लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला के बाद अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी 1975 में इंदिरा गाँधी की कॉन्ग्रेस सरकार लगाई गई इमरजेंसी (आपातकाल) की आलोचना की है। राष्ट्रपति मुर्मू ने इसे देश का सबसे अंधकारमय समय बताया है। राष्ट्रपति और स्पीकर के इमरजेंसी की आलोचना पर अब कॉन्ग्रेस बिफर गई है। वह नहीं चाहती है कि कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा लोगों को दी गई प्रताड़नाओं और देश के संवैधानिक ढाँचे पर किए गए हमले को लेकर बात हो।
कॉन्ग्रेस संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने लोकसभा स्पीकर को गुरुवार (27 जून, 2024) को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में ओम बिरला के इमरजेंसी की आलोचना करने पर आपत्ति जताई गई है। इस पत्र में केसी वेणुगोपाल ने लिखा, “इमरजेंसी की घोषणा के संबंध में आपके भाषण में जिक्र किया जाना बेहद चौंकाने वाला है। स्पीकर की ओर से इस तरह का राजनीतिक बयान देना संसद के इतिहास में अभूतपूर्व है।” केसी वेणुगोपाल ने कहा है कि स्पीकर का ऐसा बयान देना दुर्भाग्यपूर्ण है।
The Speaker’s chair is above partisan politics.
— K C Venugopal (@kcvenugopalmp) June 27, 2024
What the Hon’ble Speaker said yesterday in his reference after acceptance speech with political remarks is a travesty of Parliamentary traditions. pic.twitter.com/eoSgJgf3D4
खुद अपराध स्वीकार नहीं, दूसरों को भी नहीं बोलने देना चाहती कॉन्ग्रेस
केसी वेणुगोपाल के पत्र ने यह साफ कर दिया है कि कॉन्ग्रेस 1975 के इमरजेंसी के दौर पर खुद तो बात नहीं ही करना चाहती बल्कि बाकी लोगों को भी इस विषय में शांत करना चाहती है। केसी वेणुगोपाल का यह पत्र स्पीकर ओम बिरला के अपने पहले भाषण में इमरजेंसी के दौरान लोगों को दी गई यातनाओं के प्रति संवेदना व्यक्त करने के बाद आया है।
स्पीकर ओम बिरला ने बुधवार को संसद में इमरजेंसी के दौरान यातनाएँ सहकर जान गंवाने वालों के लिए 2 मिनट का मौन रखा था। इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी अभिभाषण के दौरान इमरजेंसी को देश का सबसे भयावह दौर और संविधान पर हमला बताया। पत्र के अलावा कॉन्ग्रेस नेता और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी स्पीकर ओम बिरला से मिले और इमरजेंसी की आलोचना को ‘नजरअंदाज’ किया जा सकने वाला बताया।
कॉन्ग्रेस ने भाषण को लेकर पत्र के जरिए तो आपत्ति जताई ही है, उसने भाषण के दौरान भी सदन में खूब हंगामा किया था। जहाँ एक ओर NDA सांसद इमरजेंसी के पीड़ितों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे थे, वहीं कॉन्ग्रेस के सांसद शोर शराबा करने में व्यस्त थे।
यह दिखाता है कि इमरजेंसी के 50 वर्षों के बाद भी कॉन्ग्रेस को अपने कृत्यों पर कोई पछतावा नहीं है। पछतावा होना भी दूर की बात है, उसका पूरा ध्यान इस बात पर है कि बाकी देश को कैसे इस अपराध के बारे में बोलने से रोका जाए , यदि वह बोलें तो उनका मुंह बंद करवा दिया जाए, हल्ला गुल्ला किया जाए और ध्यान भटका दिया जाए।
वह संसदीय मर्यादाओं, परम्पराओं और पद की गरिमा जैसे चाशनी भरे शब्दों के बीच अपनी कुंठा छुपा रही है। उसका मूल उद्देश्य लोगों को इमरजेंसी के बारे में बात करने से रोकना है। इसके लिए देश के नेताओं को बेड़ियों में बाँधने वाली कॉन्ग्रेस नैतिकता की भी दुहाई दे रही है।
