भाजपा हमें ताना मारती थी कि हम कॉन्ग्रेस मुक्त भारत बनाएँगे। अब यह सच्चाई है कि दक्षिण भारत भाजपा मुक्त हो गया है।
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह बात कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद कही। 2014 से चमत्कार की आस में प्रतीक्षारत विपक्ष को इन नतीजों में 2024 की जीत दिख रही है। बीजेपी की हर पराजय में ‘कॉन्ग्रेस उदय’ देखने वाले पत्रकारों/प्रोपेगेंडाबाजों के लिए यह 2024 से पहले नरेंद्र मोदी के ‘मिशन दक्षिण’ की बुनियाद दरकना है।
तो क्या दिल्ली अब कॉन्ग्रेस की मुट्ठी में है? क्या 2024 अब कॉन्ग्रेस की है?
दक्षिण भारत के राज्य
- कर्नाटक
- केरल
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
दक्षिण भारत के राज्यों में किसकी सरकार
- कर्नाटक: कॉन्ग्रेस
- केरल: वाम दल
- तमिलनाडु: डीएमके
- आंध्र प्रदेश: वाईएसआर कॉन्ग्रेस
- तेलंगाना: भारत राष्ट्र समिति
तेलंगाना में इसी साल विधानसभा चुनाव होंगे। आंध्र प्रदेश में अगले साल आम चुनावों के साथ चुनाव होंगे।
दक्षिण भारत में लोकसभा की सीटें
- कर्नाटक: 28
- केरल: 20
- तमिलनाडु: 39
- आंध्र प्रदेश: 25
- तेलंगाना: 17
इस तरह दक्षिण भारत में लोकसभा की कुल सीटें 129 हैं। 2019 में इनमें से केवल 29 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी। इनमें चार सीटें तेलंगाना से आई थी और 25 कर्नाटक से। मतलब, दक्षिण भारत के तीन राज्यों में तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुला था।
अब क्या हो सकता है?
पिछली बार भी जब आम चुनाव हुए थे तो कर्नाटक में कॉन्ग्रेस और जेडीएस की सरकार चल रही थी। फिर भी बीजेपी 25 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी कॉन्ग्रेस सरकार बनाने में कामयाब हुई थी। लेकिन जब लोकसभा के चुनाव हुए तो छत्तीसगढ़ की 11 में से 9, मध्य प्रदेश की 29 में से 28 और राजस्थान की 25 में से 25 सीट बीजेपी को मिली। 2017 में गुजरात के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी को टक्कर देने में कॉन्ग्रेस सफल रही थी। लेकिन 2024 के लोकसभा में कॉन्ग्रेस का गुजरात में खाता तक नहीं खुला।
जाहिर है राज्यों के विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होते हैं। फिर भी कॉन्ग्रेस के लिए घोर आशावादी होकर भी सोचा जाए तो कर्नाटक विधानसभा चुनाव के मौजूदा गणित के हिसाब से बीजेपी को 18 सीटों का नुकसान हो सकता है।
दक्षिण भारत में बीजेपी की ताकत
कर्नाटक विधानसभा चुनाव की मुश्किल डगर का एहसास बीजेपी को पहले से था। हालाँकि यह उम्मीद नहीं रही होगी कि जेडीएस के वोट बैंक में इतना बिखराव होगा और कॉन्ग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा। कर्नाटक के अलावा दक्षिण में बीजेपी की उम्मीदों के हिसाब से तेलंगाना महत्वपूर्ण राज्य है। वहाँ पार्टी 2019 के बाद से खुद को कितना मजबूत कर पाई है, इसके संकेत राज्य में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में मिल जाएँगे। लोकसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो कर्नाटक और तेलंगाना के अलावा दक्षिण के किसी और राज्य में 2024 में बीजेपी के चमत्कार कर जाने की अपेक्षा उसके घोर समर्थक को भी न होगी। वैसे आंध्र और तमिलनाडु में भी पूर्व में बीजेपी खाता खोलने में सफल रही है। लेकिन उसमें बीजेपी की खुद की मजबूती से अधिक गठबंधन साथियों का योगदान रहा है।
दक्षिण भारत में कॉन्ग्रेस का हाल
