नूर मोहम्मद बड़े चाव से हमें एक के बाद एक लखनऊ के स्थल दिखा रहे थे। बड़ा इमामबाड़ा, भूलभूलैया, तीले वाली मस्जिद, रूमी दरवाज़ा, पिक्चर गैलरी, सतखंडा, घंटाघर, आसिफी मस्जिद और छोटा इमामबाड़ा आदि। हमें अपने इ-ऑटोरिक्शा में बिठाकर एक इमारत से दूसरी इमारत तक ले जाते हुए उसकी खासियत बताते जाते थे। कैसे रूमी दरवाजा एक तरफ से महल और दूसरी तरफ से दरवाज़ा लगता है, तथा क्यों चार मंज़िल वाली इमारत सतखंडा कहलाती है इत्यादि। खास लखनवी बतकही अंदाज़ में बात करने वाले नूर हमारे गाइड भी थे और उस छोटे से कोई आधा किलोमीटर इलाके में घुमाने वाले वाहनचालक भी।
इसी हफ्ते की बात है। मैं और पत्नी सीमा अयोध्या से लौटते हुए लखनऊ की सैर पर थे। इ-रिक्शा के साथ ही घोड़ा गाड़ी भी चल रही थी तो कार भी। इस सबके बीच हुसैनाबाद कहे जाने वाले इस इलाके में कोविड टीकाकरण का कैंप भी चल रहा था। जहाँ बड़ी बेतकल्लुफी से बहुत सी औरतें भी टीकाकरण के कतार में थीं। जिनमें बुर्केवाली औरतों की संख्या अधिक थी। जहाँ तहाँ चिपके पोस्टर गवाही दे रहे थे कि उत्तर प्रदेश में चुनाव नज़दीक ही हैं।
लखनऊ का ये छोटा सा इलाका जहाँ ये पुरानी इमारतें हैं, काफी साफ-सुथरा था। यहाँ की सड़क भी कोलतार की जगह इमारतों के रंग के मिले-जुले पत्थर से बनी हुई थी। अच्छी लाइटिंग थी। पार्किंग भी व्यवस्थित थी। आमतौर से देश के शहरों के पुराने इलाकों के मुकाबले बहुत ही करीने से सजा सँवरा इलाका था। बातों-बातों में हमने नूर मोहम्मद से पूछा, “आपका इलाका तो बड़ा बेहतर दिखता है भाई?”
तो नूर ने तपाक से जबाव दिया, “अखिलेश (यादव) ने पिछली बार इसे बनवाया था। अगर वो (मुख्यमंत्री) बने रहते तो इसे और भी खूबसूरत बना देते।” उनका ये उत्तर सुनते ही मेरा ध्यान अयोध्या की ओर चला गया जहाँ से हम पिछले ही रोज़ लौटे थे। अयोध्या में हमने निर्माणाधीन रामजन्मभूमि मंदिर का स्थान देखा था। पावन सरयू के दर्शन किए थे। हम हनुमान गढ़ी, जनक महल, राम की पैड़ी, फैज़ाबाद के डोगरा रेजिमेंटल सेंटर के मंदिर और गुप्तार घाट गए थे। दशरथ किला, सुग्रीव किला और वहाँ के अन्य कई प्राचीन और जर्जर होते हुए मंदिरों की इमारतों को भी देखा था।
नूर मोहम्मद के जबाव से एक सवाल मन में कौंधा जिसका उत्तर पाना ज़रूरी है। जब अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते नबाव आसफ उद्दौला की बनाई इमारतों के आसपास के इलाकों का सौंदर्यीकरण किया तो उसे साम्प्रदायिक नहीं कहा गया था? लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा गुप्तार घाट व अयोध्या में अन्य स्थानों पर किए जाने वाले विकास कार्य को कई लोग साम्प्रदायिक कह रहे हैं। ऐसा क्यों है? राम की पावन भूमि अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर का निर्माण क्योंकर साम्प्रदायिक हो सकता है? उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद बनाए जा रहे मंदिर का विरोध क्यों?
