ज्ञानेश्वर ने इस ट्वीट में शहाबुद्दीन की बेवा के चुनावी मैदान में चुन्नी-माला ओढकर निर्दलीय उतरने पर खुशी जताई। इसके अलावा सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि उन्होंने ट्वीट में शहाबुद्दीन के सारे दोषों को नकारते हुए उसे इतना हल्का दिखाया जैसे माफिया पर कोई छोटे-मोटे आरोप हों जिन्हें आसानी से नजर अंदाज किया जा सकता है।
ट्वीट की भाषा देखें तो इसमें ज्ञानेश्वर ने लिखा शहाबुद्दीन को ‘दिवंगत’ लिखा। साथ ही पूरे सम्मान के साथ कहा-“उन्होंने जो कुछ किया, लेकिन कभी हिन्दू-मुस्लिम नहीं किया।” इतना ही नहीं ये भी कहा कि शहाबुद्दीन के रहते सीवान में दंगा कोई सोच भी नहीं सकता था। आगे पत्रकार महोदय ने शहाबुद्दीन के पढ़ने-लिखने की शौक की तारीफ की और उसे सेकुलर दिखाते हुए कहा कि ‘उनसे गीता-कुरान दोनों पर बात की जा सकती थी।’
सीवान लोक सभा अपडेट: हीना शहाब का ये रंग देख अच्छा लगा. दिवंगत शहाबुद्दीन के बारे में भी ये मेरी राय रही है कि बाकी उन्होंने जो कुछ किया, लेकिन कभी हिन्दू-मुस्लिम नहीं किया. सीवान में दंगा कोई सोच भी नहीं सकता था. शहाबुद्दीन पढ़ने के शौकीन भी थे. कुरान और गीता दोनों पर आप उनसे… pic.twitter.com/46U5fBMBvm
— Gyaneshwar (@Gyaneshwar_Jour) May 1, 2024
जिस हिसाब से ज्ञानेश्वर का ये ट्वीट किया गया है उसे देख ऐसा लगता है कि वो शहाबुद्दीन के सारे गुनाहों को भुला चुके हैं और बीड़ा उठाया है कि हीना शहाब के प्रचार के लिए किसी भी तरह जनता की स्मृतियों से वो शहाबुद्दीन की दुर्दांत अपराधी की छवि बदल दें।
हालाँकि, ये काम इतना आसान नहीं है जितना ज्ञानेश्वर मानकर बैठे हैं। उनकी बेशर्मी है कि वो बिहार से होते हुए शहाबुद्दीन की याद सीवान के लोगों को दिला सकते हैं लेकिन इतना इमान उनमें नहीं बचा है कि वो हीना शहाब के मैदान में उतरने पर चंदा बाबू को याद करके जनता को बता दें कि इन दोनों नामों के बीच क्या कनेक्शन है। पर बिहार की जनता ऐसी नहीं है। उन्हें जितना शहाबुद्दीन याद है उससे ज्यादा बिहार के चंदा बाबू याद हैं।
अच्छा है आज वो चंदा बाबू दुनिया में नहीं हैं वरना खुद को एक पत्रकार कहने वाले शख्स के ऐसे विचार देख उन्हें अथाह दुख पहुँचता। ऐसा दुख, जिसकी भरपाई ज्ञानेश्वर की चाशनी में डूबी भाषा नहीं कर पाती। ज्ञानेश्वर की तरह चंदा बाबू भी बिहार से ही थे, उनका परिवार भी एक समय तक हँसता-खेलता साथ रहता था। मगर, ये सब तब तक था जब तक कि शहाबुद्दीन की नजर उनके परिवार पर नहीं पड़ी। जिस दिन ऐसा हुआ उस दिन ज्ञानेश्वर के ‘सेकुलर’ शहाबुद्दीन ने उनके दो बेटों को तेजाब से नहलाकर मौत के घाट उतार दिया और जब तीसरे बेटे ने न्याय लेने की कोशिश की तो उसकी भी हत्या करवा दी गई।
साल 2020 में लंबे समय से बीमारी से जूझ रहे चंदा बाबू आखिरी सांस लेने से पहले सालों तक न्याय की गुहार लिए दर-दर भटके थे। जब उनकी तस्वीर आती थी तो अपनी पत्नी के साथ तीनों बेटों की तस्वीर को हाथ में लिए दिखते थे। उनका दुख इतना बड़ा था कि सामान्य व्यक्ति अगर चंदा बाबू के दर्द को सोच ले तो आज भी उसकी रूह कांप जाए लेकिन उन्हें भुलाकर शहाबुद्दीन का महिमामंडन करना सिर्फ ज्ञानेश्वर जैसे पत्रकार ही कर सकते हैं जिन्हें चंदा बाबू के दर्द से कोई सरोकार तक नहीं और उनका प्रोफेशन सिर्फ ‘दलाली’ करना रह गया है।
अजीब बात ये है कि ज्ञानेश्वर ने जिस शहाबुद्दीन को हीरो दिखाकर पेश करने का प्रयास किया है उसके खिलाफ एक दो ममाले नहीं बल्कि पूरे 56 मुकदमे थे जिसमें से उसे 6 में सजा भी हो गई थी। उसने अपराध की दुनिया में पाँव जमाना अपने करियर के शुरुआती समय से शुरू कर दिया था लेकिन पहली एफआईआर उसके खिलाफ 1986 में हुई थी। इसके बाद 2016 में भी उसका नाम एक पत्रकार की हत्या में आया था।
2005 में जब सीवान के एसपी और डीएम ने शहाबुद्दीन के घर छापेमारी की तो उसके यहाँ पाकिस्तान निर्मित कई गोलियाँ, एके-47 सहित ऐसे उपकरण मिले था। इसके अलावा नाइट गॉगल्स और लेजर गाइडेड समेत कई चीजें मिली थीं, जिनपर पाकिस्तना ऑडिनेंस फैक्ट्री की मुहर लगी थी। छापेमारी के बाद बिहार के पूर्व डीजीपी ओझा ने अपने कार्यकाल में शहाबुद्दीन के आईएसआई कनेक्शन के बारे में खुलासा किया था। उन्होंने पूरी 100 पेज की रिपोर्ट सौंपी थीं। लेकिन उस समय राबड़ी देवी सरकार थी और उन्होंने उसे पद से हटा दिया था।
ये सिर्फ चंद मामले हैं जो शहाबुद्दीन के मीडिया के सामने हैं। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर उसके खौफ की कहानी तमाम हैं। बावजूद उन सबके ज्ञानेश्वर जैसे पत्रकार चुनाव आने पर ऐसे माफियाओं का महिमामंडन करते मिलते हैं तो समझना मुश्किल होता है कि खुद को निष्पक्ष कहने वाले लोगों के लिए निष्पक्ष होने की परिभाषा क्या है।