दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों की राजनीति की दिशा और दशा डूटा (दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ) के अध्यक्ष और उसकी क्रियाकलापों के इर्द-गिर्द घूमती है। DUTA अध्यक्ष के चुनाव में अधिकतर तो वामपंथियों का कब्ज़ा रहा है, लेकिन बीच के दौर में कई बार कॉन्ग्रेस समर्थित अध्यक्ष भी बने हैं।
राष्ट्रवादी शक्तियों को ये मौका बहुत कम मिला है। कई बार अच्छे प्रदर्शनों के बाद भी पिछले बीस वर्षों से डूटा अध्यक्ष का पद राष्ट्रवादी शक्तियों के खेमे में नहीं आ पाया है।
डूटा की राजनीति और उसकी कार्यकारिणी की संरचना कुछ ऐसी बनी हुई है, जिसमें सिर्फ अध्यक्ष का चुनाव सीधा होता है। बाकी पदाधिकारियों का चुनाव डूटा के उन पंद्रह कार्यकारिणी सदस्यों के बीच होता है जो चुनाव जीत कर सदस्य बनते हैं।
चुनाव में बाकी और विचारधारा वाले संगठनों की तरह राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन से भी चार या पाँच उम्मीदवार ही खड़े किए जाते हैं। ऐसी संरचना में डूटा की राजनीति सिर्फ अपनी ही विचारधारा के अनुसार तय करना डूटा अध्यक्ष के लिए भी संभव नहीं होता है।
डूटा की कार्यकारिणी में हर विचारधारा के लोग आते हैं, इसलिए कार्यकारिणी में लिए गए निर्णय और उसी में किया गया पदाधिकारियों का चुनाव भी सिर्फ विचारधारा का ध्यान रखकर नहीं हो पाता है। इन परिस्थितियों में डूटा कार्यकारिणी सिर्फ शिक्षकों की अपनी मूलभूत सुविधाओं, अधिकारों और उनके आर्थिक हितों के मुद्दों पर ही एकमत हो पाते हैं।
वामपंथियों के लिए डूटा की ऐसी संरचना लाभदायक सिद्ध हुई है, क्योंकि दिल्ली राज्य और केंद्र में ना तो कभी उनके विचारधारा वाली सरकार रही और ना ही दूर भविष्य में आने की उम्मीद दिखती है। शिक्षक हितों के नाम पर उन्हें दिल्ली संसद पर आतंकी हमलों के संदिग्ध प्रो. जीलानी, प्रो. साईंबाबा और प्रो. हनी बाबू जैसे अर्बन नक्सलियों और हिन्दू विरोधी प्रो. केदार मंडल जैसे लोगों के हितों की रक्षा करने में मुश्किल नहीं होती है।
शिक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने राष्ट्रविरोधी एजेंडे को भी वे अधिकारों की राजनीति के नाम पर खुले में बढ़ा ले जाते हैं। अलबत्ता राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने कई मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ शिक्षक अधिकारों के मुद्दों की राजनीति करनी पड़ती है।
राष्ट्रवादी संगठन हमेशा से सिर्फ अधिकारों की ही नहीं, बल्कि शिक्षकों में कर्तव्यबोध बढ़ाने की भी पक्षधर रही है और यही बात उन्हें वामपंथी संगठनों से अलग भी करती है। मगर डूटा की राजनीति करने के दबाव में शिक्षकों के कर्तव्यों की बात आज की परिस्थिति में करना उनके लिए आज इसीलिए भी मुश्किल होता है, क्योंकि उन्हें सिर्फ सरकार का साथ देने की सोच कहकर बाकी सभी गुट उन्हें नकार देते हैं।
ऐसी संरचना के चक्रव्यूह में फँसकर शिक्षकों के बीच कार्यरत राष्ट्रवादी शक्तियाँ भी अब कर्तव्यों की बात छोड़कर सिर्फ अधिकारों और सिर्फ शिक्षक हितों के नाम की राजनीति करने को मजबूर हो गए हैं।
