आज कारगिल विजय दिवस है। पाकिस्तान के विरुद्ध सीमा पर हमारे पिछले परोक्ष युद्ध को आज बाईस वर्ष पूरे हुए। अभी तक के सारे युद्धों की भाँति यह युद्ध भी हमारे जवानों की वीरता के लिए जाना जाता है। सैनिकों के पराक्रम और बलिदान ने न केवल हमारी सीमाओं की रक्षा की बल्कि हमें राष्ट्र यात्रा में वीरता का महत्व भी समझाया। हमें यह बताया कि सीमाएँ एक राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण क्यों हैं! यह बताया कि शांतिकाल में भी हमें अपने स्मृति पटल पर युद्ध को क्यों रखना चाहिए।
कारगिल युद्ध व्यक्तिगत पराक्रम की गाथाओं का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। कैप्टन मनोज पांडेय, कैप्टन विक्रम बत्रा या कैप्टन सौरभ कालिया सैकड़ों अफसरों के बीच वो नाम हैं जो आनेवाली पीढ़ियों को साल दर साल बताता रहेगा कि एक राष्ट्र के लिए नायक आवश्यक क्यों हैं, वे कैसे हों और हमें इन नायकों के प्रति कृतज्ञ क्यों रहना चाहिए?
कारगिल युद्ध के पीछे जो भी कारण रहे, अब तक लगभग पूरी तरह से सार्वजनिक हो चुके हैं। इन कारणों पर बहस होती रही है और आगे भी होगी। इस विषय पर हर बहस के अपने-अपने केंद्रबिंदु हैं। पाकिस्तान की ओर से उसके तत्कालीन राजनीतिक शासक जिम्मेदार थे या सैनिक शासक, यह बहस पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण है, हमारे लिए नहीं। हमारे लिए मात्र यह महत्वपूर्ण है कि हम पर यह युद्ध पाकिस्तान द्वारा थोपा गया था और हमने उसका उचित जवाब दिया।
यह बात इतिहास के पन्नों का हिस्सा है कि कैसे भारत ने मित्रता का हाथ बढ़ाया और पाकिस्तान ने उसका जवाब घुसपैठ से शुरू करके एक संपूर्ण युद्ध के रूप में दिया। कारगिल युद्ध विश्व इतिहास का ऐसा अध्याय है जो बताता है कि कैसे जिहाद के नाम पर पाकिस्तान ने एक बार फिर हम पर एक संपूर्ण युद्ध थोपा। यह बात भी अब तक विश्व समुदाय पर जाहिर हो चुकी है कि जिहाद की इसी संस्कृति ने आगे चलकर विश्व को कैसे-कैसे घाव दिए।
ऑपरेशन विजय को हमारी थल सेना और वायुसेना ने कैसे एकजुट होकर सफल बनाया, यह बात केवल हमारी सेनाओं के लिए ही नहीं, आम नागरिक के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह हमसब के लिए गर्व का विषय है कि कारगिल युद्ध पहाड़ों पर लड़े गए सर्वश्रेष्ठ युद्धों में से एक है। इस युद्ध में वायुसेना के पराक्रम और उसकी भूमिका को हमेशा याद किया जाएगा। वायुसेना का ऑपरेशन सफ़ेद सागर पहाड़ों पर युद्ध, उसके तरीकों और सफलता की शानदार गाथा है। इससे पहले इतनी ऊंचाई पर किसी भी वायुसेना ने इतना वृहद ऑपरेशन नहीं किया था।
हम हर वर्ष कारगिल विजय दिवस पर युद्ध और शहीदों को याद करते हैं पर इस युद्ध का एक राजनीतिक पहलू भी है जिस पर चर्चा नहीं होती। कारगिल युद्ध हमारी सैन्य क्षमता के साथ ही हमारे राजनीतिक नेतृत्व का भी इम्तिहान था। इसमें हमारा प्रदर्शन कैसा था इसका फैसला इतिहास करेगा। किसी युद्ध में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के सैन्य या राजनीतिक नेतृत्व ने कैसा प्रदर्शन किया यह हमेशा बहस का विषय रहेगा पर जिस बात से इनकार नहीं किया जा सकता वह है तत्कालीन सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति।
