“अजी नाम में क्या रखा है?” क्या फर्क पड़ता है अगर आपको पता ना हो कि जो सुन्दर सी गोल-मटोल दिखने वाली गोभी आप लाकर सब्जी पकाते हैं, उसे आम किसान “स्नो-बॉल” नाम से जानता है? आखिर क्या फर्क पड़ेगा अगर सिर्फ टमाटर की कीमत बढ़ने पर हल्ला मचाया जाए और ये ना बताएँ कि ये समर किंग था, पूसा की कोई नस्ल या जीटी-2?
फर्क पड़ता है। नाम के मामले में स्पष्ट ना हों तो सबसे पहला फर्क तो ये पड़ता है कि कैश क्रॉप और फ़ूड क्रॉप में आप फर्क ही नहीं करते। अगर कोई किसान टमाटर, भिन्डी या किसी दूसरी सब्जी की खेती कर रहा है तो वो उसे खाने के लिए नहीं बेचने के लिए उपजा रहा है। केले की खेती, या दूसरे फलों के मामले में भी ऐसा ही होगा।
नाम सिर्फ एक शब्द है और उसके पीछे भाव छुपे होते हैं। जैसे कि “किसान” कहते ही आपके दिमाग में अगर हल चलाते, पुरानी सी धोती-बनियान पहने किसी पुरुष की छवि उभरती है तो एक बार उसके बारे में भी सोचिए। भारत में करीब 42 प्रतिशत किसान महिलाएँ हैं।
खेती के काम का करीब 80 प्रतिशत काम, जिसमें बुवाई से कटनी तक शामिल है, वो महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसके बाद भी अगर पुरुष की छवि ही उभरती है तो निश्चित रूप से ये नाम की ही महिमा है, जो “किसान” शब्द को पुरुषवाचक मानती है।
किसान बोता है, किसान काटता है तो सही होगा, लेकिन नाम के व्याकरण की वजह से किसान काटती है, बोती है, गलत बता दिया जाएगा।
अगर आप नाम के मामले में स्पष्ट नहीं थे और सभी को “अन्नदाता” ही मानते रहे हैं तो आप किसान को भी व्यवसायी की तरह सोचने नहीं कहते। वो काम तो बेचने का कर रहा है मगर सोचेगा किसान की तरह तो नुकसान होना तय है। इसके ठीक उलट अगर खाद्यान्न, सब्जियों-फलों के ग्राहक होने के बाद भी आप नाम की महत्ता को नहीं समझते तो आप किसान और बिचौलिए की भूमिका से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।
कभी सोचा है कि बाजार में अचानक कोई चीज़ कम कैसे हो जाती है? अगर इतने सारे अलग-अलग किसान कोई उपज बेच रहे हों, तो एक साथ ही सब बेचना बंद कर देते हैं क्या? अगर बेचना बंद भी कर देते हैं तो ये फसल आखिर जमा कहाँ होती है?
यूपीए-2 की सरकार के दौर में फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफ़सीआई) ने 2013 में पब्लिक-प्राइवेट मॉडल पर वेयरहाउस (गोदाम) बनाने की प्रक्रिया शुरू की थी। इस मॉडल पर देश भर में कई गोदाम बने, जहाँ स्क्वायर फीट के हिसाब से किराया वसूला जाता है।
इन्हें बनाने में भी सरकार बहादुर ने पचास फीसदी की सब्सिडी दी थी। इनमें एमएसपी पर खरीदा गया अन्न जमा होता है। जाहिर है कि फायदे का सौदा है, तभी इतनी बड़ी जमीनों को घेरकर विशालकाय वेयरहाउस बने हुए हैं।
उत्तरी भारत में देखेंगे तो पंजाब, हरियाणा और उत्तर-प्रदेश में ऐसे कई गोदाम बने हुए दिखेंगे। बिहार में भी कटिहार और बक्सर में गेहूँ के लिए ऐसे गोदाम बनाने की अनुमति मिली थी।
वैसे बिहार में भी अनाज की उपज कोई कम नहीं है लेकिन यहाँ शू-शासन था और वो बड़े नामों को यहाँ त्वरित गति से व्यापार शुरू करने के लिए आमंत्रित करने में असफल रही। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक बार में हलाल करने के बदले रोज-रोज अंडे बेचना ज्यादा समझदारी का काम है, ये संभवतः यहाँ के राजनेताओं को समझ में नहीं आया।
वापस मुद्दे पर आते हुए सोचिए कि अब अगर सरकार को एमएसपी पर अनाज बेचा ही ना गया हो, इसे सीधे बाजार में बेच दिया गया हो तो भला इन वेयरहाउस-गोदामों में रखा क्या जाएगा? मतलब एमएसपी पर अनाज खरीदा जाए तब तो यहाँ जमा होगा ना? खाली पड़े गोदामों से किराया भी नहीं मिलेगा। यानी सिर्फ एक नीति में बदलाव से ऐसे वेयरहाउस चलाने वालों का धंधा ही मंदा पड़ जाएगा!
