गृह मंत्री अमित शाह का एक 10 सेकंड का छोटा वीडियो क्लिप कुछ दिन पहले वायरल हुआ, जिसमें झूठा दावा किया गया कि उन्होंने डॉ बीआर अंबेडकर का अपमान किया। ऐसे में आजकल राजनीतिक चर्चा के सबसे बड़े मुद्दों में से एक भारत रत्न बाबा साहेब डॉ बीआर अंबेडकर को लेकर देश में यह बहस छिड़ गई है कि कौन उन्हें सबसे ज्यादा पसंद करता है।
हालाँकि, राजनीतिक हलकों में सवाल को उल्टा रखा जाता है – कौन अंबेडकर से सबसे ज्यादा नफरत करता है? इस मुद्दे पर बीजेपी के पास इतिहास का साथ भी है, क्योंकि कॉन्ग्रेस आजादी की लड़ाई ही नहीं, आजादी के बाद नेहरू के दौर में भी अंबेडकर की तारीफ नहीं करती थी, बल्कि वे एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, लगभग दुश्मन। इस कड़ी में अंबेडकर के द्वारा कॉन्ग्रेस पार्टी के खिलाफ कई बयान हैं, जो इसे साबित भी करते हैं, वहीं नेहरू के भी अंबेडकर के खिलाफ कई बयान हैं, जैसे कि उनकी एडविना को लिखी चिट्ठियों में अंबेडकर के प्रति उनकी पूरी नफरत साफ झलकती है।
दूसरी ओर, कॉन्ग्रेस अमित शाह के छोटे से एडिटेड वीडियो क्लिप का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए कर रही है कि बीजेपी अंबेडकर से नफरत करती है। हालाँकि यह लड़ाई वहाँ से नहीं शुरू हुई, बल्कि राहुल गाँधी ने भारतीय संविधान पर वीर सावरकर का गलत हवाला देते हुए संसद में मनुस्मृति को दिखाया। हालाँकि अब पीछे मुड़कर देखें तो बीजेपी को राहुल गाँधी की हरकत पर आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी। अगर बीजेपी ऐसा करती, तो शायद आज अंबेडकर को लेकर बीजेपी को इस तरह से बचाव की मुद्रा में नहीं आना पड़ता।
राहुल गाँधी दरअसल सालों से मनुस्मृति और संविधान के बीच की पुरानी वामपंथी बहस चला रहे हैं, जिसका उद्देश्य जातिवाद को और बढ़ावा देना है। 2024 के चुनावों की तैयारियों में उनकी लगातार ‘कौन जात हो’ की बहस ने उन्हें कुछ राजनीतिक लाभ भी दिया है, इसलिए वे जानते हैं कि यह रणनीति काम करती है। अंबेडकर और संविधान कॉन्ग्रेस के हथियार जैसे हैं, जिनका इस्तेमाल कॉन्ग्रेसी अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं।
ऐतिहासिक रूप से यह बिल्कुल साफ है कि कॉन्ग्रेस (शुरुआत से लेकर 1990s तक) को अंबेडकर से कोई जुड़ाव नहीं था। अगर अंबेडकर के द्वारा विभिन्न संस्थाओं, व्यक्तियों और विचारों पर किए गए नकारात्मक बयानों की गिनती की जाए, जोकि बहुत सारा है, तो गाँधी, नेहरू और कॉन्ग्रेस पार्टी के खिलाफ उनके बयान आसानी से RSS के खिलाफ उनके बयानों से कहीं ज्यादा होंगे। जबकि अंबेडकर का ऐसा कोई बयान ढूँढ़ना मुश्किल है जिसमें उन्होंने सीधे तौर पर RSS पर हमला किया हो।