कर्नाटक की सत्ता हासिल करने में कामयाब रही कॉन्ग्रेस को 2019 के आम चुनावों में दक्षिणी राज्यों से 27 सीटों पर जीत मिली थी। इनमें से एक कर्नाटक से, तीन तेलंगाना से, 15 केरल से और 8 तमिलनाडु से थे। अब तेलंगाना में बीजेपी के उभार ने कॉन्ग्रेस को हाशिए पर धकेल रखा है। आंध प्रदेश में वाईएसआर कॉन्ग्रेस पहले की तरह मजबूत दिखती है। ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती कि जगन मोहन रेड्डी विपक्षी एकता के नाम पर कॉन्ग्रेस की छतरी के नीचे जाएँगे। 2019 के आम चुनावों से पहले एनडीए छोड़ विपक्षी एका बनाने चले चंद्रबाबू नायूड की टीडीपी आंध्र की दूसरी प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी है। राष्ट्रीय राजनीति में खुद को अप्रसांगिक कर चुके नायडू ने भी इस बार अब तक ऐसी किसी मुहिम से खुद को दूर ही कर रखा है। केरल में कॉन्ग्रेस गठबंधन और वाम दलों के गठबंधन के बीच ही इस बार भी कमोबेश मुकाबला रहेगा। तमिलनाडु में आज भी कॉन्ग्रेस सत्ताधारी डीएमके की सहयोगी है। मुकाबला डीएमके और एआईडीएमके गठबंधन के बीच होगा।
यानी ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती जिससे लगे कि दक्षिणी राज्यों में कॉन्ग्रेस को कोई नया और मजबूत पाटर्नर मिलने जा रहा है। न ही इस बात की संभावना दिखती कि वह दक्षिण भारत की 129 लोकसभा सीटों में 2019 के मुकाबले अपनी सीटों में भारी इजाफा कर पाएगी। तेलंगाना और आंध्र में उसकी जमीन खिसक चुकी है। तमिलनाडु में वह डीएमके की कृपा पर है। कर्नाटक और केरल में ही उसके लिए बेहतर करने की संभावना बचती है। इन दोनों राज्यों की यदि सभी सीटें भी कॉन्ग्रेस जीत ले (जिसकी संभावना नाममात्र है) और अन्य दक्षिणी राज्यों में 2019 में हासिल की गई सीटों को वह बरकरार रख लेती है तो भी उसके पास खुद की 59 सीटें ही होंगी। दक्षिण भारत के अलावा अन्य राज्यों में भी कॉन्ग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह खुद के दम पर 41 सीटें लाकर लोकसभा में अपने सदस्यों की संख्या तीन डिजिट में पहुँचा सके।
… तो इस जीत से क्या होगा
कर्नाटक की जीत कॉन्ग्रेस के लिए लोकसभा चुनावों से पहले चुनावी संसाधन जुटाने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। इसने उसे वह नंबर्स दिए हैं जिससे वह 2024 के आम चुनावों तक राहुल गाँधी नाम के प्रोडक्ट को बेचने की कोशिश कर सके। वह ताकत दी है, जिससे काल्पनिक मुद्दे गढ़ सके, जैसे 2019 से पहले राफेल का गढ़ा गया था। उम्मीदों का वह लॉलीपॉप दिया है, जिससे अपने सहयोगियों को भागने से रोक सके।
वैसे भाड़े के सैनिकों से युद्ध जीतने की कई कहानियाँ हैं। पर ये युद्ध तभी जीते गए जब सेनापति खुद भी सक्षम थे। कॉन्ग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यही है। वह भानुमती का कितना भी बड़ा कुनबा जोड़ ले, उसका स्वयंभू सेनापति (भले आज कर्नाटक जीत में भारत जोड़ो यात्रा का प्रभाव भी बताया जा रहा) निस्तेज और सामर्थ्यहीन है। खासकर जब मुकाबला नरेंद्र मोदी नाम के राजनीतिक बाहुबली से हो। फिलहाल जो कानूनी स्थिति है वह भी कॉन्ग्रेस के स्वयंभू सेनापति को चेहरा बनने की अनुमति नहीं देता है। यानी पार्टी को 2024 के लिए चेहरे की तलाश भी करनी है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 2019 के आम चुनावों से पहले कई विधानसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बाद भी कॉन्ग्रेस लोकसभा में ट्रिपल डिजिट में अपने सीटों को ले जाने के आसपास भी नहीं पहुँच पाई थी। उस समय पप्पूपना की उम्र भी 5 साल कम थी।