कोयला घोटाले में जब ज्यादा सवाल पूछे जाने लगे तो रेनकोट वाले डॉक्टर साहब ने फ़रमाया था- ‘हज़ारों जवाबों से अच्छी है ख़ामोशी मेरी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखे।’ डॉक्टर साहब बिना पूछे कभी नहीं बोलते थे। यहाँ तक कि जब पार्टी के अत्यंत होनहार युवा नेता ने भरी सभा में अध्यादेश फाड़ दिया तब भी इतना भर कह के चुप लगा गए कि वे इस परम प्रतिभाशाली सुयोग्य नेता के नेतृत्व में कार्य करने के लिए हमेशा तैयार हैं। डॉक्टर साहब के अनुसार देश का प्रधानमंत्री ऐसा ही होना चाहिए जो किसी का भी नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार रहे।
आजकल एक चमत्कार हुआ है कि डॉक्टर साहब बोलने लगे हैं। कुछ इस तरह से कि लगता है इनकी खामोशी ही अच्छी थी। एक इंटरव्यू में डॉक्टर साहब न जाने किस रौ में बोल गए कि अरे छोड़ो मेरे राज में भी कई बार सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी। अगले दिन जनरल वी के सिंह ने पूछ लिया, “मेरे सेना प्रमुख रहते कोई हुई हो तो बताएँ।” फिर जनरल बिक्रम सिंह ने आखिरकार कह दिया कि उनके सेना प्रमुख रहते हुए भी कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हुई। करगिल युद्ध के समय सेना प्रमुख रहे जनरल वी पी मलिक ने भी कह दिया कि जहाँ तक उन्हें पता है, कांग्रेस राज में ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
अब आरटीआई से मिले एक जवाब से भी पता चल गया है कि सत्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ डॉक्टर साहब के राज में कोई सर्जिकल स्टाइक नहीं हुई थी। शायद डॉक्टर साहब को अरुण शौरी ने बताया होगा, “आपको भले न पता हो लेकिन हमें मालूम है कि अहमद पटेल ने कई सर्जिकल स्ट्राइक की थीं लेकिन राष्ट्रहित में आपको भी पता नहीं चलने दिया। हमने पाकिस्तान को भी चुप रहने के लिए मना लिया, ये होती है विदेश नीति की सफलता।”
वैसे अभी तक एंटनी साहब इस मुद्दे पर चुप हैं जो बड़े लंबे समय तक रक्षा मंत्री रहे। एंटनी साहब का जवाब नहीं। सोनिया जी के वफादार एंटनी जी ने एक वीवीआईपी हेलिकाप्टर के अलावा भूले भटके ही किसी रक्षा सौदे पर दस्तखत किया होगा।यहाँ तक तो गनीमत थी। वो तो पूरा इंतजाम करके गए थे कि आगे कुछ खरीदा भी नहीं जा सके। एंटनी साहब की कमीज उजली रखने के लिए देश ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। टेंडर और फील्ड ट्रायल हो जाने के बाद सौदा रद्द कराने के लिए आपको बस इतना ही करना होता था कि एक गुमनाम चिट्ठी भेज दें कि इस कंपनी ने फलां-फलां को घूस दिया है। इतने पर एंटनी साहब उस कंपनी को ही ब्लैकलिस्टेड कर देते, और फिर नए सिरे से टेंडर-ट्रायल।
अरे एंटनी साहब तो मासूम थे यार। भारत की खोज करने वाले नेहरू जी का सेना से प्रेम इतना गहरा था कि क्या बताएँ आपको। लोग बकवास करते हैं कि चाचा नेहरू को बच्चों से या एडविना से बहुत प्रेम था। सेना के प्रति उनके प्रेम की एक बानगी तो देखिए। हमारे चच्चा शांतिकामी ताकतों के वैश्विक नेता बनना चाहते थे। आजादी के तुरंत बाद भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ जनरल राबर्ट लॉकहार्ट ने जब चच्चा से कहा कि हमें एक रक्षा योजना (Defence Plan) की जरूरत है तो उन्होंने लॉकहार्ट को डपट दिया। कहा, “आप चाहें तो सेना को भंग कर सकते हैं। हमारी सुरक्षा जरूरतों के लिए पुलिस काफी है।”
सेना को भंग करने की बहुत जल्दी थी चच्चा को। आजादी के ठीक एक महीने बाद 16 सितंबर को उन्होंने फरमान सुनाया कि सैनिकों की संख्या 2,80,000 से घटाकर डेढ़ लाख की जाए। 1950-51 में जब चीन तिब्बत पर कब्जा कर चुका था और तनाव बढ़ रहा था तब भी इस ‘देशभक्त’ ने सेना को भंग करने का सपना देखना नहीं छोड़ा। उस साल 50,000 सैनिकों को घर भेजा गया। 1947 में दिल्ली के नॉर्थ ब्लाक में सेना का एक छोटा सा दफ्तर होता था जहां गिनती के सैनिक थे। एक दिन चच्चा की नजर उन पर पड़ गई और उन्हें तत्क्षण गुस्सा आ गया, “ये यहाँ क्या रहे हैं? फौरन हटाओ इन्हें यहाँ से।” हमारे सैनिक यूं दुत्कारे गए थे।