अंबेडकर और RSS या अंबेडकर और हिंदुत्व के बीच की बहस दरअसल अंबेडकर के हिंदू धर्म (जैसा उन्होंने इसे समझा) और उस समय की हिंदू राजनीति पर दिए गए बयानों की व्याख्या है। यही कारण है कि राहुल गाँधी ने संसद में मनुस्मृति को सामने रखा, क्योंकि वह अंबेडकर का हवाला देकर सीधे तौर पर BJP, RSS या हिंदुत्व पर हमला नहीं कर सकते थे। इसी वजह से राहुल गाँधी को सावरकर के बारे में झूठी जानकारी देने और फर्जीवाड़े का बढ़ावा मिला।
अब चूँकि कॉन्ग्रेस को यह सुविधा मिल गई है कि वह अपनी गलत नीतियों पर सवाल किए बिना अपने दोगलेपन को आसानी से छिपा सकती है। ऐसे में राहुल गाँधी खुद को शिव भक्त और अंबेडकरवादी दोनों के रूप में पेश कर सकते हैं और उनके आसपास के लोग इस पर सवाल भी नहीं उठाएँगे। वहीं, बीजेपी के पास यह सुविधा अब तक नहीं है, क्योंकि लोग सवाल करने लगते हैं कि वे (बीजेपी वाले) किस तरह अंबेडकरवादी होकर भी ‘जय श्री राम’ के नारे (उनकी नजर में दोनों बातें अलग-अलग हैं कि अंबेडकरवादी लोग ‘जय श्रीराम’ नहीं बोल सकते।) लगा सकते हैं।
वैसे, बीजेपी और संघ इस तरह के सवालों को संस्थागत स्तर पर नजरअंदाज करते हैं, जो राजनीतिक तौर पर समझने वाली बात है। पहले- क्यों पार्टी खुद को ऐसे बहसों में उलझाए, जब उनके विरोधियों को बिना किसी सवाल के छूट मिल जाती है? और दूसरे- शायद संगठनात्मक स्तर पर इसका कोई जवाब नहीं है, क्योंकि एक राजनीतिक पार्टी ठीक उसी तरह नहीं होती जैसा कोई वैचारिक समूह होता है। हालाँकि संस्थागत स्तर से परे, समर्थकों और सहानुभूति रखने वालों के लिए इस पर वैचारिक स्तर पर चर्चा करना जरूरी है। यहाँ तक कि संघ में भी, व्यक्तिगत स्वयंसेवक और पदाधिकारी इस पर चर्चा करते हैं (और मैंने खुद कुछ के साथ चर्चा की है), लेकिन वे संघ की ओर से कोई बयान जारी नहीं करते।
यह लेख अंबेडकर और हिंदुत्व आंदोलन में उनकी भूमिका की पहेली पर चर्चा करने का एक प्रयास है। हालाँकि यह विषय इतना व्यापक है कि इस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है, लेकिन इसे यहाँ एक बुनियादी (बेसिक) स्तर पर ही समझाने की कोशिश की जा रही है।
अंबेडकर और हिंदू धर्म
अंबेडकर और हिंदू धर्म के संबंध को समझने के लिए सबसे पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि अंबेडकर खुद को हिंदू नेता नहीं मानते थे। खासकर उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय में यह साफ कर दिया था कि वो हिंदू नहीं हैं। दरअसल, उन्होंने जिन 22 प्रतिज्ञाओं के जरिए धर्म परिवर्तन किया, उसमें यह साफ तौर पर बताया कि न केवल उन्होंने हिंदू धर्म को अपनाने से इंकार किया, बल्कि उन्होंने एक ऐसी पहचान बनाई जो मुख्य रूप से ‘हिंदू धर्म के खिलाफ’ थी, न कि बौद्ध धर्म या कुछ और… क्योंकि इन प्रतिज्ञाओं में पिंडदान से लेकर राम या कृष्ण की पूजा से इंकार और हिंदू धर्म को समाज के लिए नुकसानदेह मानने जैसी बातें शामिल थीं।
