असम के बाद अब उत्तराखंड में मुस्लिम समुदाय की वजह से तेजी से बदल रही डेमोग्राफी और अवैध भूमि अतिक्रमण पर चर्चा आरंभ हो गई है। हाल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार नैनीताल की डेमोग्राफी पिछले कई वर्षों में असामान्य रूप से बदली है। यह अवैध अतिक्रमण और बदलती डेमोग्राफी का ही असर है कि पिछले कई महीनों से सोशल मीडिया, खासकर ट्विटर पर, प्रदेश के स्थानीय लोगों द्वारा भू कानून लाने की माँग लगातार उठाई जा रही है। इस तरह की माँगे कितनी प्रभावशाली होती हैं, वह बहस का विषय हो सकता है पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अचानक उत्तराखंड के स्थानीय लोग भूमि पर अवैध अतिक्रमण, बदलती डेमोग्राफी और राज्य के नागरिकों, राजनीति और प्रशासन पर इसके असर को लेकर चिंतित और सतर्क नज़र आ रहे हैं।
खुफिया एजेंसियों के हवाले से छपी खबर के अनुसार स्थानीय लोगों के अपने पेशे और व्यवसाय पर भी इस डेमोग्राफी में हुए बदलाव का असर साफ़ देखा जा रहा है। चूँकि नैनीताल की अर्थव्यवस्था अधिकतर पर्यटन पर निर्भर है इसलिए पर्यटन सम्बंधित लगभग सभी पेशे में स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी घटती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार इस तरह का आर्थिक हस्तक्षेप केवल वैध रूप से चलाए जा रहे पेशे या व्यापार तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य प्रदेशों से आए मुसलामानों द्वारा स्थानीय भूमि पर अवैध कब्जे की घटनाएँ भी बढ़ी हैं। इसे लेकर स्थानीय लोगों ने प्रशासन के पदाधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक को ज्ञापन दिए हैं पर अभी तक इन शिकायतों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी है। यही कारण है कि स्थानीय लोगों ने भू कानून की आवश्यकता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया।
नैनीताल की बदल रही है डेमोग्राफी, है खुफिया एजेंसियों ने किया आगाह#Uttrakhand#उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून pic.twitter.com/z9bcBnC5mF
— Jai Uttarakhand (@jayuttarakhand) September 27, 2021
अन्य राज्यों की तरह उत्तराखंड में बदलती डेमोग्राफी को लेकर बातें होती रही हैं और चिंता व्यक्त की जाती रही है। पिछले महीने ही टिहरी बाँध पर बनी अवैध मस्जिद को हटाने को लेकर स्थानीय लोगों और प्रशासन के बीच वाद विवाद का वीडियो वायरल हुआ था। स्थानीय लोगों की कोशिश के बाद वह अवैध मस्जिद हटा दी गई पर प्रश्न उठता है कि जगह-जगह वैध या अवैध तरीके से मस्जिद, मज़ार या अन्य धार्मिक निर्माण आवश्यक क्यों है? इसी महीने प्रयाग के चंद्रशेखर आज़ाद पार्क में हुए अवैध निर्माण और अतिक्रमण हटाने की प्रक्रिया में तीन मज़ारें और चौदह कब्रें हटाई गई। समस्या यह है कि ऐसा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही हो सका और प्रश्न यह है कि; ऐसे अवैध निर्माणों को प्रशासनिक स्तर पर रोकना मुश्किल क्यों है?
कुछ दिन पहले ही असम में सरकार द्वारा अवैध भूमि अतिक्रमण को हटाने की प्रक्रिया को रोकने के लिए योजनाबद्ध तरीके से हिंसा का न केवल सहारा लिया गया बल्कि उसे लेकर देश और विदेश में निम्न स्तर का राजनीतिक प्रचार और अंतरराष्ट्रीय प्रोपेगेंडा देखने को मिला। पाकिस्तान सहित कुछ अरब देशों में अतिक्रमण हटाने के सरकारी प्रयास को मुसलमानों के ऊपर जुल्म के रूप में प्रस्तुत किया गया और साथ ही भारतीय उत्पादों के बहिष्कार की अपील भी की गई। हिंसा की जाँच के लिए आवश्यक कार्रवाई हुई है पर असम के मुख्यमंत्री का प्रश्न है कि; जब अतिक्रमण हटाने को लेकर अवैध रूप से रहने वाले लोगों और सरकार के बीच समझौता हो गया था तब हिंसा क्यों हुई, अनुत्तरित है।
कभी-कभी लगता है कि सार्वजनिक या निजी संपत्तियों पर ऐसे समूहों ने वैध या अवैध कब्ज़ा कर लिया है जो किसी दीर्घकालीन योजना के तहत काम कर रहे हैं। इस कब्ज़ा संस्कृति में धार्मिक स्थलों और इमारतों का निर्माण दीर्घकालीन योजना का ही हिस्सा है। समस्या यह है कि इसे रोकने के लिए जो प्रशासनिक चुस्ती चाहिए उसका अभाव हमेशा झलकता रहा है। कभी-कभी संस्थागत हस्तक्षेप दिखाई देता रहा है पर समस्या के भीषणता को देखते हुए ऐसे संस्थागत हस्तक्षेप महत्वहीन हैं। ऐसे में मामला अब राजनीतिक तत्परता, इच्छाशक्ति और स्थानीय लोगों की सतर्कता तक आ पहुँचा है। एक आम भारतीय की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा समय दूर नहीं जब चुनावी मुद्दों में अवैध कब्जे हटाया जाना ऐसा मुद्दा रहेगा जिसे हल्के में लेना राजनीतिक दलों के लिए आसान न होगा।
बदलती डेमोग्राफी और स्थानीय पेशे और भूमि पर वैध या अवैध कब्जा मुर्गी और अंडे वाले प्रश्न जैसी बात है। कब्ज़े के कारण डेमोग्राफी बदल रही है या बदल रही डेमोग्राफी के कारण कब्ज़ा बढ़ रहा है, यह प्रश्न हमेशा खड़ा रहेगा। संस्थागत तत्परता, राजनीतिक दलों और स्थानीय प्रशासन की भूमिका के अलावा यह समझना आवश्यक है कि इस तरह के अतिक्रमण केवल भूमि पर अवैध कब्जे की बात नहीं बल्कि सीधे-सीधे सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की लड़ाई है और उससे मुँह मोड़ लेना न तो नागरिकों के हित में है और न ही सरकार के।
शायद यही कारण है कि अवैध अतिक्रमण हटाने के वादे को असम में भाजपा के संकल्प पत्र में जगह मिलनी शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है पर यह शुरुआत मात्र है। ऐसे में यह आशा की जा सकती है कि अन्य राज्यों के राजनीतिक दल भी इस समस्या की विभीषिका को समझेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि लगातार बढ़ रही यह समस्या उनके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा होंगे।