कॉन्ग्रेस का मन: यातनाओं पर ना हो बात
कॉन्ग्रेस भले कितना ही जोर इस बात पर लगा ले कि 1975 से 1977 के बीच चले इमरजेंसी के दौर की यातनाओं को छुपाया जाए, यह संभव नहीं दिखता है। इस इमरजेंसी के दौरान 140,000 से अधिक व्यक्तियों, जिनमें राजनीतिक विरोधी, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, लेखक और असहमति व्यक्त करने वाले आम नागरिक शामिल थे, को मनमाने ढंग से गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया। इस दौरान देश में कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा लोगों को दी गई यातनाएँ के किस्से भी अनगिनत हैं।
इमरजेंसी के दौरान आम और ख़ास किसी को नहीं छोड़ा गया था। इसी में एक मामला स्नेहलता रेड्डी का था। स्नेहलता रेड्डी कन्नड़ अभिनेत्री थीं। उन्हें जॉर्ज फ़र्नान्डिस का दोस्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। स्नेहलता अस्थमा की मरीज थीं, बावजूद इसके उन्हें घोर यातनाएँ दीं जाती और जेल में उन्हें निरंतर उपचार भी नहीं दिया गया।
यह बातें स्वयं स्नेहलता ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समक्ष रखीं थीं। जेल में मिलने वाली क्रूर यातनाओं ने और उस वास्तविकता ने स्नेहलता को बेहद कमजोर कर दिया और उनकी हालत गंभीर हो गई। जनवरी 15, 1977 को उन्हें पैरोल पर रिहा कर दिया गया। और रिहाई के 5 दिन बाद ही 20 जनवरी को हार्ट अटैक के कारण उनकी मृत्यु हो गई।
बताया जाता है कि देश में इमरजेंसी के दौरान 60 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी करवाई गई थी। देश का कोई भी ऐसा विपक्षी नेता नहीं था जो गिरफ्तार ना किया गया हो। बड़े से बड़े नेताओं को जेलों में बंदी बना कर रखा गया। आज देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी तब जेल में बंद थे, उनकी माँ की इसी सदमे के कारण मृत्यु हो गई थी और वह उन्हें अंतिम समय देख ना सके। वह अपने इन अपराधों पर पर्दा डालना चाहती है।
सत्ता गई, तानाशाही नहीं
कॉन्ग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल का पत्र और इमरजेंसी के पीड़ितों के लिए मौन के दौरान कॉन्ग्रेस सांसदों का हंगामा दिखाता है कि भले ही वह पिछले 10 वर्षों से सत्ता में नहीं है और अगले पाँच वर्षं के लिए भी जनता द्वारा नकार दी गई है, लेकिन उसके तेवर अब भी तानाशाहों वाले हैं।
इमरजेंसी के दौरान कॉन्ग्रेस ने प्रेस की स्वतंत्रता खत्म कर दी थी, इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों को विरोध में सादा छापा गया था। कई अखबारों पर छापे पड़े थे, पत्रकारों को मारा पीटा गया था। एक बार फिर से वह यही प्रयास कर रही है।
इस बार सत्ता ना होने के कारण उसके निशाने पर प्रेस के अलावा राजनीतिक शख्सियतें हैं। केसी वेणुगोपाल का पत्र, मात्र उनका पत्र ही नहीं बल्कि इस हंगामे और लोगों को चुप कराने के प्रयास में गाँधी परिवार की सहमति भी समझा जाना चाहिए। वेणुगोपाल गाँधी परिवार के सबसे निकटतम लोगों में से एक हैं। इमरजेंसी को भले 50 वर्ष हो गए हैं, लेकिन दरबारी राजनीति यदि आज भी मौक़ा मिले तो उसी समय की तरह अपनी वफादारी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।