यह भी देखा जा सकता है कि बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने से पहले अंबेडकर ने हमेशा हिंदू शब्द का इस्तेमाल एक बाहरी समूह (Out-group) के रूप में किया, न कि अपने समूह (In-group) के लिए। हालाँकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अपने जीवन के आखिर में हिंदू पहचान छोड़ दी, जबकि वो उस समय शायद बहुत अधिक गुस्से में और निराशा से भरे हुए थे। क्योंकि उनकी सामूहिक एकता या सद्भाव की कोशिशें फेल हो रही थीं।
यही तथ्य कई लोगों के लिए यह तर्क देने का आधार बनता है कि अंबेडकर को हिंदुत्व आंदोलन का हिस्सा नहीं माना जा सकता। हालाँकि, यह नजरिया हर जगह व्यापक यानी एक समान नहीं है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे कि ‘एक्स’ (पूर्व में ट्विटर) पर जहाँ ‘राइट विंग’ की मजबूत मौजूदगी है, वहाँ भी अंबेडकर को लेकर समर्थन अधिक नजर आता है। मैंने खुद एक पोल चलाया… अब जब तक यह लेख लिखा गया, अंबेडकर को भारी समर्थन मिल रहा था। इसका मतलब यह है कि ‘राइट विंग’ विचारधारा वाले भी बड़ी संख्या में अंबेडकर का समर्थन करते हैं। इस पोल में 47.9% प्रतिशत लोग अंबेडकर के पक्ष में जुटे, जबकि दूसरे नंबर पर रहे नेहरू के पक्ष में महज 19.9% और तीसरे नंबर पर रहे मोहनदास करमचंद गाँधी के लिए 19.3% लोग खड़े हुए। पहले और दूसरे-तीसरे स्थान के लिए अंतर बहुत बड़ा रहा और दोनों मिलकर भी अंबेडरकर के आस-पास नहीं पहुँचे, क्योंकि दोनों का जोड़ भी मिलाकर 39.2% ही रहा।
As a communal Hindutvawaadi, if you have to adorn your house with a big garlanded picture of one of these men, whom will you choose?
— Rahul Roushan (@rahulroushan) December 19, 2024
कुछ लोग इस वोटिंग को अवैज्ञानिक कहकर खारिज कर सकते हैं और यह दावा कर सकते हैं कि वोट देने वालों को अंबेडकर के बारे में ‘सच्चाई’ नहीं पता। लेकिन ऐसा सोचना गलत और अनुचित होगा, खासकर बाद वाले मामले में। वामपंथियों के विपरीत, कम से कम हिंदुओं की ओर से तो विरोधाभासी विचारों को समझने की कोशिश होनी ही चाहिए।
मैंने उन लोगों के विचारों को समझने और उनके तर्कों को सुनने की कोशिश की है, जो मानते हैं कि 22 प्रतिज्ञाओं और अन्य बयानों के बावजूद अंबेडकर को हिंदुत्व आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जा सकता है। यहाँ मैं उन तर्कों को संक्षेप में प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगा। यह जरूरी नहीं है कि इन तर्कों का समर्थन भी किया जाए, लेकिन इन्हें सामने रखना इसलिए जरूरी है ताकि इस पर बहस और विचार-विमर्श हो सके।
‘अंबेडकर एक सुधारवादी थे’
अंबेडकर को एक सुधारक के रूप में देखने का तर्क यह है कि हिंदुत्व, जैसा कि सावरकर ने परिभाषित किया और संघ ने अपनाया, वास्तव में हिंदू समाज के सुधार पर केंद्रित एक प्रगतिशील आंदोलन है। सावरकर ने अपने लेखन में हिंदू समाज की ‘सात बेड़ियों’ की चर्चा की है और उन कई प्रथाओं की निंदा की है, जो या तो शास्त्रों द्वारा अनुमोदित थीं या उनकी मुख्यधारा की व्याख्या के अनुसार प्रचलित थीं।