प्रधानमंत्री बनते ही चच्चा ने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के हित में बहुत बड़ा कदम उठाते हुए सेना को थलसेना, वायुसेना और नौसेना में बाँट दिया। ब्रिटिश राज में भारत शायद एकमात्र देश था जहाँ सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों के लिए एक कमांडर इन चीफ था। लेकिन चच्चा ने कमांडर इन चीफ का पद ख़त्म कर दिया और आर्मी नेवी एयरफ़ोर्स के अलग-अलग ‘चीफ ऑफ़ स्टाफ’ बना दिए। तब से लेकर आज तक हम यूनीफाइड कमांड/थियेटर कमांड और सीडीएस (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ) बनाने को जूझ रहे हैं।
प्रधानमंत्री जी को शायद गंभीरता से लगता था कि भारतीय सेना को लड़ने नहीं आता। तभी तो 1948 के युद्ध में सैन्य कमांडरों को बताने लगे कि कैसे लड़ें। परिणाम यह हुआ कि एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के हाथ चला गया। जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) के एम करियप्पा ने 1948 के युद्ध में उत्कृष्ट नेतृत्व करते हुए मोर्चे पर सेना की अगुआई की। चच्चा कैसे खुश होते? उन्होंने जनरल करियप्पा को हटाने की ठान ली और उनकी जगह जनरल राजेंद्र सिंहजी जडेजा को सेनाध्यक्ष बनाने की कोशिश की। जनरल जडेजा मना नहीं करते तो ये भी हो जाता।
भारतीय सेना के निरंतर अपमान और मनोबल तोड़ने की परंपरा को आगे बढ़ाने में चच्चा के चहेते और विलक्षण प्रतिभा के धनी कृष्ण मेनन ने पूरी ऊर्जा झोंक दी। मेनन ने सेना के पूरे चेन ऑफ कमांड को ध्वस्त कर दिया। कायदे से रक्षा मंत्री सिर्फ सेना प्रमुख से बात करता है लेकिन मेनन तो फोन उठा कर मेजर से भी बात कर लेते थे। सेना प्रमुख की उनके लिए कोई विशेष हैसियत नहीं थी। के एम करियप्पा के बाद नेहरू-मेनन की जोड़ी के निशाने पर जनरल के एस थिमैया आए।
1957 में सेना प्रमुख बने जनरल थिमैया का कद इतना बड़ा था कि नेहरू-मेनन को खतरा लगने लगा। दिखावे के लिए चच्चा सार्वजनिक रूप से उनकी प्रशंसा का कोई मौका नहीं चूकते थे। गर्वीले सैनिक जनरल थिमैया सेना से नेहरू-मेनन की चिढ़ से अंजान नहीं थे पर घुटने टेकने वालों में से नहीं थे। 28 अगस्त, 1959 को उनकी नेहरू से तल्ख बहस हो गई। उसी रात पी के टल्ली रक्षा मंत्री मेनन ने जनरल साहब को धमकाया कि सीधे प्रधानमंत्री से कैसे बात कर लिए, नतीजा बुरा होगा। जनरल थिमैया ने अगले दिन इस्तीफा दे दिया।
नेहरू ने उन्हें बुलाया और इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाया। पर जैसे ही जनरल पीएमओ से निकले, चच्चा ने खबर लीक कर दी। दो सितंबर को नेहरू ने इस्तीफे के बाबत संसद में बयान दिया और ठीकरा थिमैया पर फोड़ दिया। जिस सेना को दफन करने का सपना चच्चा ने पाल रखा था, जरूरत पड़ने पर उसी के भरोसे वे चीन को ठिकाने लगाने का भी सपना पाल रखे थे। 1961 में चच्चा के परम प्रिय जनरल बी एम कौल आर्मी के चीफ ऑफ स्टाफ बने। उनका मानना था कि चीनी बिना लड़े ही भाग जाएँगे लेकिन चीनी जब घर में घुस आए तो कौल साहब बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो गए। बाकी चीनियों ने हमें रौंद दिया। लगा कि पूरा असम चला जाएगा और चच्चा ने रेडियो पर कहा, “मेरा दिल असम के लिए रो रहा है।”
चच्चा, आपने जो किया वो भुगता। अब भी समाजवाद और धर्मनिरेपक्षता की मुगली घुट्टी पी रहे सुधीजनों को यह ईशनिंदा लग सकता है। पर कर्मन की गति न्यारी! और रेनकोट वाले डॉक्टर साहब, आप भी अगर खामोश रहते तो अच्छा था। अब आबरू क्यों गंवाई? हम तो कॉन्ग्रेसियों से सुषमा जी की तरह ही पूछेंगे- ‘तू इधर-उधर की बात न कर, ये बता कि काफ़िला क्यों लुटा, मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।’
—आदर्श सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)