रदेश में पासा पलट जाता है। यहाँ ‘बहन’ जी ने अपने ‘भतीजे’ अखिलेश के साथ मिल कर कॉन्ग्रेस को नज़रअंदाज़ कर दिया। अर्थात यूपी में उनकी लड़ाई कॉन्ग्रेस और भाजपा- दोनों से ही होगी।

मायावती के ताजा बयानों से ये साफ़ है कि वो कॉन्ग्रेस और भाजपा- दोनों राष्ट्रीय दलों से समान दूरी बना कर चल रही हैं। हाल ही में उन्होंने दोनों को ही दलित-विरोधी पार्टी बताया था। मायावती जब भी कोई बयान देती हैं तो वह भाजपा और कॉन्ग्रेस- दोनों को ही लपेटे में लेती हैं। ऐसे में महागठबंधन रूपी खिचड़ी में यह जानना मुश्किल हो गया है कि आखिर बहन जी हैं किसके साथ? अगर वो कॉन्ग्रेस के विरोध में हैं तो फिर दो राज्यों में कॉन्ग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का स्वाद क्यों चख रहीं हैं? अगर वो कॉन्ग्रेस की विरोधी नहीं हैं तो फिर उत्तर प्रदेश में उन्होंने कॉन्ग्रेस पार्टी के भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा बनाने के इरादों पर पानी क्यों फेर दिया?

कभी प्रधानमंत्री की दौर में शामिल रहीं मायावती को आज राज्य में सत्ता पाने के लिए भी समझौते करने पर रहे हों तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें अपने सामने मोदी के रूप में एक ऐसा ख़तरा नज़र आ रहा है, जो उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए संकट बन गया है। हाल ही में अखिलेश यादव के साथ हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि कॉन्ग्रेस पार्टी से गठबंधन करने में उनका फायदा नहीं है। उनके शब्दों पर गौर करें तो हम पाएँगे कि मायावती सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़ायदे के लिए ही अखिलेश के साथ गठबंधन में शामिल हुई हैं। अब ये फ़ायदा कुछ भी हो सकता है- किसी भी तरह सत्ता की मलाई चखना, अपना अस्तित्व बचाना और आगामी लोकसभा चुनाव के बाद किंगमेकर बनना।

अब बात सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की। राहुल गाँधी ने कभी सपा-कॉन्ग्रेस गठबंधन की तुलना प्रयागराज के गंगा-यमुना संगम से की थी। आगामी आम चनाव के लिए बने ताजा हालात में वो गंगा-यमुना का संगम बिख़र गया है। अखिलेश यादव और मायावती के महागठबंधन ने ये साबित कर दिया कि इन इन क्षणिक गठबंधनों और इन्हें जनता के बीच पहुँचाने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले ‘गंगा-यमुना संगम’ जैसे मुहावरों का कोई मोल नहीं है। अवसरवाद की पराकाष्ठा को पार कर रहे ये गठबंधन सिर्फ और सिर्फ चुनावी होते हैं और एक हार के बाद ही बिखर जाते हैं।

सपा का समीकरण भी कुछ खिचड़ी की तरह ही है। अखिलेश यादव भाजपा के ख़िलाफ़ तो काफ़ी मुख़र हैं लेकिन कॉन्ग्रेस या फिर राहुल गाँधी के विरोध में बोलने से बचते रहे हैं। मायावती की तरह उनकी पार्टी में राजस्थान और मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस के साथ सत्ता भोग रही है लेकिन यूपी में हालात अलग हो गए हैं। प्रयागराज में तो आज भी गंगा और यमुना का संगम धाराप्रवाह है और शायद अनंतकाल तक रहे लेकिन राजनीति में ख़ुद को गंगा-यमुना बताने वाली ज़मात आज़ दो अलग दिशा में खड़ी है, कम से कम चुनाव परिणाम आने तक।

दोनों दलों ने कॉन्ग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ने का फ़ैसला लिया है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों से क्रमशः यूपीए अध्यक्षा सोनिया गाँधी और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी चुनाव लड़ते रहे हैं। कुल मिलाकर देखें तो इस खिचड़ी में जनता को यह समझना मुश्किल हो रहा है कि कौन किसके कितना साथ है और कौन किसके कितने विरोध में। राहुल गाँधी की बात करें तो वो सपा-बसपा का सम्मान करने की बात तो करते हैं लेकिन फिर उनके ख़िलाफ़ पूरी ताक़त से चुनाव में उतरने की बात भी करते हैं।

बिहार में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। यहाँ चेहरे की लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने ये कह कर कॉन्ग्रेस को सकते में डाल दिया है कि बिहार में महागठबंधन का चेहरा राहुल नहीं बल्कि लालू यादव होंगे। जीतन राम माँझी की ‘हम’ पार्टी ने भी इस मामले में राजद का समर्थन किया है।

इन सभी वाक़यों को देखने के बाद ये साफ़ प्रतीत होता है कि महागठबंधन की दशा व दिशा, समय, जगह और परिस्थिति पर निर्भर है यानी कि इन तीनों के हिसाब से वो बदलती रहती है और भविष्य में भी बदलती रहेगी। कहीं ये पार्टियाँ एक-दूसरे का विरोध करेंगी तो कहीं समर्थन। आज ये किसी और के साथ रहेंगे और कल किसी और के साथ। साथ ही, किसी राष्ट्रीय दल या गठबंधन को बहुमत न मिलने की स्थिति में किंगमेकर बनने का दिवास्वप्न देख रहे ये दल चुनाव बाद किस पाले में होंगे- इसका अनुमान कोई भविष्यद्रष्टा भी न लगा सके।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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