इन प्रथाओं में अस्पृश्यता, सभी जातियों के लिए मंदिर प्रवेश, अंतरजातीय विवाह और भोजन को लेकर निषेध, और कुछ जातियों पर वैदिक अनुष्ठानों की पाबंदी जैसी बातें शामिल थीं। महाराष्ट्र के रत्नागिरी में स्थित पतित पावन मंदिर इस बात का प्रमाण है कि सावरकर ने इन परंपराओं के खिलाफ काम किया। यह स्पष्ट रूप से ‘पारंपरिक’ हिंदू धर्म के खिलाफ जाने जैसा था।
हालाँकि, सावरकर ने इन शास्त्रों को जलाने जैसी कोई प्रतीकात्मक कार्रवाई नहीं की, जो इन प्रथाओं का समर्थन करते थे। लेकिन उन्होंने निश्चित रूप से अपने समय के मौजूदा ज्ञान और प्रथाओं के खिलाफ जाकर सुधारवादी रुख अपनाया। सुधारक अक्सर परंपरावादियों को नाराज करते हैं, क्योंकि वे चीजों को बदलने की कोशिश करते हैं।
अंबेडकर के आलोचकों का मानना है कि उन्होंने हिंदू धर्म और शास्त्रों जैसे मनुस्मृति पर जो हमले किए, उन्हें भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। उनका तर्क है कि ये हमले हिंदू समाज को आगे बढ़ाने के लिए थे। उनकी सामाजिक पीड़ा को दर्शाने वाले उनके तीखे शब्दों को माफ करने की बात भी सामने आती है, भले ही माफी की कोई माँग न हो।
हालाँकि, सावरकर और अंबेडकर के दृष्टिकोण में एक बड़ा अंतर भी है। सावरकर का सुधार एकजुटता के उद्देश्य से प्रेरित था, खासकर बाहरी खतरों और धर्मनिरपेक्ष राज्य के संदर्भ में। उन्होंने जाति जैसी पहचान से ऊपर उठने की बात कही, लेकिन उनका यह प्रयास हिंदू धर्म के प्रति शत्रुता से प्रेरित नहीं था। इसके विपरीत अंबेडकर के विचारों में हिंदू धर्म के प्रति गहरी असहमति दिखाई देती है।
फिर सवाल उठता है कि जब अंबेडकर खुद को हिंदू नहीं मानते थे, तो उन्हें ‘हिंदू सुधारक’ कैसे माना जा सकता है? इस पर आमतौर पर हिंदू और हिंदुत्व की व्यापक परिभाषा का सहारा लिया जाता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे ‘जीवन जीने का तरीका’ कहे जाने का हवाला दिया जाता है।
इसके अलावा अंबेडकर के कुछ बयान भी ऐसे हैं जो यह तर्क देते हैं कि वे हर हिंदू धर्मशास्त्र के खिलाफ नहीं थे। उदाहरण के लिए ‘अनहिलेशन ऑफ कास्ट’ में उन्होंने कहा, “मुझे बताया गया है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे सिद्धांतों के लिए आपको विदेशी स्रोतों से उधार लेने की आवश्यकता नहीं है। आप उपनिषदों से भी ऐसे सिद्धांत प्राप्त कर सकते हैं।”
कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि उसी समय के कई अन्य सुधारवादी जैसे आर्य समाज और ब्रह्म समाज के सदस्य भी पारंपरिक शास्त्रों और गैर-वैदिक देवताओं के प्रति उतने सहिष्णु नहीं थे। अगर उन्हें बड़े हिंदू दायरे का हिस्सा माना जा सकता है, तो अंबेडकर को क्यों नहीं?