मान लिया कि राम मंदिर का मामला अदालत में था इसलिए पहले की सरकारें उस मामले में कुछ नहीं कर सकतीं थी। पर अयोध्या में तीर्थयात्रियों को सामान्य सुविधाएँ देने में अबतक की सरकारों को क्या परेशानी थी? ये सही है कि अयोध्या में अब राममंदिर का निर्माण हो रहा है एवं अन्य निर्माण कार्य भी करवाए जा रहे है। लेकिन वहाँ जाकर लगा कि किस तरह तीर्थयात्रियों को दोयम दर्ज़े का नागरिक मानकर इतने लम्बे समय तक उनकी उपेक्षा की गई। वहाँ के गली कूँचों की हालत देख कर मन में गहरी क्लान्ति और पीड़ा हुई। अधिकतर प्राचीन मंदिर जर्जर हालत में हैं। क्या तीर्थयात्रियों के लिए आवास, साफ-सफाई, शौचालय, स्नानागार और परिवहन की बेहतर व्यवस्था इसलिए नहीं की गई क्योंकि ऐसा करने से कुछ दलों का सेकुलरवाद खतरे में पड़ जाता?
आप रामजी को भगवान नहीं मानते तो न माने, ये आपकी मर्ज़ी है। पर राम के नाम पर जो लोग अयोध्या में आते रहे हैं उन्हें तीर्थयात्री न समझकर पर्यटक ही मान लेते तो आपका क्या घिस जाता? हालत तो ये है कि पिछले 75 वर्षों में राम की नगरी के लिए दिल्ली से आपने एक ढंग की ट्रेन तक नहीं शुरू की है। कोई ढंग का बाज़ार तक सूर्यवंशी राजा राम की नगरी में नहीं है। रहने तक के लिए आपको फैज़ाबाद शहर में जाना पड़ता है क्योंकि कोई पर्यटकों के लिए को ठीकठाक आवासीय व्यवस्था अयोध्या नगरी में नहीं है। यह कैसी विचारधारा और कैसी राजनीति है जो रामभक्तों को देश के आम नागरिकों को मिल रही सामान्य सेवाओं से भी वंचित रखती है? और अब जब मौजूदा केंद्र व राज्य सरकार अयोध्या के पुनरोद्धार के लिए काम कर रही है तो आप उसे साम्प्रदायिक बताकर सेकुलरवाद के लिए बड़ा ख़तरा बता रहे हैं?
सवाल नूर मोहम्मद के अनायास उत्तर से पैदा हुए ख्याल मात्र का नहीं हैं। ये सवाल आज भारत की राजनीति ही नहीं समूचे सामाजिक जीवन का सबसे प्राथमिक और मूल प्रश्न है। सेकुलर और साम्प्रदायिक होने का मनमाना प्रमाणपत्र बाँटने वालों की एक बड़ी जमात आज़ादी के बाद खड़ी हो गई है। ये कथित बुद्धिजीवी अपनी राजनीतिक/वैचारिक पसंद और सुविधा के अनुसार किसी को भी साम्प्रदायिक और किसी को सेकुलर बता देते हैं।
विकृत और छद्म सेकुलरवाद का कीड़ा इन्हें इतने भीतर तक काट गया है कि ये पूरे समाज को बस साम्प्रदायिकता और सेकुलरवाद के चश्मे से ही देखते हैं। ये सावरकर और गाँधी को ही खाँचों में बाँटकर सीमित नहीं रह जाते। इनके लिए तो हमारी हर विरासत, हर धरोहर, इतिहास की हर घटना और हर परम्परा इसी नज़रिए की गुलाम है। इन भाई लोगों ने तो हमारे महान साहित्यकारों तक को नहीं छोड़ा। इसी संकीर्ण, विघटनकारी और संकुचित मानसिकता के चलते इन कथित ठेकेदारों ने तुलसी और कबीर को भी बाँट दिया है। कितना हास्यास्पद है कि इन्होंने कबीर को सेकुलर और तुलसी को साम्प्रदायिक घोषित किया हुआ है।
इनके लिए तो गाँधी के राम और अयोध्या के राम भी अलग-अलग हैं। समाज को बाँटने की कोई मानसिकता है तो यही कथित सेकुलर मानसिकता है। इसी के नाम पर तुष्टीकरण और उससे उत्पन्न दुष्चक्र पूरे भारत को सालों से हिंसा, विघटन और राजनीतिक विद्वेष की भट्टी में झोंकता रहा है। लखनऊ की सड़कों और अयोध्या के गली कूँचों में जिस दिन ये लोग फ़र्क़ करना बंद कर देंगे उसी दिन ये भारत के असली रूप को पहचानेंगे अन्यथा दीवार पर लिखी इबारत तो साफ़ है ही।