हो सकता है कि अब कुछ लोगों को लगे कि भला एक गोदाम में अनाज कम ही आने लगा तो कितने का नुकसान होगा? बड़ा व्यापारी जिसने इतनी जमीन खरीदी हो, वो इतना नुकसान तो झेल ही लेगा ना?
इसे समझने के लिए हम चलते हैं एक सुखबीर एग्रो एनर्जी लिमिटेड पर। ये कंपनी बायोमास एनर्जी, सोलर एनर्जी, राइस मिल, राइस बार्न ऑइल जैसी चीज़ों के अलावा वेयरहाउस भी चलाती है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में मिलाकर इनके कम से कम 29 वेयरहाउस हैं। कंपनी के नाम से अगर आप अंदाजा लगा रहे हैं कि कोई केन्द्रीय मंत्री क्यों इस्तीफा दे रहा होगा/होगी, तो इसे केवल अंदाजा मानें।
फ़िलहाल मुद्दा ये है कि जब “बिचौलिया” कहा जाता है तो आपको क्या लगता है? ये आढ़त पर बैठकर दिन का सौ-पचास कमा लेने वाले की बात हो रही है? वो आदमी अक्सर किसानों का परिचित, कोई रिश्तेदार, घर के शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में आने-जाने वाला व्यक्ति होता है। उसके दो-चार पैसे कमाने से भला किसान और ग्राहक का कितना नुकसान हो जाएगा?
जब “बिचौलिया” कहा जाता है, तो छोटी मछलियों की नहीं, बड़े किलर शार्क की बात हो रही होती है। ये एक इशारे पर दर्जनों वेयरहाउस से आपूर्ति धीमी करवा कर, कई-कई राज्यों में कीमतें बढ़ा सकते हैं। खरीद के मौसम में इनके वेयरहाउस के दरवाजे खुलेंगे तो फसल की कीमतें औंधे मुँह जमीन पर आ गिरेंगी और मजबूर किसान को औने-पौने दामों पर अपनी उपज बेचनी होगी।
कृषि आधारित पत्रकारिता में “एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्राउट” वाले पी साईनाथ के बाद कोई नाम सुनाई नहीं देता। हिन्दी पत्रकारिता में कृषि सम्बन्धी ख़बरों पर जोर और भी कम है। सोशल मीडिया पर लोग मजाक उड़ाने के लिए कहते हैं “अगला कार्यक्रम कृषि-दर्शन है, जिसमें हम गोबर से खाद बनाना सिखाएँगे”।
ऐसी स्थिति में अगर कृषि पर नीतियाँ आती हैं तो लोगों का घबराना स्वाभाविक है। बाकी बस सही नाम और शब्दों का मतलब सीखिए तो जो बदलाव आ रहे हैं, उन्हें समझना उतना मुश्किल भी नहीं है। फिर अख़बार, टीवी और दूसरी मीडिया में किस विषय पर चर्चा होगी, ये इस पर भी निर्भर है कि आप सवाल क्या पूछते हैं। दबाव बढ़ाइए, जवाब भी आएगा।