यह भी कहा जाता है कि जैन समुदाय के कई लोग हिंदू देवताओं पर विश्वास नहीं करते, और उनके विचार भी कभी-कभी हिंदू देवताओं के प्रति आलोचनात्मक होते हैं। फिर भी, ये दोनों समुदाय भाईचारे के साथ रहते हैं।
हालाँकि ये तर्क पूरी तरह से संतोषजनक नहीं लगते, लेकिन औपनिवेशिक युग के संदर्भ और उस समय चल रहे सुधार आंदोलनों को ध्यान में रखना जरूरी है। उस समय ‘उपनिवेशवाद-मुक्त सोच’ जैसा विचार मौजूद नहीं था, क्योंकि पूरी दुनिया उस समय औपनिवेशिक प्रभाव में थी। यह समझ हाल ही में विकसित हुई है।
इस विषय पर बहुत सारा आग और गुस्सा बाहर आ सकता है, क्योंकि इस पर बहस की बहुत ज्यादा ही गुंजाइश है। ऐसे में इसे अभी के लिए यहीं छोड़ना बेहतर होगा।
‘अंबेडकर ने इस्लाम की निंदा की’
अंबेडकर के हिंदुत्व आंदोलन में स्थान को लेकर एक और तर्क यह दिया जाता है कि उन्होंने इस्लाम और मुस्लिम समुदाय पर स्पष्ट और बेबाक टिप्पणियाँ की थीं, खासकर पाकिस्तान के निर्माण और मालाबार में हिंदुओं के नरसंहार के संदर्भ में। उन्होंने इन मुद्दों पर वामपंथियों या धर्मनिरपेक्षतावादियों की तरह बात को घुमाने या मीठे शब्दों में ढालने की कोशिश नहीं की।
यह तथ्य निर्विवाद है। हालाँकि अंबेडकर ने इस्लाम के बारे में कुछ सकारात्मक बातें भी कही थीं और कुछ अवसरों पर ‘अस्पृश्यों’ के इस्लाम धर्म अपनाने का समर्थन किया था। लेकिन जब बात मालाबार नरसंहार, जिसे वामपंथी अक्सर ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसान क्रांति के रूप में पेश करते हैं, या पाकिस्तान के निर्माण के समय इस्लामी अलगाववादी मानसिकता की होती है, तो अंबेडकर ने बिना किसी झिझक के सच्चाई सामने रखी।
फिर भी अंबेडकर अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे। श्री अरविंदो और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे अन्य महान व्यक्तियों ने भी इस्लाम और उसकी अलगाववादी मानसिकता पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखा था। राम स्वरूप और सीता राम गोयल जैसे विचारकों ने भी ऐसे मुद्दों पर चर्चा की है।
तर्क यह है कि वामपंथियों और इस्लामवादियों के लिए अंबेडकर के सीधे बयानों/भाषणों का जवाब देना मुश्किल हो जाता है। अन्य सुधारकों की तुलना में उनका (अंबेडकर) नाम और उनके विचार एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में आते हैं, जो उनके आलोचकों के लिए चुनौती खड़ी करते हैं।
शायद केवल इस वजह से आप पूरी तरह से प्रभावित न हों, लेकिन यह तर्क पूरी तरह से खारिज करने लायक भी नहीं है। हल्के-फुल्के अंदाज में कहा जाए तो, आपको ऐसे बयानों की जरूरत होती है, जिसे विकिपीडिया बैन न करे। वैसे, अगर विकिपीडिया ने अंबेडकर पर बैन लगा दिया, तो शायद इससे कहीं ज्यादा बवाल मचेगा, जितना सीता राम गोयल पर बैन लगाने से हुआ।
‘कम से कम अंबेडकर ने कोई अब्राहमिक मजहब नहीं, बल्कि ‘भारतीय धर्म’ अपनाया’
अंबेडकर के धर्म परिवर्तन को लेकर एक और तर्क यह दिया जाता है कि उन्होंने इस्लाम या ईसाई धर्म की बजाय एक ‘भारतीय’ धर्म को अपनाया। उनकी यह बात अक्सर सामने लाई जाती है।
