सीमा पर तनाव का माहौल है। बॉर्डर पर पाकिस्तान की तरफ से बमबारी जारी है। दो-तीन दिनों पहले उस बमबारी में नौ महीने के एक बच्चे की मौत हो गई और उसी दिन श्रीनगर में कुछ आतंकवादियों ने अंधाधुंध गोली चलाकर पाँच जवानों और कुछ मासूमों को मार दिया। हर साल इसी तरह कई मासूम लोग आतंकवादियों द्वारा मारे जाते हैं। कुछ लोग ये मानते हैं कि इसे युद्ध से सुलझाया जा सकता है तो कुछ लोग ये मानते हैं कि हिंसा कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं होती। और कुछ लोग ये भी मानते हैं कि Nationalism, hyper-nationalism और jingoism के बहाने युद्ध की बातें करने वाले सारे लोग घिनौने, क्रूर और warmonger होते हैं।
हर मसले का बहुत सारा परिप्रेक्ष्य यानी कि perspective होता है। अक्सर हम ये मान लेते हैं कि हमारा परिप्रेक्ष्य ही सही है और दूसरों का ग़लत। पुलवामा हमले के बाद भी कई तरह के विपरीत विचार सामने आए हैं, लेकिन आज मैं पाकिस्तान को सबक सिखाने की बातें करने वाले लोगों के बारे में बोलना नहीं चाहता। आज मैं उन लोगों के बारे में बातें करना चाहता हूँ, जो ये मानते हैं कि उरी पर फिल्म बनाकर या पुलवामा हमले का बदला लेकर हमने अच्छा नहीं किया। आज मैं कुछ अच्छे लोगों के बारे में बातें करना चाहता हूँ।
अच्छे लोग हिंसा या हिंसा के किसी भी संवाद से दूर रहते हैं। अच्छे लोग आतंकवादी हमलों पर दुःख व्यक्त करते हैं, गाँधी के सन्देश लिखते हैं, फैज़ की नज़्म पढ़ते हैं, चैनल बदल कर गुस्सा कम करते हैं और फिर सो जाते हैं। अच्छे लोग मोदी की हँसी में भी युद्ध के विषैले गीत सुन लेते हैं और अच्छे लोग जैश-ए-मोहम्मद को पनाह देने वाले इमरान खान में statesmanship देख लेते हैं। अच्छे लोगों में अच्छा दिखने की इतनी होड़ लगी रहती है कि हिन्दुस्तान के सौ लोगों का पोस्ट पढ़कर उन्हें पूरा हिन्दुस्तान खून का प्यासा दिखने लगता है और पाकिस्तान के दो पोस्ट पढ़कर पूरा पाकिस्तान उन्हें शान्ति की जन्मभूमि दिखने लगती है।
आतंकवादी कैंपों पर हमला करना कब से ग़लत हो गया?
जब अमेरिका पाकिस्तान में घुस कर लादेन को मार रहा था, तब तो उसे युद्ध नहीं बोला गया था। उस दिन तो हमारे अच्छे लोग ये नहीं कह रहे थे कि ओबामा खून का प्यासा है और उसने वोट के लिए लादेन को मार दिया। उस दिन किसी ने ये नहीं कहा था कि पाकिस्तान की अवाम शांति चाहती है, लेकिन अमेरिकी लोग घिनौने हैं। मोदी ने बस ये कहा है कि पुलवामा का बदला लिया जाएगा और इतने में ही वो सबसे बुरा आदमी हो गया।
अच्छे लोगों का मानना है कि भारत को आतंकवादी कैम्पों पर हमला करने के बाद जश्न नहीं मनाना चाहिए था, क्योंकि इससे शान्ति की प्रक्रिया भंग होती है। अच्छे लोग ‘अच्छा सच’ सुनना चाहते हैं। उन्हें ‘बुरा सच’ उचित नहीं लगता। हर रोज़ जब हम शांति की अच्छी बातें लिखकर सो रहे होते हैं, तो सीमा पर आतंकवादी हमलों में कोई न कोई जवान शहीद होता रहता है। हर रोज़ जब हम फैज़ और नेरुदा की कविताएँ पढ़कर ख़ुद को अच्छा इंसान मानते रहते हैं तो उस समय कुछ निर्दोष लोग हमेशा के लिए शांत कर दिए जाते हैं। शान्ति और कविताएँ उन्हें भी पसंद होती हैं, लेकिन जब उनके सामने आतंकवादी बन्दूक लेकर खड़ा रहता है, तब उनके पास बड़ी-बड़ी philosophical बातें करने का convenience नहीं होता।
अच्छे लोग कहते हैं कि केवल प्रेम और संवाद से हिंसा रोकी जा सकती है। अच्छे लोग आपको ये नहीं सुनाना चाहते हैं कि कश्मीर को per-capita के मुताबिक़ सबसे ज्यादा फण्ड मिलता है। इसमें education और medical facilities पर बहुत ध्यान दिया जाता है। अच्छे लोग ये नहीं सुनना चाहते हैं कि जब कोई जवान आतंकवादी को घेरने जाता है तो उस पर पत्थर बरसाए जाते हैं। अच्छे लोग अच्छी बातें लिख कर समस्या हल कर लेते हैं।
जी बिलकुल, युद्ध से गरीबी और तबाही फैलती है। उससे आम आदमी परेशान होता है। आम आदमी के पास पहले से कम परेशानियाँ नहीं हैं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि आतंकवादी हमलों में सेना को शांति से मर जाना चाहिए, ताकि आम आदमी शांति की कविता लिख पाए। एक गंभीर समस्या को बस इसलिए तो नहीं भूल जाना चाहिए क्योंकि कुछ गंभीर समस्याएँ और भी हैं।
अच्छे लोग ये तो बोल देते हैं कि सेना की इतनी फ़िक्र है तो सीमा पर लड़ने क्यों नहीं चले जाते, लेकिन कभी ये नहीं बोलते कि मैं सीमा पर शांति का सन्देश लेकर जाऊँगा।
प्रश्न पूछना अच्छा है। आप पूछते रहिए, लेकिन जवाब यदि कड़वा हो तो कान बंद मत कीजिएगा।