इसी राजनीति में फँसकर उन्हें सरकार की हर पॉलिसी का ना सिर्फ विरोध करना पड़ता है, बल्कि उन्हीं पॉलिसियों में निहित कुछ अच्छाइयों का वे ज़िक्र तक नहीं कर पाते। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जहाँ कुछ कमियाँ हो सकती है, मगर स्वतंत्र भारत में पहली बार शिक्षा का भारतीयकरण करने की कोशिश इस पॉलिसी में स्पष्ट रूप से किया गया है। मगर इस पक्ष को रखने से भी इन शक्तियों को बचना पड़ता है।
इसी नीति में स्पष्ट तौर पर सरकारी निवेश दुगुने से भी ज़्यादा बढ़ाने की बात लिखे होने के बाद भी इसे शिक्षा के व्यवसायीकरण की पॉलिसी कहने वाली डूटा का विरोध करने से इन्हें बचना होता है। समायोजन जैसे गंभीर और तर्कसंगत मुद्दे पर सिर्फ कई वर्षों से कार्यरत लोगों के समायोजन की माँग ना करके कल से लगे एडहॉक शिक्षकों के समायोजन की भी अतार्किक माँग का समर्थन, इसलिए करना पड़ता है क्योंकि ऐसा प्रस्ताव डूटा में पास हो चुका है।
शिक्षा में जहाँ प्राइवेट निवेश का अंधविरोध राष्ट्रवादी शक्तियाँ देश में कहीं और नहीं करतीं, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में उन्हें ऐसा करना पड़ता है। यूजीसी (UGC) के 2018 के अभूतपूर्व रेगुलेशंस की प्रशंसा करना भी इन्हें इन्हीं कारणों से मुश्किल होता है।
कोरोना काल में जब ऑनलाइन शिक्षा विकल्प नहीं मजबूरी भी हो गई है, उस वक्त भी ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर डूटा का अंधविरोध राजनीति से प्रेरित है। लेकिन राष्ट्रवादी शक्तियों का भी इसे समर्थन देना एक मजबूरी हो जाता है।
अगर हम ध्यान दें तो राष्ट्रवादी शक्तियों को केंद्र में सरकार बनाने से दूर रखने के लिए भी धर्मनिरपेक्षता का एक अभेद्य चक्रव्यूह बनाया गया था और अटल जी की सरकार तक को भी यह विश्वास दिला दिया था कि इस चक्रव्यूह को तोड़ा नहीं जा सकता है।
आडवाणी जी का असमय जिन्ना प्रेम, गुजरात में मोदी की सरकार को खुलकर समर्थन ना दे पाना, राम मंदिर के नाम पर सक्रियता का अभाव, पाकिस्तान की आतंकी नीतियों के खुलकर विरोध में कमी और कांधार संस्करण में सरकार की कमजोरी, इसी का प्रमाण है। मगर मोदी की सरकार ने उस छद्म धर्मनिरपेक्षता की संकीर्ण मानसिकता से अपने आप को बचाकर सिर्फ राष्ट्रहित की नीतियों के आधार पर ही देश को एक मजबूत सरकार देने में सफलता हासिल की है।
समय आ गया है जब दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत राष्ट्रवादी शक्तियों को भी ये सोचना पड़ेगा कि डूटा अध्यक्ष बनने की दौड़ में अपनी पहचान खोना कहाँ तक तर्कसंगत है?
केंद्र की मोदी सरकार ने यह स्थापित किया है कि राष्ट्रवादी शक्तियों का भारतीय राजनीति में दबदबा उसकी राष्ट्रवादी नीतियों के कारण ही हुआ है। इतना ही नहीं, मोदी के नए भारत में उज्ज्वला जैसी पॉलिसी की सफलता ने यह भी सिद्ध किया है कि आज लोग अपने कर्तव्यों के प्रति भी सचेत हैं और सिर्फ अधिकारों और अवसरवादिता की राजनीति करने का काल अब नहीं रहा।
राष्ट्रवादी शक्तियों को डूटा के बनाए गए इस चक्रव्यूह को तोड़कर डूटा की सीमित राजनीति से मोहभंग करना होगा। उन्हें डूटा से अलग अपनी पहचान बनाने की पहल करनी पड़ेगी और तभी राष्ट्रवादी शक्तियाँ अपने आप को सही मायने में दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थापित कर पाएँगी।