अंबेडकर ने कहा था, “धर्म परिवर्तन के देश पर पड़ने वाले परिणामों पर विचार करना आवश्यक है। इस्लाम या ईसाई धर्म में धर्म परिवर्तन से दलित वर्गों का राष्ट्रीयकरण समाप्त हो जाएगा। यदि वे इस्लाम में जाते हैं, तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और मुस्लिम वर्चस्व का खतरा वास्तविक बन जाएगा। यदि वे ईसाई बनते हैं, तो ईसाईयों की संख्या पाँच से छह करोड़ हो जाएगी, जिससे अंग्रेजों की पकड़ देश पर और मजबूत हो जाएगी।”
अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन को सिर्फ व्यक्तिगत धर्म का बदलना नहीं, बल्कि पूरे देश की सामाजिक और राजनीतिक पहचान पर प्रभाव डालने वाली घटना के रूप में देखा। उनका यह विचार हिंदुत्व विचारधारा से मेल खाता है, क्योंकि हिंदुत्व भी भारत को एकजुट और मजबूत राष्ट्र के रूप में देखने की बात करता है। इसके साथ ही, अंबेडकर का यह मानना था कि धर्म परिवर्तन के परिणामों को राष्ट्रहित में सोचना चाहिए। उनका उद्देश्य सिर्फ धर्म नहीं, बल्कि समाज के दबे-कुचले वर्गों के लिए एक नया रास्ता खोलना था, ताकि वे जातिवाद के जंजाल से बाहर निकल सकें।
ऐसे में अंबेडकर का ‘हिंदुत्व’ वीर सावर के हिंदुस्व से कहीं अधिक कठोर जान सकता है, क्योंकि सावरकर तो मुस्लिमों को भी हिंदू मानने को तैयार हो गए थे, अगर वो मक्का को छोड़कर भारत को अपनी पवित्र भूमि मानते।
अंबेडकर ने यह भी कहा था कि अगर धर्म परिवर्तन की बात हो, तो सिख धर्म को अपनाना सबसे उपयुक्त होगा। हालाँकि, उन्होंने अंत में बौद्ध धर्म को ही अपनाया। लेकिन अंबेडकर का धर्म परिवर्तन कोई साधारण कदम नहीं था। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया, साथ ही 22 उपदेशों के माध्यम से एक नया सामाजिक और धार्मिक रूप रेखा तैयार की। ये उपदेश हिंदू धर्म के खिलाफ थे- जिसमें वे पिंडदान, भगवान राम और कृष्ण की पूजा और हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्था को नकारते थे।
इसके अलावा यह भी तर्क दिया जाता है कि अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन केवल मजबूरी में किया। हालाँकि, उनके विचार और भाषण इस धारणा को पूरी तरह से साबित नहीं करते। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई बार हिंदू धर्म छोड़ने और बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन की बात की थी।
‘उनकी कड़वी बातें उनके अनुभवों की देन थीं’
यह कोई संदेह नहीं है कि जातिवाद ने हमारे समाज में एक बड़ी समस्या पैदा की है और कुछ जातियों को सचमुच असंवेदनशील और अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ा है। मैं इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ कि हम सब कुछ केवल ‘अत्याचार साहित्य’ के रूप में खारिज कर दें, हालाँकि यह सच है कि कुछ घटनाओं को अतिरंजित रूप से पेश किया गया है। अतिरंजनाओं से ज्यादा हमारे समाज में जो असली समस्या है वह है तथ्यों और घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करना।
मैं खुद एक तथाकथित ‘ऊँची जाति’ से हूँ और मैंने कुछ लोगों के सामंती मानसिकता को देखा है। मैंने रिवर्स जातिवाद (यानी दबी जातियों द्वारा तथाकथित उच्च जातियों के खिलाफ-Reverse Casteism) भी देखा है, और यही कारण है कि मैं इस मामले में सिर्फ एक पक्ष को नहीं चुन सकता। एक बात जो मैंने देखा है और जिसका मुझे पूरा विश्वास है, वह यह है कि मेरे परिवार की सामंती मानसिकता कहीं से भी मनुस्मृति की वजह से नहीं थी। मुझे न तो मेरे घर में और न ही मेरे गाँव में इसका कोई प्रमाण मिला। असल में उनमें से अधिकांश लोग धार्मिक भी नहीं थे। मैंने इस बारे पर अपनी किताब में भी लिखा है, जिसे आप यहाँ से खरीद (मेरा प्रचार समझ लीजिए) भी सकते हैं।
