प्रोपेगेंडा परस्त पत्रकारिता से अपनी पहचान बनाने वाले बीबीसी ने एक बार फिर अपनी बेहुदगी भरी हरक़त का खुला प्रदर्शन किया है। अपने एक लेख को सोशल मीडिया पर शेयर करते समय बीबीसी ने लिखा, “असम: पुलिस ‘पिटाई’ से मुसलमान महिला का गर्भपात।” इस लेख में बीबीसी ने 8 सिंतबर को असम के दरभंगा ज़िले की एक घटना का ज़िक्र किया, जिसके मुताबिक़ रऊफुल अली नाम के शख़्स पर एक लड़की के अपहरण का मामला दर्ज हुआ था। उसकी तफ़्तीश के लिए पुलिस उसकी बहन के घर पहुँची, जहाँ पूछताछ के लिए अली की दोनों बहनों को पुलिस स्टेशन ले जाया गया।
पुलिस की पूछताछ के दौरान अली की बहनों के साथ कथित तौर पर जो भी बर्ताव हुआ, उसकी जाँच के आदेश ख़ुद मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने सेंट्रल वेस्टर्न रेंज के डीआजी को दे दिए। साथ ही बूढ़ा आउट पोस्ट के इंचार्ज सब-इस्पेक्टर महेंद्र शर्मा और महिला कॉन्स्टेबल बिनीता बोड़ो को निलंबित भी कर दिया गया। ये सब तो वो बातें हैं, जिनसे यह पता चलता है कि इस मामले को न सिर्फ़ गंभीरता से लिया गया बल्कि तत्काल प्रभाव से तुरंत कार्रवाई भी की गई। लेकिन, आपत्ति तो बीबीसी की पत्रकारिता पर है जो इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि अपने इस लेख में बीबीसी ने इस घटना को साम्प्रदायिक रंग देने का पूरा प्रयास किया।
असमः पुलिस ‘पिटाई’ से मुसलमान महिला का ‘गर्भपात’ https://t.co/DD9RXSLiyU
— BBC News Hindi (@BBCHindi) September 18, 2019
ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि बीबीसी ने जब इस लेख को ट्विटर हैंडल से शेयर किया तो उसकी हेडिंग, “असम: पुलिस ‘पिटाई’ से मुसलमान महिला का गर्भपात” रखी, लेकिन इसी ख़बर की वेबसाइट पर जो हेडिंग रखी, उसमें से मुसलमान शब्द हटाकर “असम: पुलिस ‘पिटाई’ से महिला का गर्भपात” रखी। सोशल मीडिया पर शेयरिंग के दौरान हेडिंग में ‘मुसलमान’ शब्द जोड़ना बीबीसी की नीयत को साफ़ कर देता है। जबकि स्पष्ट है कि राज्य सरकार से इस मामले में जितनी तेज़ी से कार्रवाई की जानी चाहिए थी, वो की गई। बावजूद इसके बीबीसी ने अपने लेख में साम्प्रदायिकता का राग अलापा जो भारत के प्रति उसके रुख़ को स्पष्ट करता है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि एक महिला के साथ किया गया दुर्व्यवहार हर मायने में ग़लत है, फिर चाहे वो महिला किसी भी धर्म-जाति या समुदाय से संबंध रखती हो। महिलाओं के साथ हिंसात्मक रवैये का पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए, फिर चाहे वो शब्दों के माध्यम से हो या सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन के माध्यम से हो। लेकिन, दु:ख इस बात का है कि प्रोपेगेंडा परस्त बीबीसी की पीड़ा शायद ‘मुसलमान’ महिलाओं तक ही सीमित है, जिससे साफ़ पता चलता है कि बीबीसी अपने पत्रकारिता के असल उद्देश्य से पूरी तरह से भटका हुआ है, ऐसी सूरत में बीबीसी की इस पत्रकारिता को दोगलापन न कहा जाए तो भला और क्या कहा जाए?
