एक विलायती वेब सीरिज है। नाम है- हाउस ऑफ कार्ड्स (House of Cards)। इस सीरिज में एक दृश्य है, जिसमें एक अति महत्वाकांक्षी अमेरिकी नेता का पूर्व सुरक्षाकर्मी अस्पताल के बिस्तर पर लेटा होता है। नेता की बीवी उसका हाल जानने आती है। सुरक्षाकर्मी अपने दिल की बात बताता है। कहता है कि उसे उसके पति से नफरत है, लेकिन उसे वह पसंद है… माने वो भले अमेरिकी नेता की सुरक्षा में होता है, लेकिन दिल में उसकी बीवी से संभोग करने की ख्वाहिश रखता है। यह जानने के बाद नेता की बीवी उसके निजी अंगों को सहला देती है और वह चंद सेकेंड में निस्तेज गति को प्राप्त हो जाता है।
बिहार के किसी बदहाल सरकारी अस्पताल के बेड (जिस पर अक्सर कुत्ते लोटते मिल जाते हैं) जैसी ही भारत में कमोबेश सर्वदा पत्रकारिता की स्थिति रही है। आज उस पर लेटे रवीश कुमार की हालत वेब सीरिज वाले सुरक्षाकर्मी जैसी है। मानो वे इस इंतजार में हैं कि कोई आए, सहलाए और वे निस्तेज गति को प्राप्त हो जाएँ। सत्ता संभोग के पुराने दिन लौटे। सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राएँ हो। फोन कॉल से मंत्री बने। राष्ट्रपति भवन में मीडिया संस्थान का जलसा मने। टूबीचएके हाथों में हो…
वैसे भी खबरों का धंधा करने वालों को उद्योगपतियों से नफरत क्यों होने लगे। भले उसका नाम अंबानी हो या अडानी। उन्हें तो नफरत सत्ता के उस चौकीदार से है, जिससे संभोग करने का अभ्यस्त वह मीडिया रही है, जिसे कभी रवीश कुमार खुद लुटियन मीडिया कहते रहे हैं।
वैसे यह किसी एक रवीश की कुंठा नहीं है। अजीत अंजुम, अभिसार शर्मा, विनोद कापड़ी, पुण्य प्रसून वाजपेयी… आप गिनती करते थक जाएँगे पर कुंठित खत्म न होंगे। इनकी कुंठा यह है कि 2014 के पहले सत्ता आती थी और सहला जाती थी। कुंठा स्खलन हो जाता था। 2014 के बाद तेल की सप्लाई बंद हो गई। कुंठा का स्खलन पहले स्टूडियो के न्यूज रूम और फिर यूट्यूब चैनलों पर होने लगा।
यही कारण है कि एनडीटीवी से इस्तीफे के बाद रवीश कुमार भी यूट्यूब पर लगातार स्खलन कर रहे हैं। पहले खुद के चैनल पर ‘गोदी सेठ’ वाला स्खलन किया। फिर अजीत अंजुम के साथ खुली छत पर। अब उन्होंने करन थापर के साथ बंद कमरे में वाया ऑनलाइन स्खलन किया है।
रवीश कुमार न तो पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने किसी मीडिया संस्थान से इस्तीफा दिया है। न आखिरी व्यक्ति होंगे। वे न तो पहले व्यक्ति हैं जिसकी पहचान उसके संस्थान से बड़ी दिखनी लगी थी, न आखिरी होंगे। यह सब तब भी होता था, जब सोशल मीडिया नहीं होती थी। कभी प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता होता था। उनके रहते ही पत्रकारिता के पुरोधा ओम थानवी दीमक की तरह लगे। हँसते-खेलते संस्थान को चट कर गए और डकार तक न ली। फिर वे पत्रकारिता पढ़ाने लगे।
मतलब ‘अपुन ही गॉड है’, टाइप की फीलिंग वाले रवीश कुमार इकलौते पत्रकार नहीं हैं। वे महज उस विरासत का एक पैराग्राफ हैं। हर पैराग्राफ की तरह उनका भी अंत हुआ। यह होना ही था। लेकिन निस्तेज न हो पाने की कुंठा यह है कि गोदी सेठ से लेकर करण थापर तक रवीश कुमार के इस्तीफे की कहानी लंबी ही होती जा रही है। मानो वे हर रात लुग्दी साहित्य पढ़ रहे हैं, कहानी खींचती जा रही है और कल्पनाओं के उस संसार से तथ्य का लोप होता जा रहा है। साथ ही इन साक्षात्कारों में गलथोथी के अलावा कोई भी ऐसा तथ्य नहीं है, जिस पर चर्चा की जा सके। ठीक वैसे ही जैसे रवीश की रिपोर्ट से प्राइम टाइम की यात्रा में तथ्य गायब होते गए और कल्पनाएँ बलवती होती गईं।
रवीश कुमार जैसों का मुख स्खलन, 2024 जितना करीब आएगा उतना ही तेज होता जाएगा। लेकिन 2024 भी वह साल नहीं दिखता, जब निस्तेज करने वाली तेल की सप्लाई दोबारा चालू हो सके। इसलिए जरूरी है कि यूट्यूब पर भी कुछ भी देख लेने की परिपाटी बदलिए। क्या पता कब कहाँ कोई ‘जीरो टीआरपी एंकर’ मुख स्खलन करते मिल जाए।