लेकिन गंभीरता से कहूँ तो हाँ.. लोग वास्तव में अपने दुखद अनुभवों के कारण कड़वी बातें कह सकते हैं। यह सामान्य रूप से सही है, और हर कोई एक नया आरंभ करने की उम्मीद कर सकता है। क्या यही एकमात्र कारण था कि अंबेडकर ने ऐसा कहा? बिलकुल नहीं। वह एक वकील, राजनेता और कार्यकर्ता थे। उनके पास यह सब कहने के कई कारण थे।
‘वो सबसे बड़े दलित आइकॉन, आप अपने ही लोगों को अलग नहीं कर सकते’
अंततः बात वास्तविक राजनीति पर आ जाती है। संघ और भाजपा के कई लोग मानते हैं कि यह सोचना बड़ी भूल होगी कि हर व्यक्ति जिसने अंबेडकर की फोटो सोशल मीडिया पर लगाई है या जिसे अपने घर में उनकी तस्वीर लगाई है, वह एक कट्टर अंबेडकरवादी है जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म और विशेष रूप से ब्राह्मणों को खत्म करना है।
इससे पहले कि इसे तुरंत खारिज किया जाए और झूठा बताया जाए, मुझे लगता है कि लोगों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि अधिकांश जनता वास्तव में किसी विचारधारा को अपनाने से पहले उसका गंभीरता से विश्लेषण नहीं करती। अधिकांश लोग केवल राजनीतिक नारों को अपना लेते हैं।
उदाहरण के लिए, आज समाजवादी पार्टी (सपा) का समर्थक ‘बाबासाहेब का अपमान’ पर बुरा मान जाएगा, क्योंकि सपा INDI गठबंधन में है और अखिलेश यादव राहुल गाँधी के साथ काम कर रहे हैं। लेकिन 1990 के दशक में सपा के लोग उत्तर प्रदेश के पार्कों और गाँवों में अंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ देते थे, क्योंकि उन्हें वह मूर्तियाँ BSP द्वारा सत्ता की ओर बढ़ने के प्रयास के रूप में दिखाई देती थीं। यही है राजनीति का यह बेवजह और बदलता स्वरूप इस देश में।
‘अंबेडकर को उनके पास एक उद्धारक के रूप में बेचा गया है उन लोगों द्वारा जिन्होंने नरेटिव को नियंत्रित किया, और अब हम इस पर ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। तुरंत अंबेडकर पर हमला करना और उन्हें अलग-थलग करना, उन्हें वामपंथी या इस्लामवादी पक्ष में धकेलना समझदारी नहीं होगी। हमें कुछ चीजों को नजरअंदाज करना होगा और अपने दृष्टिकोण को मजबूती से प्रस्तुत करना होगा।’
यह बात पूरी तरह से समझ में तब आती, जब आपके पास कोई वैकल्पिक योजना होती, लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से यह नहीं देख पा रहा हूँ। मुद्दा यह है कि वह ‘वैकल्पिक योजना’ क्या होनी चाहिए। संघ अंबेडकर को जैसा है, वैसे ही स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं दिखाता और भाजपा भी ऐसा ही करती है और सच्चाई तो यह है कि आप उन्हें धोखा देने का आरोप नहीं लगा सकते क्योंकि वे हमेशा से ऐसे ही थे।
संघ ने अबेडकर और फुले को अपने विचारों में तीस साल से पहले ही स्वीकार कर लिया था। मैं यहाँ एक किताब का सुझाव दूँगा (जो यहाँ ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है), जिसका नाम है “Manu Sangh and I”, इसे साल 1996 में रामेश पटांगे द्वारा लिखा गया, जो पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ संघ विचारक हैं। इस किताब में यह बताया गया है कि संघ मनुस्मृति पर विश्वास नहीं करता, भले ही वह उसे जलाए नहीं।