इससे पहले भी ऐसी अनेकों घटनाएँ सामने आ चुकी हैं जिसमें बीबीसी अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिए फ़ेक न्यूज़ फैलाने का काम बड़ी मुस्तैदी के साथ करता दिखा। केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद भारत के संदर्भ में बीबीसी की रिपोर्टिंग ने ज़हर उगलना पहले के मुक़ाबले और तेज़ कर दिया है। बीबीसी की फ़ेक न्यूज़ की लिस्ट देखने के लिए यहाँ क्लिक करें, जिससे आप बीबीसी की रिपोर्टिंग की नीयत को आसानी से समझ सकेंगे।
पिछले महीने, बीबीसी उर्दू ने पत्थरबाज़ों के हाथों कश्मीरी ड्राइवर की मौत को जायज़ ठहराया, और फिर बाद में अपने लेख में से उस लाइन को हटा दिया। बीबीसी ने अपने लेख में लिखा था, “सेना के जवान बड़ी तादाद में ट्रक में ट्रैवल करते हैं, जिससे वहाँ के नौजवानों ने यह समझ लिया कि ट्रक में सुरक्षाबल हैं।” हालाँकि, कुछ देर बाद बीबीसी ने अपने लेख में से इस लाइन को हटा लिया, लेकिन जम्मू-कश्मीर के पुलिस अधिकारी इम्तियाज हुुसैन ने इस स्टोरी में उस लाइन का स्क्रीनशॉट ले लिया और ट्विटर पर शेयर कर दिया। भाषा उर्दू थी तो कई लोगों ने इसे रिट्वीट और कमेंट करके अनुवाद किया।
@BBCUrdu website has deleted the controversial line from the story now. I had taken the screenshot though. pic.twitter.com/sNrdTIaqUI
— Imtiyaz Hussain (@hussain_imtiyaz) August 27, 2019
भारतीय सेना को बदनाम करने की बीबीसी की उन घृणित कोशिशों पर से पर्दा उठा था, जिसमें यह दावा किया गया कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने के बाद भारतीय सेना वहाँ की जनता के साथ क्रूर व्यवहार कर रही है।
बीबीसी ने अपनी पूरी कोशिश की कि जम्मू-कश्मीर की सामान्य स्थिति को किस तरह से तनावपूर्ण स्थिति में दिखाया जा सके और विश्व मंच पर भारत की छवि को धूमिल किया जा सके। अपने प्रोपेगेंडा और नैरेटिव को सच साबित करने के लिए बीबीसी गर्त में गिरने तक को तैयार है।
दरअसल, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 के निष्क्रिय कर दिए जाने के बाद वहाँ के हालात पर भ्रामक ख़बरों का सिलसिला चल निकला था, जिस पर विराम लगाने के लिए गृह मंत्रालय ने एक ट्वीट किया, जिसमें लिखा गया था कि मीडिया में श्रीनगर के सौरा इलाक़े में घटना की ख़बरें आई हैं। 9 अगस्त को कुछ लोग स्थानीय मस्ज़िद से नमाज़ के बाद लौट रहे थे। उनके साथ कुछ उपद्रवी भी शामिल थे। अशांति फैलाने के लिए इन लोगों ने बिना किसी उकसावे के सुरक्षाकर्मियों पर पत्थरबाज़ी की। लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने संयम दिखाया और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश की। गृह मंत्रालय के ट्वीट में यह स्पष्ट किया गया था कि अनुच्छेद-370 को ख़त्म करने के बाद से जम्मू कश्मीर में एक भी गोली नहीं चली है।
बीबीसी ने गृह मंत्रालय के इस ट्वीट को अपने कथित फ़र्ज़ी वीडियो से जोड़कर अपने लेख में लिखा कि श्रीनगर के सौरा में हुई थी पत्थरबाज़ी, सरकार ने माना! जबकि सच्चाई कुछ और थी, लेकिन आदतन बीबीसी ने भारत के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग की, जिसका मक़सद केवल फ़र्ज़ी ख़बर को प्रचारित-प्रसारित करना था।
बीबीसी की पत्रकारिता फ़र्ज़ी ख़बरों को गढ़ने तक सिमट गई है, लेकिन इसका ख़ामियाज़ा और कोई नहीं बल्कि वो भोले-भाले लोग भुगतते हैं जो बीबीसी की इस दोगली पत्रकारिता को सच मान बैठते हैं और प्रोपेगेंडा के जाल में फँस जाते हैं।