कॉन्ग्रेस के राज्यसभा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा फायर हैं, कि मोदी भला पूर्व सांसदों को एक हफ्ते में बंगले खाली करने को कह रहे हैं। उनके हिसाब से यह ‘harsh, Arbitrary and discriminatory’ है। शिकायत कर रहे हैं कि पूर्व सांसद को तो पेंशन एक चपरासी से भी कम मिलती है। और सरकार के सचिवों को मकान खाली करने के लिए 6 महीने का समय मिलता है।
Prime Minister! your diktat to Former MP’s to vacate accommodation in 7 days is harsh, Arbitrary and discriminatory. Former MP’s get a pension less than peons. Secretaries to to the Govt retain accommodation for six months.
— Anand Sharma (@AnandSharmaINC) August 19, 2019
आगे वह मामले को राजनीतिक से नैतिक चाशनी में लपेटने का प्रयास करते हुए पूछते हैं कि क्या मोदी चाहते हैं कि भारतीय सांसद अमीर और भ्रष्ट हो जाएँ? लोगों की बजाय कॉर्पोरेट और मल्टीनेशल कंपनियों के प्रतिनिधि बनें? ईमानदार वालों को परिवार की चिंता करनी होती है।
I ask you a direct question : Do you want Indian MP’s to be rich and corrupt? Representing the people or Corporates & Multinationals. The honest ones have families to support. You are being hypocritical.
— Anand Sharma (@AnandSharmaINC) August 19, 2019
कॉन्ग्रेस की हाल-फ़िलहाल की पूरी राजनीति की तरह यह भी बोगस तर्कों का एक पुलिंदा है, जिसमें जान केवल इसलिए दिख रही है कि एक साथ 4-5 कुतर्कों और कमज़ोर तर्कों का पुलिंदा आपने साथ बाँध दिया है, इस उम्मीद में कि क्या पता, एक-आधा तीर अँधेरे में ही निशाने पर लग जाए!
पेंशन का झूठ
सांसदों की पेंशन के बारे में आनंद शर्मा जी अर्धसत्य बोल रहे हैं। ₹25,000 मासिक पेंशन सुनने में बिलकुल कम लगती है, लेकिन यह केवल पहली बार सांसद बन कर अगला चुनाव हार जाने वालों की है। उसके बाद दूसरे संसदीय कार्यकाल से इसमें ₹2000 प्रति महीना की वृद्धि होती है। यानि कोई व्यक्ति अगर तीन लोकसभाओं का कार्यकाल पूरा करके रिटायर हो तो उसकी कुल पेंशन होगी ₹25,000 + (अगली दो लोकसभाओं के कार्यकाल के 120 महीने का ₹2000 X 120 = ₹2,40,000) यानि ₹2,65,000।
अगर कोई दूसरे लोकसभा कार्यकाल में एक साल पूरा करके भी त्यागपत्र दे दे तो उसकी पेंशन ₹25,000 + (12 X ₹2000 = ₹24,000) = ₹49,000 होगी। महज़ 6 साल काम करके ₹49,000 की पेंशन किस चपरासी या किस सचिव को मिलती है?
अब ज़रा सांसदों के वेतन की बात करें। 2017 में इंडिया टुडे पर प्रकाशित एक आकलन के मुताबिक एक सांसद को केवल मूल वेतन ₹16,80,000 सालाना था; और सारे खर्चे मिलाकर सरकारी खजाने से ₹35,02,000 सालाना प्रति सांसद का खर्चा था। आनंद शर्मा जी बताएँगे नौकरी के पहले ही साल से ₹35,02,000 किस चपरासी या कितने सचिवों को मिल जाती है? देश के सबसे ‘तगड़े पैकेज’ वाली MBA के बाद की कॉर्पोरेट नौकरी में भी पहले साल से ही ₹35 लाख सालाना पाने वाले महज़ 5-10% होते हैं।
और एक बात, 7 दिन का यह नोटिस दिए जाने के पहले पूर्व सांसदों को चुनाव हारे लगभग 2 महीने बीत चुके हैं। कम होते हैं 2 महीने बोरिया-बिस्तर समेटने के लिए? या पूर्व-सांसद संसद से ‘एग्जिट’ करते समय कोई कसम खाते हैं, जैसे घुसने के समय शपथ ली जाती है संविधान की, कि आखिरी नोटिस, आखिरी धक्का खा के ही खाली करेंगे?
ईमानदारी सांसदों की बपौती नहीं होती
इसके अलावा आनंद शर्मा अपने अगले ट्वीट में जो एजेंडा धकेलने की कोशिश करते हैं ईमानदार “बनाम” कॉर्पोरेट का, वही कॉन्ग्रेस के गर्त में गिरते जाने का सबसे बड़ा कारण है- खुद चुनिंदा अमीरों के साथ मिलकर 2G, कोयला घोटाला से लेकर उनकी पार्टी के किए हुए घोटालों की परतें अभी तक उखड़ रही हैं, और इस देश में सबसे बड़े आयकरदाता कॉर्पोरेट जगत को वह बेईमान घोषित करना चाहते हैं। उन्हें यह पता होना चाहिए कि न केवल मुट्ठी भर कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला कॉर्पोरेट टैक्स सरकार के राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत है, बल्कि कॉर्पोरेट हवा या मंगल ग्रह से नहीं आते- उन्हीं लाखों-करोड़ों आम शेयरधारकों से बनते हैं, जिनका प्रतिनिधित्व करने का कॉन्ग्रेस पार्टी दावा करती है।
आनंद शर्मा यूपीए में उद्योग और वाणिज्य मामलों के मंत्री थे। उद्योग जगत की समस्याएँ सुलझाने के लिए कॉन्ग्रेस सरकार ने उन्हें रखा था; जब वह कॉर्पोरेट जगत के लोगों से मिलते थे तो क्या ऐसे मिलते थे जैसे कोई थानेदार किसी चोर से मिलता है?
अगर आनंद शर्मा जी को सच में लगता है कि एक सांसद की आर्थिक स्थिति किसी चपरासी से खराब होती है रिटायरमेंट के बाद, तो वे अपने बच्चों या अपने जानने वालों के बच्चों को “राजनीति में आने की बजाय चपरासी बनना बेहतर है” का चूरन चटाएंगे? और कोई नहीं, तो वे अपने भूतपूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी को क्यों नहीं कहते कि वे सांसदी-वांसदी छोड़ कर चपरासी ही बन जाएँ?