कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणापत्र में दावा किया है कि वो जीडीपी का 3.5% हेल्थकेयर पर ख़र्च करेगी। ध्यान दीजिए, बजट का नहीं, जीडीपी का। कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र के अनुसार, पार्टी के सत्ता संभालने के बाद 2023-24 तक हेल्थकेयर पर कुल सरकारी ख़र्च जीडीपी का 3% हो जाएगा और शिक्षा पर सरकार द्वारा जीडीपी का 6% ख़र्च किया जाएगा। ये एक असंभव लक्ष्य है, बेहूदा है। इसे समझने के लिए हमें जीडीपी और बजट के बीच का अंतर समझना पड़ेगा। अगर डॉलर को रुपया में कन्वर्ट करें तो 2018-19 में भारत की जीडीपी 139.5 लाख करोड़ के आसपास आती है। वहीं अगर बजट की बात करें तो ताज़ा भारतीय बजट का कुल वार्षिक ख़र्च 27 लाख करोड़ रुपया प्रस्तावित है।
अब जरा वार्षिक बजट एवं जीडीपी को समझ लेते हैं। सीधे शब्दों में जानें तो वार्षिक बजट एक वित्त वर्ष के लिए किसी संस्था या सरकार द्वारा कमाने व ख़र्च किए जाने वाले रुपए का हिसाब-किताब है। यहाँ दो चीजें आती हैं, पहला रेवेन्यू और दूसरा ख़र्च। एक कम्पनी के लिए रेवेन्यू का अर्थ होता है उसके द्वारा बेची गई चीजें या सर्विस से प्राप्त होने वाला धन। सरकार के मामलों में, रेवेन्यू कहाँ से आता है? सरकार का अधिकतर रेवेन्यू टैक्स और शुल्क से आता है। ये टैक्स अलग-अलग तरह के होते हैं। सेवा कर, निगम कर, उधार, सीमा शुल्क इत्यादि सरकार की आय यानि कह लीजिए रेवेन्यू के प्रमुख स्रोत हैं।
अब सवाल ये उठता है कि सरकार इतना रुपया कमाती तो है, लेकिन ये रुपया जाता कहाँ है? असल में सरकार के पास आने वाले रुपयों में से अधिकतर दो चीजों पर जाता है, पहला राज्यों को करों एवं शुल्कों में दिया जाने वाला हिस्सा और दूसरा ब्याज अदाएगी। जैसा कि आपने देखा, सरकार हर वर्ष कुछ उधार लेती है जो उसकी रेवेन्यू का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा होता है। इसी तरह सरकार हर साल क़र्ज़ चुकाते हुए ब्याज का भी भुगतान करती है, जो उसके ख़र्च (Expenditure) का एक प्रमुख हिस्सा बन जाता है। बाकी रुपया केंद्रीय योजनाएँ, रक्षा, आर्थिक सहयोग इत्यादि में जाता है।
अब हम कह सकते हैं कि हर साल आने-जाने वाले रुपयों का हिसाब-क़िताब ही किसी संस्था या सरकार का बजट होता है। एक बैलेंस बजट तभी बनता है, जब जितना रुपया आ रहा है, उतना ही जाए भी। अर्थात यह, कि अगर किसी की मासिक सैलेरी 10,000 है और उसके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है, तो अगर उसका मासिक ख़र्च 10,000 रुपए से एक रुपया भी अधिक होता है तो उसका बजट बैलेंस नहीं कहा जाएगा। जब बात भारत जैसे विशाल और विकासशील देश की हो रही हो तो लाखों करोड़ रुपयों के हिसाब-किताब में बैलेंस मेंटेन करना मुश्किल हो जाता है।
यहाँ एक अन्य टर्म का जन्म होता है, जिसे हम घाटा (Deficit) कहते हैं। सरकार की कोशिश रहती है कि हर वर्ष ये बजटीय घाटा कम से कम हो। सरकार की ही नहीं बल्कि किसी भी संस्था चाहे वो दो लोगों का एक परिवार ही क्यों न हो, अपना बजटीय घाटा कम करने की कोशिश करता है। अभी ये आँकड़ा 3.5% के आसपास झूलता रहता है। इस घाटे को भी हम जीडीपी के एक हिस्से के रूप में दर्शा सकते हैं। जैसे कि 2017-18 के वार्षिक बजट और जीडीपी की तुलना करें तो वार्षिक बजट कुल जीडीपी का 17% के आसपास आता है। ध्यान दीजिए, यहाँ हमने 2018-19 में भारत सरकार के बजट का आँकड़ा उठाया है, जिसके अनुसार कुल सरकारी ख़र्च 24.4 लाख करोड़ बैठता है।
अब वापस कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र पर आते हैं। जैसा कि पहले पैराग्राफ में बताया गया है, कॉन्ग्रेस ने जीडीपी का 6% हिस्सा शिक्षा पर और 3.5% हिस्सा स्वास्थ्य पर ख़र्च करने की बात कही है। सुनने में तो ये काफ़ी अच्छा लगता है, लेकिन अब जो आप जानेंगे, उसके बाद आपको पता चलेगा कि आख़िर भारत जैसे विशाल देश का 8 बजट पेश कर चुके अर्थशास्त्री की अध्यक्षता में तैयार घोषणापत्र में हुआ ये ब्लंडर कितना ख़तरनाक है। जरा सोचिए, अगर बजट जीडीपी का 17% है और कॉन्ग्रेस जीडीपी का लगभग 10% हिस्सा दो ही सेक्टर पर ख़र्च करने की बात करती है तो बाकी सेक्टर के लिए सिर्फ़ 7% हिस्सा ही बच जाएगा। फिर किसानों की क़र्ज़माफ़ी के लिए पैसे नेहरू जी की किस तिजोरी से निकाले जाएँगे?
