Friday, November 15, 2024
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‘न्याय योजना’ उजाले में वोट खरीदने की कॉन्ग्रेस की विलक्षण नीति का नाम है

वैसे राहुल गाँधी की न्याय योजना को लेकर यह बात समझ में आ रही है कि चुपचाप रात के अंधेरे में शराब और पैसा बाँटकर चुनाव जीतने की कोशिश अब दिन के उजाले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वोटर के अकाउंट में पैसे डालने पर पहुँच गई है।

लोकसभा चुनाव का समय नज़दीक है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव जीतने की कोशिश में जुटी है। इस दौरान राजनीतिक दल जनता के सामने लोकलुभावन वादे कर रहे हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियों द्वारा वोट खरीदने की कोशिश की जाती है और इसे ‘न्याय’ का नाम दे दिया जाता है।

दरअसल हम बात कर रहे हैं कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की, जिन्होंने लोकसभा चुनाव के मुख्य चुनावी वादे के रूप में न्यूनतम आय गारंटी योजना की घोषणा की है। इस योजना के अनुसार, 5 करोड़ परिवारों के देश में सबसे गरीब 20% लोगों को प्रति वर्ष 72,000 रुपये का भुगतान किया जाएगा। लेकिन पार्टी इस बात का ब्यौरा नहीं दे रही है कि इस भारी भरकम योजना को लागू कैसे किया जाएगा? इसके लिए फंड कहाँ से आएँगे। जीडीपी और राजकोषीय घाटे पर इसका क्या असर होगा? अगर यह योजना लागू होती है, तो 2019-20 में करीब ₹3,60,000 करोड़ की जरूरत होगी। वो पैसे कहाँ से आएँगे?

हालाँकि जाने-माने अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का कहना है कि उन्होंने कॉन्ग्रेस को सलाह दी थी कि न्‍याय स्‍कीम के तहत ₹2,500 से ₹3,000 तक देना राजकोषीय अनुशासन के दायरे में होगा। ‘टाइम्स नाउ’ को दिए इंटरव्‍यू में अभिजीत बनर्जी ने बताया कि कॉन्ग्रेस पार्टी ने ‘न्याय स्कीम’ को लेकर उनसे सलाह ली थी और उन्होंने पार्टी को बताया था कि न्यूनतम आय के तहत प्रति माह ₹2,500 देना सही रहेगा। यह राजकोषीय अनुशासन के दायरे में होगा।

इस पर सालाना ₹1.50 लाख करोड़ खर्च का अनुमान लगाया था। मगर लोकसभा चुनाव की वजह से कॉन्ग्रेस की ओर से इसे सीधा दोगुना कर दिया गया। बनर्जी का मानना है कि इस योजना के लागू होने के बाद राजकोषीय असमानता आने की आशंका है। ऐसे में इनकम टैक्‍स, जीएसटी की दरों में बढ़ोतरी हो सकती है। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो राजकोषीय असमानता आ सकता है। इसके साथ ही बनर्जी ने कहा कि इस स्‍कीम के लागू होने पर अगला कदम वाटर, इलेक्‍ट्र‍ीसिटी और फर्टिलाइजर सब्‍सिडी को हटाने का होगा। इसके बाद ही न्‍याय स्‍कीम को प्रभावी ढंग से इस्‍तेमाल किया जा सकेगा।

वहीं वित्त मंत्री अरुण जेटली का भी इस बारे में कहना है कि अगर न्यूनतम आय योजना को लागू किया गया तो देश में पहले से चल रहा राजकोषीय घाटा और अधिक बढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि कॉन्ग्रेस अध्यक्ष तथाकथित अर्थशास्त्रियों का हवाला देकर जो गरीबी हटाने का फॉर्मूला दे रहे हैं, वो चुनावी धोखा है। इसके साथ ही अरुण जेटली ने कहा कि इस योजना की घोषणा से ये बात साबित हो जाती है कि न तो इंदिरा गाँधी, ना उनके बेटे और ना ही उनके उत्तराधिकारियों द्वारा चलाई जा रही सरकार गरीबी हटाने में सफल हो पाई है। उन्होंने कहा कि ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देने के बाद कॉन्ग्रेस और गाँधी परिवार ने दो तिहाई समय तक शासन किया। जब कॉन्ग्रेस पार्टी इतने बड़े कालखंड में गरीबी को हटाने में असफल रही तो अब देश उन पर क्यों विश्वास करेगा?

वैसे राहुल गाँधी की न्याय योजना को लेकर यह बात समझ में आ रही है कि चुपचाप रात के अंधेरे में शराब और पैसा बाँटकर चुनाव जीतने की कोशिश अब दिन के उजाले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वोटर के अकाउंट में पैसे डालने पर पहुँच गई है। इसके साथ ही ये भी स्पष्ट हो गया है कि कॉन्ग्रेस के पास गरीबी हटाने का विजन नहीं है। राहुल गाँधी ने मुफ्त का पैसा बाँटने की योजना लाकर यह साबित कर दिया है कि उनके पास नौकरियाँ देने की ठोस नीति नहीं हैं। यानी कॉन्ग्रेस के पास ऐसी कोई योजना नहीं है कि लोग परिश्रम से पैसा कमाकर गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर निकलें। लेकिन वो शायद ये भूल गए कि मुफ्तखोरी के पैसों से गरीबी नहीं मिटाई जा सकती।

अब यहाँ पर सवाल यह भी उठता है कि यदि राहुल को गरीबों और किसानों की इतनी ही चिंता है तो वो कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में किसान सम्मान निधि योजना लागू क्यों नहीं कर रही है? क्यों वो आयुष्मान योजना के लाभ से गरीबों को वंचित रख रही है। वैसे देखा जाए तो कॉन्ग्रेस का इतिहास गरीबी और गरीबी हटाने के नाम पर राजनीतिक व्यवसाय का रहा है। मगर उनका असली मकसद गरीबी हटाने का नहीं, बल्कि गरीबी हटाने का सपना दिखाकर अपने योजनाओं के माध्यम से छल कपट करके सत्ता हासिल करने का है।

ऐसा प्राय: देखा गया है कि नेता लोग सोचते हैं कि किसानों का कर्ज माफ कर, या लोगों के बैंक अकाउंट में पैसा ट्रांसफर कर वोटों को खरीदा जा सकता है, गरीबी दूर किया जा सकता है। लेकिन सही मायने में राष्ट्र निर्माण तभी होगा जब वह किसानों और गरीबों को इतना सक्षम बना दें, कि उन्हें कर्ज माफी की जरूरत ही ना पड़े। वह खुद अपना कर्ज चुकाने में सक्षम हों।

मगर असलियत तो यह भी है ना कि इनको जनता की भलाई से कोई मतलब ही नहीं होता है। इन्हें तो बस वोट बैंक बढ़ाकर चुनाव जीतना होता है। इसके पीछे एक और कारण ये भी हो सकता है कि इन्हें डर होता है कि अगर ये वोटर सक्षम हो गए तो फिर इनसे बड़े और वाजिब मुद्दे पर सवाल करने लगेंगे और फिर तब ये कर्ज माफी और न्याय योजना का लॉलीपॉप देकर वोट नहीं खरीद पाएँगे।

इसलिए राजनीतिक दलों को यही तरीका आसान लगता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर पैसा फेंककर लोगों का वोट ख़रीद लिया जाए। बहरहाल, ये स्कीम नेताओं के सत्ता सुख के लिए तो अच्छी है, लेकिन यह देश के लिए मुफ्तखोरी के नशे की तरह है, जो लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला कर देगा।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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