यही वजह है कि भाजपा राहुल गाँधी द्वारा सावरकर के बारे में फैलाए गए झूठ का मुकाबला नहीं कर पाई। राहुल के हाथ में मनुस्मृति होने के कारण पार्टी को हिचकिचाहट हुई, क्योंकि वे उस दौर से बहुत पहले ही निकल चुके हैं।
बाहरी नजरिए से देखा जाए तो संघ और भाजपा को यह साफ समझ में आता है कि अंबेडकर और हिंदुत्व एक साथ चल सकते हैं और वे पिछले 30 वर्षों से इस विचारधारा के साथ हैं भी। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके दृष्टिकोण में हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र दोनों विचार स्वतंत्र, उदार विचार हैं जो सभी को समाहित कर सकते हैं।
हिंदू धर्म और हिंदुत्व को सबसे उदार तरीके से परिभाषित करना आत्मसंतुष्ट और आत्मप्रशंसा जैसा लग सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि विचारधाराएँ इस तरह काम करती हैं। क्योंकि कोई व्यक्ति आगे इसमें पेरियार को भी शामिल करने की बात कर सकता है.. और इसके बाद कौन-कौन से नाम आएँगे, इसका मैं अनुमान भी नहीं लगाना चाहता। ऐसे में एक सीमा-रेखा खींची ही जानी चाहिए… और अगर वह सीमा रेखा अंबेडकर के बाद खींची जाती है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन कम से कम वह सीमा-रेखा स्पष्ट रूप से दिखाई तो दे।
वो सवाल, जिनके जवाब नहीं
जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि संघ या भाजपा इन सवालों का संगठन के स्तर पर जवाब नहीं देंगे और न ही ऐसा करने के लिए वो बाध्य हैं। लेकिन व्यापक हिंदू समाज और दक्षिणपंथी समुदाय को इन पर चर्चा करनी होगी।
इस समय सबसे बड़ा खतरा यह नहीं है कि अंबेडकर को भगवान के स्तर पर उठाया जा रहा है, उन्हें तो काफी पहले ही उस स्तर पर रखा गया था, बल्कि उनके इर्द-गिर्द एक तरह का ईशनिंदा कानून (Blasphemy) बनने की स्थिति है। यहाँ तक कि अगर अमित शाह का संदर्भ-रहित वीडियो देख लिया जाए, तो उन पर आरोप लगते कि उन्होंने अंबेडकर को भगवान के रूप में मान्यता देने से इनकार किया। यह ऐसा है जैसे अंबेडकर का नाम लेना स्वर्ग की प्राप्ति का साधन हो गया हो।
यह विडंबना ही है कि एक व्यक्ति (अंबेडकर) जिसने अपनी 22 प्रतिज्ञाओं में हिंदू देवी-देवताओं को मान्यता देने से मना कर दिया, उसे ही एक ऐसे भगवान के रूप में पहचाना जा रहा है, जिसकी पूजा अनिवार्य की जा रही हो।
इसके अलावा हिंदू धर्म में देवी-देवता आपस में लड़ सकते हैं, ईर्ष्या कर सकते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र भी रच सकते हैं। लेकिन अगर कोई यह कहे कि उसकी हर कोई पूजा करे, तो यह न तो हिंदू परंपरा है और न ही हिंदुत्व का हिस्सा। यह पूरी तरह से अब्राहमिक दृष्टिकोण जैसा लगता है। ऐसे में इससे बचाव कैसे करें, इसके बारे में मेरे पास कोई आईडिया नहीं है।
इसके बावजूद, मैं अंबेडकर को हिंदुत्व के दायरे से पूरी तरह से बाहर करने के पक्ष में नहीं हूँ, इसके कई कारण हैं, जो पहले ही बताए गए हैं। जो लोग अंबेडकर को इस दायरे में शामिल करने की वकालत करते हैं, उनके तर्क भी पूरी तरह से गलत नहीं हैं। लेकिन यह समावेश (उनका हिंदुत्व में प्रवेश) विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कीमत पर नहीं होना चाहिए, और यही चीज इस समय खतरे में है।
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