वर्ल्ड बैंक के आँकड़ों के अनुसार, अभी भारत के बजट में जीडीपी का लगभग 2.5% हिस्सा रक्षा क्षेत्र में जाता है। इस से हमारे सैनिकों के लिए साजोसामान आते हैं और देश की रक्षा होती है। अगर इसे मिला दें (अगर कॉन्ग्रेस रक्षा बजट में जीडीपी बढ़ाए) तो भारत के बजट में बच जाता है जीडीपी का सिर्फ़ 4.5% हिस्सा। यानी कि लगभग पूरा बजट शिक्षा, स्वास्थ्य और रक्षा पर ख़र्च हो गया। बचती है वो असली चीजें, जिसपर हमारा पूरा देश टिका हुआ है। शिक्षा तभी हासिल होगी जब पेट भरा होगा। भारत के बजट का कौन सा हिस्सा कृषि में जाएगा? क्या 10 बच्चों की पढ़ाई पर 100 रुपया अतिरिक्त ख़र्च कर के (जो कि होनी चाहिए) 1000 किसानों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा (लेकिन इस इस क़ीमत पर नहीं होनी चाहिए)।
जैसा कि हमनें ऊपर सरकारी व्यय का हिस्सा बताया, भारत सरकार के वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा कर्मचारियों वेतन और पेंशन में जाता है। क्या सारे कर्मचारियों का वेतन रोक कर उन्हें स्वस्थ रखेंगे? कैसे? अब आते हैं सरकारी ख़र्च के एक ऐसे हिस्से पर, जिसपर भारत का बड़ा ग़रीब समाज टिका हुआ है। जिनके लिए सरकार को कार्य करना है, जिनकी लिए सरकारें काम करती हैं। ये हिस्सा है सब्सिडी का। महिलाओं को गैस पर सब्सिडी, कृषकों को खाद व बीज पर सब्सिडी, बीपीएल परिवारों को राशन पर सब्सिडी, पेट्रोलियम पर सब्सिडी इत्यादि के लिए बजट का कौन सा हिस्सा ख़र्च किया जाएगा? जब पूरा बजट शिक्षा और स्वास्थ्य में ख़र्च करेंगे तो ग़रीबों को भोजन कैसे मिलेगा?
शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट एलोकेशन बढ़ना चाहिए, ज़रूर बढ़ना चाहिए लेकिन इसके लिए पी चिदंबरम को राहुल गाँधी बनने की ज़रूरत नहीं है। इसके लिए किसानों, ग़रीबों और महिलाओं के हितों से समझौता नहीं होना चाहिए। अगर पूरा बजट दो-तीन सेक्टर पर ख़र्च करेंगे तो बाकी चीजों के लिए रुपया उधार लिया जाएगा क्या? इसका अर्थ हुआ कि जितना हमारा बजटीय ख़र्च होगा, लगभग उतना ही रुपया हमें उधार लेना पड़ेगा अन्यथा सारी सब्सिडी और जान कल्याणकारी योजनाएँ बंद करनी पड़ेगी। ऊपर से कॉन्ग्रेस ने5 करोड़ परिवारों को सालाना 72,000 रुपए देने का वादा किया है। इसके लिए पैसा कहाँ से आएगा?
अगर पी चिदंबरम थोड़ी देर के लिए राहुल गाँधी वाले रूप से बाहर आ जाएँ तो सिंपल गुणा-भाग जानने वाला दूसरी कक्षा का एक छोटा सा बच्चा भी उन्हें बता देगा कि कॉन्ग्रेस की NYAY योजना पर कुल ख़र्च 3.6 लाख करोड़ रुपया आएगा। लगभग इतने ही रुपए (3.3 लाख करोड़ रुपए) मनरेगा, स्वच्छ भारत, नेशनल हेल्थ मिशन और नेशनल स्वास्थ्य मिशन जैसे 29 सरकारी योजनाओं पर ख़र्च किए जाते हैं। इसका क्या होगा? क्या इन सबको हटा दिया जाएगा? ये जीडीपी का 2% हिस्सा बनता है। ये दाल-भात की थाली नहीं है जिसमे से निवाले की तरह रह-रह कर जीडीपी का प्रतिशत निकाला जाए और कहीं भी फेंक दिया जाए।
कुल मिलाकर अगर वित्त वर्ष 2019-20 की बात करें तो भारत का जीडीपी 190 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक रहने की संभावना है। अब आप बताइए, इसका 10% यानि 19 लाख करोड़ रुपया सिर्फ़ शिक्षा और स्वास्थ्य पर ख़र्च कर दिया जाएगा तो 27 लाख करोड़ के ताज़ा बजट में से बाकी क्षेत्र के लिए क्या बचेगा? जीडीपी का 10% हमारे वार्षिक बजट का 70% बन गया। बस-बस, यही वो फर्क है जो पी चिदंबरम और राहुल गाँधी को समझना है।
यहाँ हम ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि बिना ‘द हिन्दू’ की तरह क्रॉप किए, बिना एन राम की तरह न समझने वाली भाषा का इस्तेमाल किए बड़ी ही आसानी से चीजों को समझा जा सकता है, समझाया जा सकता है, बशर्ते आप कुटिल प्रोपेगंडाबाज न हों और आपके इरादे नेक हों। देश का 8 बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री ने देश के ग़रीबों, महिलाओं व किसानों से उनको फैलने वाले फायदे छीनने की योजना बनाई है और मीडिया की कानों पर जूँ तक न रेंग रही, अजीब है। ये एक-दो दिखावटी तौर पर लुभावने लेकिन असल में भ्रामक और कुटिल योजनाओं के जरिए जनता से उसका हक़ छीनना चाहते हैं। नो आउटरेज? व्हाई?