विजय प्राप्ति के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने कारगिल कमेटी का गठन किया ताकि हमारी सैन्य शक्ति, युद्ध सम्बंधित उसकी तैयारियाँ और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्नों पर उचित चिंतन हो सके। साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने की दिशा में महत्वपूर्ण आवश्यक कदम उठाए जा सके। तत्कालीन सरकार का यह कदम सुरक्षा सम्बन्धी प्रशासन में सुधारों के प्रति सरकार की गंभीरता और उसकी वचनबद्धता को दर्शाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि कमेटी लगभग समय से अपनी रिपोर्ट दी। यह बात अलग है कि कमेटी द्वारा दिए गए कुछ सुझावों के प्रति भविष्य में आने वाली सरकारें गंभीर नहीं दिखीं।
यह क्या संयोग मात्र है कि कमेटी द्वारा हमारी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए जो सुझाव दिए गए थे उनपर समयानुसार काम नहीं हुआ? फाइटर जेट की खरीद हो, तकनीकी रूप से उच्च श्रेणी के अन्य सैन्य उपकरण खरीदने की बात हो या फिर वायुसेना में स्क्वाड्रन बढ़ाने का सुझाव हो, आनेवाली यूपीए सरकारों ने किसी न किसी वजह से इसपर समय रहते काम नहीं किया। उन सुझावों पर अधिकतर काम 2014 में सरकार बदलने के बाद शुरू हुआ। यह बात केवल फाइटर जेट की खरीद तक सीमित नहीं है जिसे लेकर यूपीए सरकारों की लापरवाही पहले से ही देर से शुरू हुई खरीद की प्रक्रिया का धीमी गति से चलने से लेकर पैसे की कमी तक चली गई। सैन्य शक्ति को तकनीकी रूप से सुदृढ़ करने की प्रक्रिया में तेजी नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद ही शुरू हुई।
एक और बात जो महत्वपूर्ण थी, वह थी युद्ध के दौरान और उसके पश्चात राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बन्धी कई विषयों पर देश की अंदरूनी राजनीति हावी होना। तत्कालीन सरकार के प्रयासों को सार्वजनिक तौर पर न केवल कम करके आँका गया बल्कि युद्ध के पश्चात बनी कारगिल कमेटी द्वारा दिए गए कुछ सुझावों का क्रियान्वयन या तो देर से हुआ या फिर हुआ ही नहीं। युद्ध के दौरान तत्कालीन विपक्ष ने सुरक्षा उपकरणों की खरीद को लेकर किए गए सरकारी प्रयासों का राजनीतिकरण किया।
यहाँ तक कि एक तथाकथित कॉफिन स्कैम की बात उछाली गई जो बाद में उच्चतम न्यायालय में झूठी साबित हुई। ऐसे में पिछले वर्ष चीन की सेना और भारतीय सेना का जब आमना-सामना हुआ तब विपक्ष की जो भूमिका दिखाई दी थी, उसने कारगिल युद्ध के समय तत्कालीन विपक्ष की भूमिका की याद दिला दी। यह मात्र संयोग नहीं है कि दो अलग-अलग काल खंडों में एक विपक्षी दल का आचरण दो दशकों में नहीं बदला।
कोई नहीं कह सकता कि कारगिल युद्ध पाकिस्तान के विरुद्ध हमारा आखिरी युद्ध था। इतिहास की ओर देखें तो यही सन्देश मिलता है। कोई यह भी नहीं कह सकता कि चीन के साथ दशकों से चल रहा हमारा सीमा विवाद भविष्य में क्या रुख लेगा। जो बात तय है वो यह है कि आधुनिक सामरिक विश्व एक खतरनाक जगह है जिसमें कोई भी राष्ट्र तभी तक सुरक्षित है जबतक वह अपनी सुरक्षा का घेरा लगातार सुदृढ़ करता रहेगा। ऐसे में सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाने का हमारा प्रयास लगातार जारी रहना चाहिए। हमें ध्यान में रखना होगा कि जिस लोकतंत्र पर हम गर्व करते हैं उसकी सुरक्षा तभी तक संभव है जबतक राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय किसी राजनीतिक दृष्टिकोण का मोहताज नहीं है।